जनजाति समाज का कुंभ बेणेश्वर मेला

जनजाति समाज का कुंभ बेणेश्वर मेला

दुर्गाशंकर त्रिवेदी

जनजाति समाज का कुंभ बेणेश्वर मेलाजनजाति समाज का कुंभ बेणेश्वर मेला

राजस्थान के जनजाति बहुल डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा जिले गुजरात और मध्यप्रदेश की सीमा से लगते हैं। यह क्षेत्र वागड़ कहलाता है। इसी वागड़ क्षेत्र में सोम, माही एवं जाखम नदियाँ बहती हैं। इन तीनों नदियों का संगम डूंगरपुर जिले की आशापुरा तहसील के नवाटापरा गाँव के पास है। संगम स्थल पर एक त्रिभुजाकार टापू है, जिसे वागड़ी बोली में ‘बेण’ कहा जाता है। इसी टापू पर एक प्राचीन शिवलिंग है, जो बेणेश्वर महादेव नाम से प्रसिद्ध है। इसी कारण इस स्थान का नाम बेणेश्वर धाम पड़ा। बेणेश्वर में ही संत मावजी ने तपस्या की थी। उन्होंने लोगों को कृष्ण भक्ति का उपदेश देकर मानव प्रेम बढ़ाने और जातिभेद कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जनजाति समाज के लोगों ने उन्हें विष्णु का अवतार माना। वे आज भी मावजी के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं।

टापू पर कई मंदिर हैं। शिव मंदिर का निर्माण तत्कालीन डूंगरपुर रियासत के महारावल आसकरण जी ने वि. संवत् 1510 में करवाया था। मावजी की पुत्रवधु जनक कुंवरी ने यहाँ वि. संवत् 1850 में कृष्ण मंदिर बनवाया था। ब्रह्मा जी का मन्दिर विक्रमी 1688 में बना।

संगम का महत्व

बेणेश्वर के पवित्र स्थलों का जितना महत्व है, उतना ही महत्व नदियों के संगम का। संगम में स्नान को मुक्तिदायक, आरोग्यदायक तथा सिद्धिदायक माना जाता है। जनजाति समाज यहाँ सदियों से बेणेश्वर मेले के अवसर पर एकत्र होता है। उनके लिए बेणेश्वर संगम प्रयाग, काशी और पुष्कर से भी अधिक महत्व रखता है। इसीलिए बेणेश्वर मेले को ‘जनजाति समाज का कुंभ’ तथा बेणेश्वर धाम को ‘वागड़ का पुष्कर’ की संज्ञा दी जाती है। प्रतिवर्ष माघ शुक्ल एकादशी से फाल्गुन पंचमी तक यहाँ मेला लगता है। मेले के अवसर पर यहाँ का नैसर्गिक सौन्दर्य देखते ही बनता है। माघ पूर्णिमा को मेला चरम पर होता है। मेले के दौरान दस लाख से अधिक लोग पवित्र संगम में स्नान करते हैं। सभी जाति समाजों के लोगों की उपस्थिति यहाँ रहती है। न केवल राजस्थान बल्कि मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से भी बड़ी संख्या में लोग मेले में सम्मिलित होते हैं।

जनजाति समाज का तीर्थ

जनजाति समाज के लोगों का तो यह एकमात्र तीर्थ है, जहाँ वे लाखों की संख्या में एक साथ स्नान, ध्यान कर धर्म-लाभ प्राप्त करते हैं। यहीं पर वे अपने दिवंगत परिवारजनों की अस्थियां विसर्जित कर पितृ ऋण से भी मुक्त होते हैं। स्कन्ध पुराण में इस स्थान के बारे में उल्लेख है कि बलिराजा ने यहाँ तपस्या की थी और भगवान वामन ने अपना तीसरा पैर यहीं रखा था। मान्यता है, कि संगम के पास जो गहरी खाई है, वह वामन के पैर से ही बनी। इसे आबूदर्श कहा जाता है। जनजातीय लोग इसी स्थान पर तर्पण, मुण्डन एवं सामूहिक भोग का आयोजन माघ शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा तक करते हैं। मृत पुरुष की अस्थियाँ सफेद वस्त्र में और महिला की लाल वस्त्र में सुरक्षित रखी जाती हैं, जिनका मेले के अवसर पर संगम में विसर्जन किया जाता है।

