नवलगढ़ में बाबा रामदेव के मेले में सबसे पहले धोक लगाता है घोड़ा
नवलगढ़ में बाबा रामदेव के मेले में सबसे पहले धोक लगाता है घोड़ा
जयपुर। जैसलमेर जिले के रामदेवरा की तरह ही शेखावाटी के नवलगढ़ में भी बाबा रामदेव का विशाल मेला भरता है। यहां ना केवल राजस्थान बल्कि दूसरे राज्यों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस बार यह मेला 12 सितंबर को भर रहा है। परंपरा के अनुसार, पूर्व राजपरिवार के महल से घोड़ा निकलता है और नगर में लगभग दो किलोमीटर घूमते हुए रामदेवजी मंदिर पहुंचता है। घोड़े के साथ एक सफेद ध्वज और 251 निशान चलते हैं। यहां पहुंचने पर घोड़ा बाबा रामदेवजी के धोक और परिक्रमा लगाता है। इसके बाद यह सफेद ध्वज मंदिर के गुंबद पर लगा दिया जाता है। तभी ज्योत प्रकट होती है। इसी के साथ मेले का शुभारम्भ हो जाता है। यह ज्योत वर्ष में दो बार प्रकट होती है। इस दौरान कामड़ समाज के लोगों की उपस्थिति आवश्यक होती है। कामड़ परिवार के लोग बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि उनको परम्परा का तो पता नहीं है, लेकिन यह बाबा रामदेव का आशीर्वाद है कि उनका परिवार इस परम्परा को पीढ़ियों से निभा रहा है। वर्ष 1776 में नवलगढ़ के राजा नवलसिंह ने मंदिर का निर्माण कराया था, तभी से यह परंपरा चली आ रही है। मंदिर में बाबा रामदेव के चमत्कारों को चित्रांकित गया है। मेले में सभी समाजों के लगभग 5 से 7 लाख श्रद्धालु पहुंचते हैं।
मंदिर का इतिहास और उससे जुड़ी कथा
प्रचलित कथा के अनुसार, नवलगढ़ के तत्कालीन राजा नवलसिंह की रानी की लोकदेवता बाबा रामदेव में गहरी आस्था थी। राजा नवलसिंह दिल्ली के बादशाह शाह आलम द्वितीय को 22 हजार रुपए का कर देने के लिए दिल्ली जा रहे थे। हरियाणा के दादरी में उन्हें पता चला कि चिड़ावा निवासी महिला के कोई सगा भाई नहीं है, वह भात भरने के लिए अपने चचेरे भाइयों की प्रतीक्षा कर रही थी, लेकिन वे नहीं आए। लोग महिला का उपहास उड़ाने लगे। यह बात राजा नवलसिंह को पता चली तो उन्होंने भात में 22 हजार रुपए दे दिए और नवलगढ़ वापस लौट आए। कर नहीं चुकाने की बात बादशाह को पता चली तो उसने अपने सेनापति को नवलगढ़ भेजा। सेनापति ने धोखा देकर राजा नवलसिंह को गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली की जेल में डाल दिया। जेल में रहने के दौरान नवलसिंह लोक देवता बाबा रामदेवजी को याद कर सो गए। उनकी पत्नी ने भी रामदेवजी को याद किया। कुछ देर बाद मौसम खराब हो गया, तेज हवाएं चलने के कारण सर्दी बढ़ गई। पहरेदार अपना स्थान छोड़कर चले गए। कारावास का गेट टूटकर नीचे गिर गया। इसी दौरान नवलसिंह की नींद टूट गई। इसके बाद वे जेल से बाहर आ गए। बाहर आकर देखा तो पीपल के पेड़ के नीचे एक घोड़ा दिखाई दिया। वे इस घोड़े पर सवार हो गए। घोड़ा तेज रफ्तार से दौड़ता हुआ नवलगढ़ आ गया। नवलसिंह ने इस घोड़े को गढ़ में ले जाने का प्रयास किया, लेकिन घोड़ा नहीं हिला। इसके बाद वे घोड़े को वहीं पर छोड़कर गढ़ में चले गए। वहां से उन्होंने अपने पहरेदारों को घोड़ा लाने के लिए भेजा, लेकिन घोड़ा वहां नहीं मिला, मिले तो सिर्फ घोड़े के पैरों के निशान। इसके बाद नवलसिंह की बाबा रामदेवजी में गहरी आस्था हो गई। राजा ने सन् 1776 में बाबा रामदेवजी के मंदिर का निर्माण उसी जगह करवाया जहां पर घोड़ा रुका था। मंदिर निर्माण के बाद मेले भरने की परंपरा शुरू हो गई।
सामाजिक समरसता के प्रतीक थे बाबा रामदेव
लोकदेवता बाबा रामदेव राजस्थान ही नहीं पूरे देश में भक्तों की आस्था का केन्द्र हैं। जन मानस में वे रुणीचा रा धणी और रामसा पीर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। बाबा रामेदव जी ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को दूर कर सामाजिक समरसता स्थापित करने के अनेक प्रयास किए।
बाबा रामदेव का जन्म चैत्र सुदी पंचमी, विक्रम संवत 1409 को रामदेवरा में हुआ था। इनके पिता का नाम अजमल तंवर और माता का नाम मैना दे था। इनकी पत्नी का नाम नैतल दे और दो पुत्र सादोजी और देवोजी थे। इनके घोड़े के नाम लीलो था। बाबा रामदेव ने भादवा सुदी एकादशी, विक्रम संवत 1442 में रामदेवरा में जीवित समाधि ली थी। बाबा रामदेव को इनके भक्त भगवान कृष्ण और उनके बड़े भाई वीरदेवजी को बलराम का अवतार मानते हैं। इनकी धर्म बहन डाली बाई ने यहां पर उनकी आज्ञा से एक दिन पहले जलसमाधि ली थी। डाली बाई का मंदिर इनकी समाधि के समीप स्थित है। इनकी एक सगी बहन सुगना बाई का विवाह पुंगलगढ़ के परिहार राव किशन सिंह (प्रतिहार राजपूत ) से हुआ। बाबा रामदेव जी ने कामड़िया पंथ की स्थापना की थी। रामदेव जी के गुरु का नाम बालीनाथ था। ऐसी मान्यता है कि रामदेवजी ने बाल्यावस्था में ही सातलमेर (पोकरण) मरु भूमि क्षेत्र में तांत्रिक भैरव राक्षस का वध करके उसके आतंक को समाप्त करके जनता को कष्ट से मुक्ति दिलाई थी। बाबा रामदेव ने पोकरण कस्बे को पुनः बसाया तथा रामदेवरा (रुणेचा) में रामसरोवर का निर्माण करवाया। बाबा के भक्त मंदिरों में कपड़े का घोड़ा बनाकर मंदिर में अर्पित करते हैं। रामदेवजी का मेला प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक लगता है।