जब ‘यूनियन जैक’ के सामने संघ के स्वयंसेवक ने फहराया ‘भगवा ध्वज’

जब 'यूनियन जैक' के सामने संघ के स्वयंसेवक ने फहराया 'भगवा ध्वज'

हैदराबाद (भागानगर) नि:शस्त्र प्रतिरोध : लेखांक7

डॉ. श्रीरंग गोडबोले

जब 'यूनियन जैक' के सामने संघ के स्वयंसेवक ने फहराया 'भगवा ध्वज'जब यूनियन जैकके सामने संघ के स्वयंसेवक ने फहराया भगवा ध्वज

सन् 1938-1939 में निजाम के विरोध में हुए नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन में मध्य प्रांत और बरार के संघ स्वयंसेवकों की सहभागिता का संक्षिप्त मूल्यांकन पिछले लेख में किया गया। इस लेख में हैदराबाद राज्य और महाराष्ट्र प्रांत के कुछ प्रमुख संघ स्वयंसेवकों की सहभागिता का मूल्यांकन करेंगे। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यह मूल्यांकन परिपूर्ण नहीं है।  

दत्तात्रय लक्ष्मीकांत जुक्कलकर

यह स्पष्ट नहीं है कि निजाम शासित हैदराबाद राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम कब शुरू हुआ। विविध रियासतों में अपने संगठन का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघके नाम से न करते हुए अन्य किसी नाम से शुरू करने की नीति संघ निर्माता डॉ. हेडगेवार ने अपनाई थी। इस नीति के अनुसार महाराष्ट्र के कोल्हापुर रियासत में राजाराम स्वयंसेवक संघऔर ग्वालियर रियासत में राणोजी स्वयंसेवक संघइन नामों से संघ का काम शुरू हुआ। ऐसा अनुमान है कि इसी तरह हिंदू स्वयंसेवक संघनाम से हैदराबाद राज्य में संघ का काम शुरू हुआ। ऐसा बताया जाता है कि मुंबई से आए हुए यल्लाप्पा जी ने संघ की (सम्भवतया दूसरे नाम से) पहली शाखा करीमनगर जिले के अपने मूल गांव कोरुटला में 1936 में शुरू की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अभिलेखागार में उपलब्ध प्रलेखों में संघ कार्य का सबसे पहला उल्लेख 3 दिसंबर, 1939 का है, जो नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन की समाप्ति के बाद का समय था।

2735 गौलीगुड़ा, हैदराबाद से पूज्य डॉ. हेडगेवारको भेजा गया यह पत्र दत्तात्रय लक्ष्मीकांत जुक्कलकर ने लिखा है। पत्र के प्रारंभ में ही इससे पहले भेजा हुआ पत्र मिला ही होगायह उल्लेख है। दिनांक 3 दिसंबर, 1939 को डॉ. हेडगेवार को लिखे इस पत्र में “यहां के संघ का काम यथोचित चल रहा है। 1 तारीख को श्री. के.बी. लिमये (महाराष्ट्र प्रांत संघचालक-लेखक) ने संघ के स्वयंसेवकों से भेंट की। संघ के कार्यकर्ताओं से विचार विनिमय हुआ और सभी स्वयंसेवकों के लिए उन्होंने बौद्धिक वर्ग भी लिया। उनके आगमन से स्वयंसेवकों को अच्छा प्रोत्साहन मिला। पुणे से आए हुए स्वयंसेवक श्री. कुलकर्णी ने आठ दिनों का शिक्षक तैयार करने का वर्ग लिया, वह कल समाप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने यही पर बसने का निर्णय लिया है। उनके रहने से हमें बहुत सहायता मिलने वाली है। समय-समय पर पत्र भेजकर जानकारी बताता रहूंगा” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Correspondence –  C- A\Hyderabad 0001)।

संक्षेप में कहा जाए तो जुक्कलकर हैदराबाद संघ के प्रमुख स्वयंसेवक थे। यह स्पष्ट नहीं है कि वे कब संघ स्वयंसेवक बने और संघ का काम नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन से पहले शुरू हुआ या बाद में। जुक्कलकर ने आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसलिए उसे संक्षेप में देना प्रासंगिक होगा।      

