बसंत पंचमी: वीर हकीकत राय का बलिदान दिवस
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तृप्ति शर्मा
बसंत पंचमी: वीर हकीकत राय का बलिदान दिवस
हमारे अद्वितीय सुंदर देश की अनूठी संस्कृति की मुख्य पोषक हैं, यहां की विभिन्न सुहानी ऋतुएं, जो स्वयं में ही अनेक परंपराएं और उत्सव समेटे हुए हैं। इनमें बसंत ऋतु विशेष है, जिसे ऋतुराज भी कहा जाता है। बसंत में प्रकृति अपने श्रेष्ठतम रूप में दिखाई देती है। शरद ऋतु में पूरी प्रकृति बिल्कुल शिथिल व शांत रहकर अपनी आंतरिक ऊर्जा संचित करने में जुटी रहती है। शरद ऋतु की विदाई के साथ ही सृष्टि में नवजीवन का संचार होता है। मरुस्थल में निरपेक्ष भाव से कड़ी कीकर में भी कोंपल फूटती हैं। सोने की छोटी-छोटी गोलियों जैसे फूलों से कीकर भर जाती है। पूरी धरा पीले फूलों से सुसज्जित दिखाई देती है। वनस्पतियां अपने रंग-बिरंगे फूलों से धरती का शृंगार करती हैं। इसी समय कोयल की कूक, भंवरों की गूंजार, पक्षियों का मधुर कलरव, रंग बिरंगी तितलियां सब एक साथ बसंत उत्सव मनाते से प्रतीत होते हैं। चालीस दिन के बसंत उत्सव में माघ मास के शुक्ल पक्ष की बसंत पंचमी का दिन अंतिम और विशेष होता है। बसंत पंचमी का उत्सव प्राकृतिक सौंदर्य के साथ हमारी अध्यात्मिक मान्यताओं का भी पोषक है। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार, सुंदर सृष्टि के सृजन के बाद भी जब ब्रह्मा जी को यह नीरस प्रतीत हुई क्योंकि चहूं और नीरवता छाई हुई थी। तब उन्होंने अपने कमंडल के जल को पृथ्वी पर छिड़का उन जल कणों से वन के बीच एक चतुर्भुजी देवी प्रकट हुईं, जिनके एक हाथ में वीणा, एक हाथ वर मुद्रा में, एक में पुस्तक और एक हाथ में माला थी। ब्रह्मा जी के कहने पर उन वीणा वादिनी देवी के द्वारा वीणा का तार छेड़ते ही सभी प्राणी मात्र को वाणी, पवन को संगीत, जल को मधुर नाद व पक्षियों को चहचहाहट मिली। इस प्रकार प्रकृति को सौंदर्य के साथ माधुर्य मिला और मनुष्य को अक्षर ज्ञान। ज्ञान की देवी वीणा वादिनी मां शारदा इसी दिन प्रकट हुई थीं। इसलिए बसंत पंचमी को उनका पीले फूलों से शृंगार करके पूजन किया जाता है। इसी दिन नव शिष्यों की विद्या प्रारंभ करने की हमारी प्राचीन परंपरा रही है। यह पर्व हमें प्रकृति के रक्षण और पूजन की परंपराएं याद दिलाता है। गाती गुनगुनाती पवन, खिलती लहराती फसलें, चहकते पंछी सभी नव संवत के स्वागत को आतुर से लगते हैं।
ऐसी ही एक बसंत पंचमी थी वर्ष 1734 की, दिनांक थी 4 फरवरी, जब देश उत्सव मना रहा था और वीर बालक हकीकत राय मुस्लिम आततायी मिर्जा बेग की क्रूरता पर हंसते हुए अपने प्राणों की आहुति दे रहा था, ताकि यह देश, यह धर्म शाश्वत रहे और समाज ऐसे ही मां सरस्वती के प्राकट्य दिवस बसंत पंचमी मनाता रहे। हकीकत राय ने लाख लालच देने और डराने धमकाने के बाद भी जब मुसलमान बनने से इन्कार कर दिया, तो मिर्जा बेग ने तलवार से उसका सिर काटकर धड़ से अलग कर दिया। तब हकीकत राय की आयु मात्र 13 वर्ष थी। उस बालक ने भगवद्गीता की पंक्ति-“स्वधर्मे निधनंश्रेयः पर धर्मो भयावहः” बोलते हुए सहर्ष मौत को स्वीकार कर लिया। कैसा दिव्य प्रेम रहा होगा उसका, अपनी संस्कृति और धर्म के लिए। कितनी उत्कृष्ट भावना रही होगी उस बालक की, जो धर्म पर प्राण न्योछावर करते हुए तनिक भी नहीं डगमगाया। विश्व के इतिहास में अन्य कहीं ऐसा उदाहरण नहीं मिलता, जहां अपने धर्म की रक्षा के लिए अबोध बालकों ने निडरता से मृत्यु का वरण किया हो। कितने खिले अधखिले पुष्पों ने स्वयं को तूफानों से खेलते हुए सहर्ष भारत माता की रज में मिला दिया, तभी आज यह मिट्टी मानवता के सनातन धर्म से सुगंधित है और हम बसंत उत्सव मना पा रहे हैं। आज हम जब वीर हकीकत राय को याद करते हैं तो गुरु गोविंद सिंह के दो नन्हें साहिबजादों का बलिदान अनायास ही स्मरण हो आता है और ऐसा प्रतीत होता है मानो यह शीतल सुहानी पवन अनगिनत अबोध बलिदानियों के संदेश लाई है, जो कह रही है कि देश धर्म की रक्षा के लिए हमने अपना कर्तव्य निभाया आप भी अपना कर्तव्य निभाइए।