इसलिए भारत के रत्न हैं लालकृष्ण आडवाणी
बलबीर पुंज
इसलिए भारत के रत्न हैं लालकृष्ण आडवाणी
भारत के पूर्व उप-प्रधानमंत्री और भाजपा के दीर्घानुभवी नेता लालकृष्ण आडवाणी को भारत-रत्न पुरस्कार देने की घोषणा का निहितार्थ क्या है? यह सम्मान आडवाणीजी के व्यक्तित्व, क्षमता और गुणों को मान्यता प्रदान करना तो है ही, साथ ही यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में आडवाणीजी के दो मुख्य योगदानों के कारण भी तर्कसंगत हो जाता है। पहला- आडवाणीजी द्वारा राजनीतिक शुचिता में नया मापदंड स्थापित करना, तो दूसरा- सार्वजनिक विमर्श में छद्म-सेकुलरवाद और इस्लामी कट्टरवाद के राजकीय तुष्टिकरण को तथ्यों-तर्कों के साथ चुनौती देना है।
वर्तमान विरोधी दल स्वयं को ‘सेकुलर’ और शत-प्रतिशत गांधीवाद से प्रेरित होने का झंडा बुलंद करते है। परंतु वे भूल जाते है कि सार्वजनिक जीवन में गांधीजी ने शुचिता (परिवारवाद का विरोध सहित) का सदैव पालन किया था। इसके कई उदाहरण है, जिन्हें शब्दसीमा की बाध्यता के कारण एक आलेख में समाहित करना असंभव है। स्वतंत्र भारत में जिन विरल राजनीतिज्ञों ने इस मर्यादा का अनुसरण किया, वे वैचारिक रूप से गांधी दर्शन के सबसे निकट रहे। उन्हीं में से एक— लालकृष्ण आडवाणीजी भी हैं। जब 1990 के दशक में विपक्ष में रहते हुए जैन हवाला कांड में उनका नाम जुड़ा, तब उन्होंने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता को अक्षुण्ण रखने हेतु वर्ष 1996 में लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया और निर्दोष सिद्ध होने तक संसद न जाने का प्रण लिया। जब दिल्ली उच्च न्यायालय (1997) और सर्वोच्च अदालत (1998) ने आडवाणी को बेदाग घोषित किया, तब उन्होंने 1998 में चुनावी राजनीति में वापसी की।
इसी प्रकार की राजनीतिक शुचिता संबंधित परंपरा का निर्वाहन वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया हैं। जब 2002 के गुजरात दंगा मामले में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी से पूछताछ हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांचदल (एसआईटी) ने 2010 में बुलाया, तब वे बिना कार्यकर्ताओं की भीड़ के गांधीनगर स्थित एसआईटी कार्यालय पहुंचे और दो सत्रों में नौ घंटे की पूछताछ में देर रात 1 बजे तक हिस्सा लिया। इसकी तुलना में वर्तमान स्थिति क्या है? यह वित्तीय-कदाचार के मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा बार-बार प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के समन की अवहेलना करने, उनके द्वारा जेल से सरकार चलाने का दावा करने, जमीन घोटाला प्रकरण में (बतौर झारखंड मुख्यमंत्री) हेमंत सोरेन के ‘लापता’ होने, नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं राहुल गांधी-सोनिया गांधी से ईडी पूछताछ के समय कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन करने, तृणमूल-द्रमुक रूपी विरोधी दल द्वारा शासित कई राज्यों में केंद्रीय जांच एजेंसियों के आने पर रोक लगाने हेतु फरमान जारी करने और चारा घोटाले में अदालत द्वारा दोषी लालू प्रसाद यादव के साथ स्वयंभू सेकुलरवादियों द्वारा मंच साझा करने से स्पष्ट है। इस पृष्ठभूमि में आडवाणीजी और उपरोक्त विरोधी दलों— विशेषकर मोदी-विरोधियों के व्यवहार में अंतर स्पष्ट है।
वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना पश्चात आडवाणीजी ने जिस तत्कालीन प्रचलित सेकुलरवाद को तथ्यों और तर्कों से सीधी चुनौती दी, जो इस्लामी कट्टरवाद और उसकी तुष्टिकरण का पर्याय बन चुका था, वह वास्तव में नेहरूवादी दृष्टिकोण का तार्किक परिणाम था। जब 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यप्रदेश की शाहबानो को तलाक के बाद उसके पति से गुजाराभत्ता दिलाने का ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, तब मुस्लिम समाज का कट्टरपंथी वर्ग बौखला उठा। ‘इस्लाम खतरे में है’ और ‘शरीयत बचाओ’ नारों के साथ देश के कई हिस्सों में हजारों मुसलमानों ने हिंसक प्रदर्शन किया। अदालत का फैसला प्रगतिशील और मुस्लिम महिलाओं को मध्यकालीन दौर से बाहर निकालने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। परंतु तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने इस्लामी कट्टरपंथियों के समक्ष आत्मसमर्पण करके और संसद में प्रचंड बहुमत के बल पर शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ही पलट