सन 1930 के आसपास जुक्कलकर ने हिंदू हित को बढ़ावा देने के लिए कर्मयोगी सेवा दलशुरू किया था। उसके अंतर्गत वाचनालय, शार्दुल प्रकाशन, नमस्कार और प्रार्थना मंडल, दंगा पीड़ित सहायता निधि आदि उपक्रम चलाए जाते थे। नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन शुरू हो जाने के बाद इस दल के संचालक के नाते जुक्कलकर ने उसका काम स्थगित किया। आंदोलन जब शुरू हुआ, उस समय वीर यशवंतराव जोशी और जुक्कलकर हिंदू नागरिक स्वातंत्र्य संघके माध्यम से हैदराबाद में काम करने वाले संगठन के मंत्री थे। दिनांक 21 अक्टूबर, 1938 को हिंदू नेता स्व. वामनराव नाईक के दूसरे स्मृति दिवस के अवसर पर जोशी, जुक्कलकर और उनके तीन सहयोगियों ने हजारों लोगों के समक्ष निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए जुलूस निकाला और नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन की औपचारिक शुरुआत की। इन पांच वीरों पर अभियोग चला। दिनांक 26 अक्टूबर को जोशी को पौने दो वर्षों का सश्रम कारावास और 200 रुपये के अर्थदंड की सजा सुनाई गई। जुक्कलकर और अन्य तीन लोगों पर छह महीने सश्रम कारावास और 50 रुपये का अर्थदंड लगाया गया (केसरी, 1 नवंबर 1938)। दिनांक 17 जून, 1939 को जुक्कलकर अपने कारावास की अवधि पूरा कर छूट गए (केसरी, 1 अगस्त 1939)। डॉ. हेडगेवार के निधन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेक्रेटरी को हैदराबाद संस्थान हिंदू प्रजा मंडलके शीर्षपत्र पर लिखा जुक्कलकर का सांत्वना-पत्र और साथ में हिंदू स्वयंसेवक संघ, प्रार्थना मंडल और बाल संघ द्वारा पारित शोक प्रस्ताव संघ के अभिलेखागार में हैं (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr. Hedgewar Miscellaneus1\Hyderabad 0001, 0002)।      

अधिवक्ता दत्तात्रय ग.देशपांडे उपाख्य बाबूराव जाफराबादकर

जाफराबाद (जिला जालना, महाराष्ट्र) के दत्तात्रय ग.देशपांडे उपाख्य बाबूराव जाफराबादकरसन 1933 में औरंगाबाद आए और वहां व्यायामशाला, गणेश मंडल, विद्यार्थी आंदोलन आदि सार्वजनिक कार्य में सहभागी हुए। दो साल बाद उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए उस्मानिया विश्वविद्यालय में प्रवेश किया। हिंदू विद्यार्थियों को शेरवानी पहनने पर बाध्य करना, उनकी प्रार्थना के लिए किसी सुविधा का अभाव, वंदे मातरम पर प्रतिबंध आदि अन्यायों के विरोध में हुए आंदोलनों में उन्होंने भाग लिया। बाद में वे हिंदू सभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सक्रिय हुए। सन 1939 में उन्होंने संघ की प्रतिज्ञा ली। उनके द्वारा लिखी गई हैदराबाद वऱ्हाड मुक्तिसंग्राम‘ (नवभारत प्रकाशन संस्था, मुंबई, 1987) और संस्थान हैदराबादचे स्वातंत्र्य आणि लोकस्थिती‘ (साहित्यसेवा प्रकाशन, औरंगाबाद, 1998) मराठी पुस्तकें बेहद जानकारीपूर्ण हैं। वंदे मातरमपर लादे गए प्रतिबंध को ठुकराया, इसलिए उस्मानिया विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्रों का निलंबन किया गया। नागपुर विश्वविद्यालय के कुलपति टी.जे.केदार ने उन्हें नागपुर के विभिन्न महाविद्यालयों में प्रवेश दिलवाया। इसके पीछे हिंदू महासभा और जनसंघ के नेता बने प्रो. विष्णू घनश्याम देशपांडे और संघ के कार्यकर्ता बिंदुमाधव पुराणिक के विशेष प्रयास थे। देशपांडे द्वय ने छात्रों की समस्या से डॉ. हेडगेवार, अधिवक्ता ह.वा.कुलकर्णी (1935-36 में संघ के सरकार्यवाह), डॉ. ल.वा. परांजपे, विश्वनाथराव केलकर आदि संघ-हिंदू सभा के नेताओं को अवगत कराया। सरकार्यवाह कुलकर्णी देशपांडे के मामा थे। कुलकर्णी जी के यहां बनारस से अध्यापन छोड़कर संघ कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने हेतु आए श्री. माधवराव गोलवलकर का आना जाना था। दत्तात्रय ग.देशपांडे लिखते हैं कि कुलकर्णी मामा के यहां हमारा भी आना जाना होता था, वहीं श्री. गोलवलकर और हमारा परिचय हुआ, संबंध बढ़ा और स्नेह निर्माण हुआ। छात्रों को सांत्वना और धैर्य देने वाले उनके अनेक भाषण तिलक विद्यालय के भवन में हुआ करते थे। श्री. गोलवलकर ने धंतोली-धरमपेठ-नागपुर शहर में छात्रों को रहने की जगह प्राप्त कराने के लिए असीम कष्ट उठाएं (हैदराबाद वऱ्हाड मुक्तिसंग्राम, पृ. 76, 77)। हैदराबाद से निष्कासित इन छात्रों के निवास पर डॉ. हेडगेवार जाते और उनसे परिचय बढ़ाते। उन्हें संघ स्थापना का उद्देश्य, विचार, कार्यपद्धति से अवगत कराते। इन छात्रों से बार-बार मिलने से उनमें से बहुसंख्य छात्र डॉ. हेडगेवार के विचारों से सहमत हुए। इससे कई छात्रों ने अपने घर में संघ शाखा शुरू की। उन्हें मार्गदर्शन करने के लिए नागपुर के स्वयंसेवक जाते थे। परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद कुछ स्वयंसेवक अपने गांव लौटे और वहां उन्होंने शाखा शुरू की (मराठवाड्यातील संघाचा उष:काल, संपादक अप्पा पुलुजकर, रा.स्व. संघ जनकल्याण समिति, संभाजीनगर, २००७, पृ.१९, २४)      