मावजी महाराज

हरिवंश पुराण में साबला गाँव में कल्की अवतार होने का उल्लेख आता है। संगम से 8 किमी दूर स्थित साबला गाँव में औदिच्य कुल में जन्मे मावजी को वागड़ क्षेत्र में विष्णु का कल्की अवतार माना जाता है। मावजी 12 वर्ष की आयु में घर छोड़कर तपस्या के लिए निकल पड़े थे। बेणेश्वर में भी उन्होंने तपस्या की। लोगों को सह अस्तित्व एवं एकात्म भाव की शिक्षा उन्होंने दी। मावजी ने कई भविष्यवाणियाँ की थीं, जो अब सत्य सिद्ध हो रही हैं।

बेणेश्वर के प्रथम महंत मावजी ही थे। साबला में उनकी गद्दी (गादी) है, जो मानिन्दा मठ के नाम से प्रसिद्ध है। यही कारण है कि साबला से मेले के अवसर पर उनके अनुयायी (महंत) को पालकी में बैठाकर बेणेश्वर धाम लाया जाता है। मेले के दौरान महंत वहीं ठहरते हैं। पूर्णिमा के दिन साबला से आई विशेष पालकी में बैठकर महंत संगम स्नान करने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि महंतजी के स्नान करने से संगम का जल पवित्र हो जाता है। इसीलिए महंत जी के स्नान करने के पश्चात् संगम स्नान आरंभ होता है। साबला मठ के महंत पंचमी तक कृष्ण मंदिर में ठहरते हैं और भक्तजनों को दर्शन देते हैं। नये शिष्यों को कंठी पहनाकर दीक्षा देते हैं। पूर्णिमा की रात को कृष्ण मंदिर में साद जाति के लोग रासलीला करते हैं, जो दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र होती है। रात्रि में भक्तगण मावजी की कथाएँ गाते हैं। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है।

गौरवमयी परम्परा

व्यापारी मेले में दुकानें लगाकर अच्छी आय कर लेते हैं। मेले में कृषि के उपयोग की सम्पूर्ण सामग्री, पत्थर व मिट्टी के बर्तन, धातुओं के बर्तन, तैयार वस्त्र, चूड़ियाँ, श्रृंगार सामग्री सहित फल-सब्जियां भी खूब बिकती हैं।

जनजातीय समाज के वैवाहिक सम्बन्ध भी इस अवसर पर तय होते हैं। रात्रि में ये लोग आग के चारों ओर बैठकर लोकगीत गाते हैं। मेले में आने वाले झूलों, सर्कस, मदारी के खेल आदि का भरपूर आनन्द लेते हैं। प्रातः 5 बजे से रात्रि 11 बजे तक मेलार्थियों के लिए शिव मंदिर खुला रहता है। शिवजी पर प्रातःकाल केसर एवं सायंकाल भभूत का लेप होता है। इस प्रकार मेले के दौरान लाखों भक्तगण बेणेश्वर के दर्शन लाभ करते हैं।

जनजातीय महिलाओं की टोलियाँ गीत गाते हुए बेणेश्वर धाम आती हैं। एक गीत की बानगी देखिये-

नाथी बेणासरियो मेलो, नाथी धीरी रीजे ए नाथी खूणावाली, कोटी, नाथी धीरी रीजे ए नाथी मांणा गऊँढ़ा काड़ो, नाथी धीरी रीजे ए नाथी काड़ी ने करीने, नाथी धीरी रीजे ए नाथी हलियां रा हूपेड़ा, नाथी धीरी रीजे ए नाथी मेले आपी जाहां, नाथी धीरी रीजे ए नाथी चुड़ली जोवन जाइहे, नाथी धीरी रीजे ए नाथी भर जोबन में ई है, नाथी धीरी रीजे ए।

यह मेला वागड़ क्षेत्र का ही नहीं अपितु राजस्थान का बड़ा और प्रसिद्ध मेला है। यहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक सभी पक्षों की हमारी गौरवमयी परंपरा के दर्शन होते हैं।

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