बांग्लादेश में बने स्वायत्त अल्पसंख्यक परिक्षेत्र
कैप्टेन आर. विक्रम सिंह
बांग्लादेश में बने स्वायत्त अल्पसंख्यक परिक्षेत्र
50 वर्षों की स्वतंत्रता के बाद बांग्लादेश वापस पूर्वी पाकिस्तान बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। वही जमाते इस्लामी है, वही रजाकार हैं। वही हिन्दू समाज उनका लक्ष्य है। इस अभियान में विदेशी शक्तियों की भूमिका प्रेस कांफ्रेंस में स्वयं शेख हसीना ने व्यक्त कर दी है। उनका उद्देश्य शेख हसीना को बेदखल कर वहां भारत विरोधी शक्तियों को सशक्त करना है। सेंट मार्टिन द्वीप न मिलने के कारण हसीना सरकार बरखास्त करा दी गयी। पूर्वोत्तर में ईसाई राज्य की स्थापना भी एक एजेंडा है। फिलहाल, इस पहले राउंड में वे सफल होते दिख रहे हैं, लेकिन उनका खेल खुल गया है।
1975 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, जब शेख मुजीब की परिवार सहित सेना और मजहबियों के गठजोड़ ने हत्या की थी। बांग्लादेश की उस एमरजेंसी में भारत का तत्काल दखल देना बनता था। लेकिन इंदिरा गांधी साहस न कर सकीं। वह बांग्लादेश का भटकाव रोकने और अल्पसंख्यकों को सुरक्षित करने का आदर्श अवसर था।
आज बांग्लादेश में हिन्दुओं की स्थितियां भयावह होने की तरफ बढ़ रही हैं। फिर भी हत्या बलात्कार मंदिर ध्वंस बलात् कन्वर्जन के मध्य हिन्दू समाज ने ढाका की सड़कों पर पहली बार प्रदर्शन करने का साहस किया है। दूसरे ही दिन इसकी प्रतिक्रिया में इस्लिमिस्टों द्वारा बड़ा प्रदर्शन किया गया। हिन्दू शरणार्थियों का रेला सीमाओं की ओर चला है। बीएसएफ द्वारा उन्हें रोका जा रहा है। स्थितियां विषम हैं। भारत द्वारा बांग्लादेश प्रशासन को सचेत करना चाहिए कि ये शरणार्थी भारत की सीमा को पार नहीं करेंगे, लेकिन वे वापस प्रताड़ना के जंगलों में भी नहीं भेज दिये जाएंगे। भारत सरकार की व्यवस्था में बांग्लादेश की सीमा के अंदर ही हमारे शरणार्थी कैम्प बनें।
ऐसा करना बांग्लादेश की सार्वभौमिकता का उल्लंघन नहीं है। सेनाएं शरणार्थियों की व्यवस्था के लिए बांग्लादेश की सीमा के क्षेत्रों, नगरों की प्रशासनिक सुविधाओं का उपयोग करेंगी।
हिन्दू जनसंख्या 1947 में 32% से घट कर आज 7.5 % हो गयी है। 75 वर्षों की लगातार प्रताड़ना अत्याचार के बावजूद वहां के हिन्दू समाज ने कभी स्वतंत्रता की मांग नहीं की, कोई प्रतिरोध मोर्चा या सशस्त्र सेना नहीं बनाई। 1.3 करोड़ के संख्याबल के बावजूद वे कश्मीरी हिन्दुओं के समान जीवन व्यतीत करते रहे हैं। इनमें कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं उभरा, कोई हिन्दू मिलिशिया नहीं बनी जबकि वे इजराइल के यहूदियों से संख्याबल में दुगुने हैं। उन्हें विद्रोही बलोचों, तालिबानों से बहुत कुछ सीखना चाहिए था।
बांग्लादेश बनते समय हिन्दू 15 प्रतिशत बचे थे। आज उसके भी आधे लगभग 7.5 % रह गये हैं। बांग्लादेश के हिन्दुओं के मानवाधिकार हनन की जो वीभत्स स्थितियां हैं, वे हमारे राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा नहीं बन पातीं। मंदिरों पर हमले चल रहे हैं। सत्ता में जमाते इस्लामी है। गजवा ए हिन्द उनका लक्ष्य है। एक बड़ी और अवैध बांग्लादेशी जनसंख्या भारत में निवास कर रही है और वहां बांग्लादेश के हिन्दू मजहबी कट्टरता के शिकार हो रहे हैं। सेक्युलरिज्म से बीमार हमारे नेताओं ने कभी भी उनका मुद्दा नहीं उठाया।