सतारा जिला संघचालक और हिंदू सभा नेता शिवराम विष्णु उपाख्य भाऊराव मोड़कनि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन से शुरू से जुड़े हुए थे। मार्च-अप्रैल, 1938 में निजाम शासित मराठवाड़ा (महाराष्ट्र) की परिस्थिति का गोपनीय सर्वेक्षण करने के लिए गठित हिंदू सभा की तीन-सदस्यीय समिति के वे सदस्य थे। नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन चलाने के लिए सतारा और दक्षिण महाराष्ट्र रियासतों में गठित युद्ध मंडल के मोड़क अध्यक्ष, तो संघ के सतारा जिला कार्यवाह और हिंदू सभा कार्यकर्ता अनंत सदाशिव भिड़े उपाख्य भिड़े गुरूजीकार्यवाह थे। महाराष्ट्र प्रांत संघचालक काशिनाथ भास्कर उपाख्य काका लिमयेमंडल के सदस्य थे (केसरी, 17 फरवरी 1939)। सतारा से वासुदेव यशवंत गाडगील, विनायक ढवले, भास्कर गजानन उपाख्य नाना काजरेकर‘, अधिवक्ता का.ना. उपाख्य नाना कापरे‘, रंगा पावर आदि संघ के स्वयंसेवकों को सत्याग्रह के बाद बंदी बनाया गया। वसंत कुलकर्णी, कराड के पूर्णप्रज्ञ घलसासी ने भी सत्याग्रह किया (स्वर्गीय भाऊसाहेब मोडक जन्मशताब्दी वर्ष 1999, चरित्रात्मक स्मारिका, पृ. 9)।  

बाबूराव मोरे

यशवंत जयराम उपाख्य बाबूराव मोरेमूलत: चंद्रपुर के प्रशिक्षित संघ स्वयंसेवक थे, जिन्होंने मैट्रिक करने के बाद डॉ. हेडगेवार के कहने पर 1936 में आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अहमदनगर (महाराष्ट्र) के आयुर्वेद महाविद्यालय में प्रवेश लिया। नगर के संघ कार्य पर उनका प्रभाव इतना अमिट रहा कि नगर के कुछ संघ स्वयंसेवक अपने घरों में डॉ. हेडगेवार और बाबूराव मोरे इन दोनों के छायाचित्र एक ही फ्रेम में रखते थे। अहमदनगर के पुराने निजामशाही की राजधानी होने के कारण वहां जगह-जगह पर मस्जिदें थीं। जैसे ही संघ के संचलन पर मस्जिद से पथराव शुरू होता, बाबूराव और उनके साथी मस्जिद का दरवाजा खोलकर अंदर घुसते और सामने जो आता उसकी खूब पिटाई करते। परिणामस्वरूप, संघ के संचलन पर होने वाला पथराव बंद हो गया। बाबूराव मोरे नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन में हिंदू नागरिक स्वातंत्र्य संघ की आठवीं टुकड़ी के नायक थे। कुल चार प्रतिकारकों की इस टुकड़ी को दिनांक 14 दिसंबर, 1938 को बंदी बनाया गया। मोरे जी को एक वर्ष सश्रम कारावास और 50 रुपये का अर्थदंड अथवा तीन महीने सश्रम कारावास हुआ (केसरी, 20 दिसंबर 1938)।