दिया। वास्तव में, इस प्रकरण ने अपनी जड़ों से पहले कटे और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा भ्रमित भारतीय मुस्लिम समाज के एक वर्ग में यह संकीर्ण मानस स्थापित कर दिया कि वे हिंसा के बल पर भारतीय व्यवस्था को घुटनों पर ला सकते है। कालांतर में, ऐसा हुआ भी। वर्ष 1988 में अंतरराष्ट्रीय लेखक सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘सेटेनिक वर्सेस’ को राजीव गांधी सरकार ने भारतीय मुस्लिम समाज की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए प्रतिबंधित कर दिया। यही हश्र कालांतर में, तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा पुस्तक’ के साथ भी हुआ। कालांतर में, कांग्रेस नीत संप्रग सरकार द्वारा ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ का फर्जी-झूठा सिद्धांत गढ़ना, 2005 से बार-बार हिंदू विरोधी ‘सांप्रदायिक विधेयक’ को संसद से पारित कराने का प्रयास, असंवैधानिक ‘मुस्लिम-आरक्षण’ की पैरवी और 2007 में शीर्ष अदालत में हलफनामा देकर श्रीराम को काल्पनिक बताना आदि उसी छद्म-सेकुलरवाद का असफल उपक्रम था।
वास्तव में, 1980 के दशक का श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन और सितंबर-अक्टूबर 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा— भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्तार था। स्वतंत्रता के तुरंत बाद इस मामले में किस प्रकार सामाजिक, प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से प्रतिबद्धता थी, उसका उल्लेख इसी कॉलम में बीते 21 जनवरी 2024 को प्रकाशित मेरे लेख ‘क्यों करनी पड़ी इतनी लंबी प्रतीक्षा’ में विस्तार से है। श्रीरामजन्मभूमि पर यह सहमति कुछ अपवादों को छोड़कर 1984 तक थी। तब कांग्रेस के गांधीवादी नेता और देश के दो बार अंतरिम प्रधानमंत्री रहे गुलजारीलाल नंदा के साथ उत्तरप्रदेश कांग्रेस के शीर्ष नेता और पूर्व मंत्री दाऊदयाल खन्ना भी रामजन्मभूमि की मुक्ति हेतु संघर्ष का समर्थन कर रहे थे। चूंकि उनकी शक्ति सीमित थी, तब उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मोरपंत पिंघले और अशोक सिंघल का साथ मिला, जिन्होंने रामजन्मभूमि आंदोलन को अतुलनीय गति प्रदान की। इस सांस्कृतिक युद्ध में जनमानस को जोड़ने में आडवाणीजी की अध्यक्षता में 9-11 जून 1989 को पारित भाजपा के पालमपुर घोषणापत्र और उनके नेतृत्व में सितंबर-अक्टूबर 1990 निकाली गई रथयात्रा ने अग्रणी भूमिका निभाई।
वर्ष 1987 में एक हिंदी पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में आडवाणीजी ने कहा था, “भारतीय मुसलमानों के किसी भी वर्ग के लिए स्वयं को बाबर के साथ जोड़ना, वैसा ही है जैसे ईसाई समाज दिल्ली में गांधीजी की मूर्ति के स्थान पर जॉर्ज पंचम की मूर्ति लगाने हेतु इसलिए झगड़ा कर रहे हो, क्योंकि जॉर्ज पंचम ईसाई थे। गांधीजी हिंदू थे, परंतु वे इस देश के हैं और जॉर्ज पंचम नहीं। इसी तरह श्रीराम इस देश के हैं… इतिहास और सांस्कृतिक मुद्दे पर मैं मुस्लिम नेतृत्व से विनती करूंगा कि यदि इंडोनेशिया के मुसलमान राम और रामायण पर गर्व कर सकते हैं, तो भारतीय मुसलमान क्यों नहीं?” तब आडवाणीजी ने हिंदू-मुस्लिम समस्या की नब्ज़ पर सीधा हाथ रखा था। सच तो यह है कि भारतीय मुस्लिम समाज का एक वर्ग आज भी गौरी, गजनवी, बाबर, खिलजी, अब्दाली, औरंगजेब, टीपू सुल्तान रूपी इस्लामी आक्रांताओं को अपना नायक मानता है, जिन्होंने इस भूखंड की सांस्कृतिक अस्मिता को रौंदकर इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया था।
आडवाणीजी ने सदैव राष्ट्र प्रथम प्राथमिकता दी। जब वे रामजन्मभूमि पर अपनी रथयात्रा को लेकर राजनीति के शिखर पर थे, तब उन्होंने 1995 में मुंबई के भाजपा महाधिवेशन में बतौर पार्टी अध्यक्ष, अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का पार्टी उम्मीदवार बनाने की घोषणा की। इसपर आडवाणीजी अपनी जीवनी में लिखते हैं, “जो मैंने किया वह कोई बलिदान नहीं। वह उस तर्कसंगत मूल्यांकन का परिणाम है कि क्या सही है और क्या पार्टी तथा राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में है।“ यही विशेषताएं आडवाणीजी को ‘भारत-रत्न’ बनाती हैं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं। हाल ही में उनकी ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकोलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)