हमारे सामने रास्ता क्या है? कट्टर मजहबियों की गुलामी से हिन्दू समाज की मुक्ति का एकमात्र रास्ता स्वतंत्रता का लक्ष्य है। स्वतंत्रता के रास्तों पर कोई फूल नहीं बिछे होते। वह युद्ध और बलिदान से होकर आता है। एक अल्पसंख्यक राजनैतिक दल का गठन समाधान के रास्ते का पहला पड़ाव है। आगे संघर्ष प्रारंभ होंगे, वे सशस्त्र संघर्ष, गुरिल्ला युद्धों में बदलेंगे। संघर्षों की सफलताएं हमें हमारे दूसरे कदम, स्वशासी स्वायत्त हिन्दू परिक्षेत्रों अर्थात् ‘एनक्लेव’ के गठन की राह खोलेंगी। अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी जनसंख्या के सुरक्षित क्षेत्रों की ओर प्रस्थान करके अपनी संख्याबल को एकत्रित करना है। यहां से स्वतंत्रता की रूपरेखा बननी प्रारंभ होगी। यहां भारत की भूमिका, 1971 की तरह सफलता एवं असफलता में निर्णायक सिद्ध होगी। इससे भारत की चिकेन नेक जैसी रणनैतिक समस्याओं का समाधान भी होता है। चटगांव एवं रंगपुर के क्षेत्रों को स्वायत्त हिन्दू क्षेत्र बना कर वहां हिन्दुओं को स्थानांतरित किया जाना संभव तभी हो सकेगा जब भारत की इसमें भूमिका होगी।
1947-48 के कश्मीर युद्ध के समय पाकिस्तान ने कश्मीर में हमारी 85 हजार वर्ग किमी भूमि पर कब्जा कर लिया था। यह हमारी 1962 की चीन से भी बड़ी पराजय थी। उस समय हमारे नेता नेहरू यदि चाहते तो उसकी प्रतिक्रिया में सेनाओं द्वारा पूर्वी पाकिस्तान के रंगपुर सिलहट चटगांव के क्षेत्र अपने अधिकार में आसानी से ले सकते थे। पाकिस्तान को तो कश्मीर छोड़ना था ही नहीं और फिर हमें रंगपुर सिलहट चटगांव का क्षेत्र नहीं छोड़ना होता। ये स्थायी रूप से भारत से जुड़े हुए क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिन्दू समाज के लिए सुरक्षित एनक्लेव बन सकते थे। लेकिन रणनैतिक बुद्धि-चातुर्य के लिए हमारे ये तुष्टीकरणजीवी नेता कभी जाने ही नहीं गये। अब समाधान युद्ध और बलिदानों से ही संभव है। मुक्तिसेना या मुक्तिवाहिनी का गठन एक अनिवार्य आवश्यकता है। जब इजराइल देश बना और सिर पर युद्ध आ गया तो यहूदी दुनिया दहलाने वाले जबरदस्त लड़ाके बने।
विश्व में सुरक्षित एनक्लेव जैसी व्यवस्थाओं के अनेक उदाहरण हैं। रूस ने लगभग एक वर्ष पहले डोनबास एरिया में दो स्वायत्त एनक्लेव के गठन की घोषणाएं की हैं। रंगपुर डिवीजन के 17000 वर्ग किमी एवं चटगांव डिवीजन पेनिनसुला के 34500 वर्ग किमी क्षेत्रों को अधिकार में लेकर समस्त 1.3 करोड़ हिन्दुओं के समायोजन की व्यवस्था करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। कभी जिन्ना ने कहा था कि हिन्दू मुसलमान अलग राष्ट्र हैं, वे साथ नहीं रह सकते। यही पाकिस्तान के गठन का आधारभूत सिद्धांत बना। वही तर्क बांग्लादेश में भी लागू करने का समय आ गया है।
सन् 1950 में हुए ढाका के भीषण दंगों में दस हजार हिन्दुओं की नृशंस हत्या से सरदार पटेल इतने व्यथित हो गये थे कि उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की भूमि पर कब्जा कर वहां हिन्दुओं को बसाने की चेतावनी तक दे दी थी। भारत में तो अल्पसंख्यक आदर्श राजनैतिक स्थिति में हैं। जबकि पाकिस्तान बांग्लादेश में वह कौन सा कहर है जो वहां के हिन्दुओं पर नहीं टूटा है।
आज इतने वर्षों बाद 1971 के बांग्लादेश युद्ध जैसी स्थितियां पुन: बन रही हैं। अंतर यह है कि जो पिछला अभियान था वह बांग्लादेश की स्वतंत्रता का था और अगला अभियान बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता, मजहबी शोषण व प्रताड़ना से मुक्ति के लिए होगा। यह एक बड़ा राजनैतिक निर्णय होगा, जो भारत की बांग्लादेश समस्या का, चीन पाकिस्तान अमेरिका की कुटिल चालों की संभावना का स्थायी अंत कर देगा।
(पूर्व सैनिक पूर्व प्रशासक)