बाबूराव मोरे की आर्थिक स्थिति बड़ी नाजुक थी। बाबूराव जैसे अनगिनत नि:शस्त्र प्रतिकारकों ने अपने शैक्षिक और आर्थिक नुकसान की परवाह न कर इस आंदोलन में भाग लिया। डॉ. हेडगेवार ने उन्हें आंदोलन में भाग लेने की प्रेरणा दी थी। लेकिन इससे आगे जाकर डॉ. हेडगेवार ने ऐसे अनगिनत स्वयंसेवकों के क्षेम कुशल की चिंता कर उनकी व्यवस्था की। ऐसे स्वयंसेवकों की व्यक्तिगत व्यवस्था करते समय संघ की रीति का डॉ. हेडगेवार ने सदैव ध्यान रखा। यह कहना उचित होगा कि डॉ. हेडगेवार ने अपने व्यवहार से संघ की रीति को निश्चित किया। निजाम के कारागार से छूटने के बाद उनकी मां का स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण मोरे नागपुर गए। डॉ. हेडगेवार उन्हें स्मरणपूर्वक मिले और उनकी आर्थिक स्थिति का आकलन किया। दिनांक 20 अक्टूबर, 1939 को नगर के रावसाहेब बागड़े को लिखे पत्र में श्री.बाबूराव मोरे से डॉ. हेडगेवार कहते हैं, “आपकी व्यक्तिगत परिस्थिति का आकलन किया और इसके आगे आप की सब व्यवस्था श्री.रावसाहेब बागड़े करने वाले हैं, इसलिए आप निश्चिन्त रहें और नगर में अपनी पढ़ाई और संघ कार्य दृढ़ता से जारी रखें।” रावसाहेब बागड़े को डॉ. हेडगेवार आगे लिखते हैं, “अभी वे (श्री.बाबूराव मोरे) नगर में आए हैं। आप उनकी व्यवस्था करने वाले हैं, इसलिए मुझे भी आनंद हुआ और अब उनकी चिंता करने का मुझे कोई कारण नहीं। आप को एक ही व्यक्तिगत और प्रेमपूर्वक सूचना करनी है और वो यह है कि उनकी व्यवस्था संघ के पैसे से न करते हुए व्यक्तिगत रीति से की जाए। यदि आप को कोई आवश्यकता हुई, तो मुझे बताइए।” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr. Hedgewar letters cleaned\1939\October 1939 20-10-39 b)।  

लक्ष्मणराव इनामदार और प्रह्लादजी अभ्यंकर

दिनांक 23 अप्रैल, 1939 को हिंदू महासभा नेता ल.ब. भोपटकर के नेतृत्व में 200 प्रतिकारकों की टुकड़ी ने पुणे छोड़ दिया और आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। उसके एक दिन पहले डॉ. हेडगेवार संघ के अधिकारी शिक्षण वर्ग के लिए पुणे में आए थे। उस दिन भोपटकर जी को विदा करने के लिए पुणे के ऐतिहासिक शनिवारवाडे पर आयोजित विशाल जनसभा में डॉ. हेडगेवार मंच पर उपस्थित थे (केसरी, 24 अप्रैल 1939)। भोपटकर की टुकड़ी को विदा करने के लिए डॉ. हेडगेवार अगले दिन पुणे रेलवे स्टेशन गए थे।  

