बाबा मोतीराम मेहरा को कोल्हू में परिवार सहित जिन्दा पीस दिया औरंगजेब के किलेदार वजीर खान ने

बाबा मोतीराम मेहरा को कोल्हू में परिवार सहित जिन्दा पीस दिया औरंगजेब के किलेदार वजीर खान ने

रमेश शर्मा

बाबा मोतीराम मेहरा को कोल्हू में परिवार सहित जिन्दा पीस दिया औरंगजेब के किलेदार वजीर खान नेबाबा मोतीराम मेहरा को कोल्हू में परिवार सहित जिन्दा पीस दिया औरंगजेब के किलेदार वजीर खान ने

(3 जनवरी 1705 बाबा मोतीराम मेहरा का सपरिवार बलिदान)

इतिहास के पन्नों में क्रूरता के ऐसे विवरण मिलते हैं, जिन्हें पढ़कर आज भी हृदय विदीर्ण हो उठता है। ऐसा ही विवरण बाबा मोतीराम और उनके परिवार का मिलता है, जिन्हें औरंगजेब के किलेदार वजीर खान ने जिन्दा कोल्हू में पीसा था।

बाबा मोतीराम मेहरा का उल्लेख हर सिक्ख ग्रंथ में है, पर स्वाभिमान और स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास से यह गायब है। आतताइयों ने जीवन रक्षा के लिये उनके सामने एक मात्र शर्त रखी थी कि वे इस्लाम ग्रहण कर लें पर वीर मोतीराम अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। उनके परिवार का कोई भी सदस्य नहीं झुका और सब बलिदान हो गये। सरहिन्द के किलेदार वजीर खान ने अपने बादशाह औरंगजेब के आदेश पर इस क्रूरता का सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया। एक भीड़ एकत्रित की गई और सबके सामने पूरे परिवार को कोल्हू में जिन्दा पीस दिया गया ताकि लोग भयभीत होकर कन्वर्जन के लिये तैयार हो जायें। इस परिवार की वीरता और बलिदान का उल्लेख बंदा बैरागी ने किया है। इनकी स्मृति में एक गुरुद्वारा फतेहगढ़ में बना है। जहाँ क्रूरता से भरी इस घटना का विवरण अंकित है। इस परिवार का बलिदान गुरु गोविन्द सिंह के साहबजादों के बलिदान से जुड़ा है।

बाबा मोतीराम मेहरा का जन्म नौ फरवरी 1671 को हुआ था। इनके चाचा हिम्मत राय गुरु गोविन्दसिंह जी के पंच प्यारों में से एक थे। जब वे सिक्ख बने, उनका नाम हिम्मत राय से हिम्मत सिंह हुआ। इनके पूर्वज जगन्नाथ पुरी उड़ीसा के रहने वाले थे। समय के साथ पंजाब आये और सरहिन्द में अपना स्थाई निवास बनाया। बलिदानी मोतीराम के पिता हरिराम मुगल कैदखाने में थे। बंदी के रूप में उनसे सरहिन्द कैदखाने के बंदियों के रसोई घर में काम लिया जाता था। दिसम्बर 1704 के अंतिम सप्ताह में औरंगजेब के आदेश पर गुरु गोविन्द सिंह के चारों साहबजादों का बलिदान हुआ था। वह बलिदान साधारण नहीं था। पहले दोनों बच्चों को दो दिनों तक कठोर यातनाएं दी गईं और भूखा प्यासा रखा गया। 25 और 26 दिसम्बर की मध्य रात्रि को कड़कती ठंड में दोनों छोटे साहबजादों को रात भर दीवार पर पटक कर रखा गया। कोई कल्पना कर सकता है उस यातना की, जिसमें दो भूखे प्यासे बच्चों को ठंड की रात में बिना कपड़ों के हाथ पैर बाँधकर खुले में पटका जाये। वह दृश्य जिसने देखा हृदय काँप उठा। बाबा मोतीराम का अपराध यह था कि उन्होंने दो दिन के भूखे और खुले में दीवार पर पटके गये साहबजादों के पास किसी तरह दूध पहुँचा दिया था। यह समाचार छिप न सका। किलेदार वजीर खान को पता लग गया था। उसने पहले साहबजादों और माता गूजरी के प्राण लिये और दो दिन बाद सरहिन्द के किलेदार वजीर खान के आदेश पर फौज ने उस गाँव को घेर लिया जहाँ बाबा मोतीराम रहते थे। फौज ने इस पूरे परिवार को बंदी बनाया। इसके साथ पूरे गाँव को घेरकर किले के द्वार पर लाया गया। मोती राम के परिवार में उनकी माताजी, पत्नी, नौ वर्ष का बेटा और स्वयं कुल चार सदस्य थे। पिता को भी बंदी बनाकर लाया गया। वजीर खान ने पहले इन सभी को खंबे से बाँधा और यातनाएँ देनी आरंभ कीं। वह इस पूरे परिवार को कठोर यातनाएँ देकर संदेश देना चाहता था कि भविष्य में कोई किसी बंदी की सहायता न करे। यातनाएँ देकर वजीरखान ने कन्वर्जन की शर्त पर जिन्दा छोड़ने का प्रस्ताव दिया। किन्तु भीषण सर्दी में कठोर यातनाओं के बीच भी बाबा मोतीराम और उनके परिवार का स्वाभिमान यथावत रहा। सबने कन्वर्जन से तो इंकार तो किया ही, साहबजादों को दूध के कार्य पर गर्व भी व्यक्त किया। इससे वजीर खान और क्रुद्ध हुआ और उसने पूरे परिवार को कोल्हू में जिन्दा पीसने का आदेश दिया। वह तीन जनवरी 1705 का दिन था, जब इस परिवार को कोल्हू में गन्ने की तरह जिन्दा पेर दिया गया।

बाबा मोतीराम को आतंकित करके कन्वर्जन के लिये विवश करने के उद्देश्य से वजीरखान ने सबसे पहले उनके नौ वर्षीय पुत्र को कोल्हू में पीसने का आदेश दिया। फिर माता लद्दो देवी को, फिर पत्नी भोला देवी को और अंत में बाबा मोतीराम को जिन्दा कोल्हू में पीसा गया। गाँव के जो लोग बंदी बनाकर लाये गये थे। उनमें वही बच सके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया। हालाँकि कुछ विवरणों में इस घटना की तारीखों में मामूली अंतर आता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि बाबा मोतीराम मेहरा और उनके परिवार को 30 दिसम्बर 1704 को पकड़ा गया और एक जनवरी 1705 को कोल्हू में पीसा गया। जबकि कुछ का मानना है कि 30 दिसंबर को वजीर खान को खबर लगी, 31 दिसम्बर को परिवार सहित पकड़ कर लाया गया, एक जनवरी को पेशी हुई और तीन जनवरी 1705 को कोल्हू में पीसा गया। विवरण में भले दो दिन का अंतर आता हो, पर परिवार सहित जिन्दा कोल्हू में पीसने का वर्णन समान है।

फतेहगढ़ स्थित गुरुद्वारे के समीप बाबा मोती राम मेहरा मेमोरियल ट्रस्ट काम करता है। इस ट्रस्ट के लिये शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा भूमि दान में दी गई थी। पंजाब सरकार ने यहाँ एक पार्क भी विकसित किया है।

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