भोपटकर जी की इस टुकड़ी में खटाव (जिला सतारा) का एक संघ स्वयंसेवक शामिल हुआ। लक्ष्मण माधव इनामदार (मूल उपनाम खटावकर), यह इस बाईस वर्षीय युवक का नाम था। इस संघ स्वयंसेवक को डॉ. हेडगेवार का पारस स्पर्श हुआ था। 1952 से गुजरात में प्रचारक, 1972 से प्रांत प्रचारक और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित गुजरात के अनगिनत संघ स्वयंसेवकों के मार्गदर्शक होने के नाते विख्यात लक्ष्मणराव इनामदार उपाख्य वकील साहबका भविष्यकाल अभी काल के उदर में छिपा हुआ था। सन 1936 के आसपास लक्ष्मणराव महाविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने हेतु सतारा से पुणे आए। इंटर आर्ट्स उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने एलएलबी पाठ्यक्रम में प्रवेश किया। एलएलबी की पहली परीक्षा उत्तीर्ण होते ही उसी समय भागानगर नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन शुरू हुआ। दिनांक 21 अप्रैल, 1939 को लक्ष्मणराव एलएलबी का अध्ययन अधूरा छोड़कर 23 अप्रैल, 1939 को भोपटकर जी के नेतृत्व में पुणे से निकलने वाली टुकड़ी में शामिल हुए।        

दिनांक 23 अप्रैल को भोपटकर जी अपना जत्था लेकर विशेष रेलगाड़ी से पुणे से हैदराबाद के लिए निकले। दिनांक 24 अप्रैल को जब जत्था नासिक और मनमाड पहुंचा, तब वहां उसका भव्य स्वागत हुआ। यह जत्था दो गुटों में अलग-अलग दिनों पर मनमाड से औरंगाबाद पहुंचा। सभी को औरंगाबाद रेलवे स्टेशन पर बंदी बनाकर कारागार में भेज दिया गया। औरंगाबाद कारागार में प्रतिकारकों पर जो अत्याचार किया गया, विशेषकर दिनांक 5 से 12 जून, 1939 की अवधि में, वह इससे पहले लेखांकन 4 में दिया गया था।  

इस घटनाक्रम में लाठीधारी पुलिस और शहर के मुस्लिम गुंडों द्वारा किए गए निर्मम अत्याचारों का लक्ष्मणराव ने धैर्य से सामना किया। सबसे पहले मो.स. साठे नाम के सत्याग्रही की पिटाई की गई। साठे ने इस प्रसंग का संस्मरण यूं लिखा है, “मेरे बाद तुरंत लक्ष्मण (वकील साहब) की बारी आई। इस अवस्था में वो स्थिर था। इस सारी व्यवस्था की उसने मानसिक रूप से पहले ही तैयारी कर रखी थी। पुलिस द्वारा की गई पिटाई से वह उतना आकुल नहीं हुआ, जितना की किराये के गुंडों की पिटाई से। वह पीड़ा, वह आकुलता और रंज उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था। लगभग सात महीने बाद वकील साहब कारागार से छूट गएं” (राजाभाई नेने, नरेंद्र मोदी, सेतुबंध, प्रभात प्रकाशन,पृ. 21-23)।  

औरंगाबाद जिले के कन्नड तालुका के नेऊरगाव के प्रह्लादराव अभ्यंकर नामक साहसी और त्यागपूर्ण जीवन जीनेवाले युवक ने भी सत्याग्रह किया। उन्हें ग्यारह महीने कारावास का दंड मिला। औरंगाबाद के हर्सूल, परभणी और हैदराबाद इन कारागारों में वे कारावास भुगत रहे थे। छूटने के बाद उन्होंने सार्वजानिक, विशेषकर हिंदुत्व के कार्य के प्रति स्वयं को समर्पित किया (पृ. 90)। यह साहसी युवक आगे चलकर महाराष्ट्र प्रांत संघचालक बना। इस आंदोलन में उन्हें ग्यारह महीने सश्रम कारावास और एक महीने का सादा कारावास हुआ था (केसरी, 19 मे 1939)।  

भिडे गुरुजी का शौर्य

अनंत सदाशिव भिडे उपाख्य भिडे गुरुजीमूलत: क्रांतिवीर बाबाराव सावरकर से प्रेरणा और प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले हिंदुत्वनिष्ठ कार्यकर्ता थे। बाद में वे रत्नागिरी (महाराष्ट्र) के पटवर्धन स्कूल में शिक्षक होने के नाते वीर सावरकर से परिचित हुए। परिणामस्वरूप वे हिंदू सभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य करने लगे। सन 1857 के स्वतंत्रता समर विषय पर व्याख्यान देने के कारण उन्हें रत्नागिरी का विद्यालय छोड़ना पड़ा। कुछ दिनों के लिए वे सतारा के न्यू इंग्लिश स्कूल में अध्यापक रहे। सतारा में हिंदू सभा और संघ की वृद्धि के लिए उन्होंने काम किया। नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन शुरू हुआ, तब भिड़े संघ के सतारा जिला कार्यवाह थे। साथ में वे सतारा जिला और दक्षिणी रियासतों के लिए बने भागानगर नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल के कार्यवाह थे। आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दिया। संघ के और एक कार्यकर्ता अधिवक्ता का.रा. उपाख्य नाना कापरेके साथ भिड़े गुरुजी ने दिनांक 30 जनवरी, 1939 से सतारा जिले में आंदोलन के लिए समर्थन प्राप्त करने हेतु प्रवास शुरू किया। एक सप्ताह में उन्होंने लगभग 40 गांवों का प्रवास किया (केसरी, 15 फरवरी 1939)। दिनांक 10 मार्च, 1939 को भिड़े गुरुजी के नेतृत्व में बारह नि:शस्त्र प्रतिकारकों की सत्रहवीं टुकड़ी हैदराबाद जाने के लिए निकली। जैसे ही आंदोलन में भाग लेने के लिए भिड़े गुरुजी चल पड़े, उनकी जगह पर कापरे प्रतिकार मंडल के कार्यवाह बने। कापरे को सहायता करने के लिए श्रीराम बाळकृष्ण आचार्य संघ स्वयंसेवक नियुक्त हुए (केसरी, 17 मार्च 1939)। दिनांक 18 मार्च को भिड़े गुरुजी ने औरंगाबाद में सत्यग्रह किया। उन्हें कारागार भेज दिया गया (केसरी, 1 अगस्त 1939)।  

छूटने के बाद भिड़े गुरुजी फिर से आंदोलन में कूद पड़े। दिनांक 17 जुलाई, 1939 को उनके नेतृत्व में हिंदू सभा के छह प्रतिकारकों ने सिकंदराबाद में स्थित ब्रिटिश रेजिडेंट के बंगले पर जुलूस निकाला। दूसरे दिन भिड़े गुरुजी ने रेजिडेंट के दोयम सेक्रेटरी को अपनी मांगों का निवेदन दिया। रेजिडेंट नहीं मिल सकते, ऐसा जवाब मिलने पर सभी संवैधानिक मार्ग अब बंद हुए, हमारा मार्ग अब खुला हैऐसा कहते हुए भिड़े गुरुजी वहां से चल दिए। वे तुरंत अपने सहयोगी प्रतिकारकों को साथ लेकर रेजिडेंट के बंगले पर लौट आए। उनके हाथ में डंडा था, जिस पर भगवा ध्वज लिपटा था। बंगले पर स्थित रक्षकों को चकमा देकर अंदर आते ही वहां खंबे पर लहराने वाले यूनियन जैक से प्रतिस्पर्धा करने वाला भगवा ध्वज ऊंचा फहराते हुए हिंदू धर्म की जयकी घोषणा की। शेर की गुफा में जाकर वहां थोड़े समय के लिए क्यों न सही, दृढ़ निश्चय से भिड़े गुरुजी ने वहां भगवा ध्वज फहराया। हैदराबाद मुक्ति के आंदोलन में ब्रिटिश रेजिडेंसी को प्रतिरोध करने की यह पहली घटना थी (केसरी, 18 और 21 जुलाई 1939)। आगे चलकर भिड़े गुरुजी संघ में नहीं, हिंदू सभा में भी सक्रिय रहे। सन 1945-48 इस अवधि में उन्होंने फ्री हिंदुस्थाननामक अंग्रेजी साप्ताहिक चलाया। वे वीर सावरकर के निवास सावरकर सदन के भूतल पर स्थित तीन कमरों में किराये पर रहते थे।            

अपने देश को स्वाधीनता बिना खड्ग बिना ढालनहीं मिली है। अनगिनत लोग अपना व्यक्तिगत स्वार्थ भुलाकर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े, कारावास स्वीकार किया, यातनाओं का सामना किया और प्राणों का बलिदान भी दिया। उनके द्वारा अपने को मिली इस स्वाधीनता को सार्थक करने का दायित्व वर्तमान पीढ़ियों पर है।  

(समाप्त)                      

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