आत्मविश्वास से ओत प्रोत भारत वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान प्राप्त कर रहा है- सरसंघचालक

आत्मविश्वास से ओत प्रोत भारत वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान प्राप्त कर रहा है- सरसंघचालक

आत्मविश्वास से ओत प्रोत भारत वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान प्राप्त कर रहा है- सरसंघचालकआत्मविश्वास से ओत प्रोत भारत वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान प्राप्त कर रहा है- सरसंघचालक

पुणे में आयोजित सहजीवन व्याख्यानमाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने ‘विश्व गुरु भारत’ विषय पर बात करते हुए वैश्विक स्थिति का विश्लेषण किया है। उन्होंने भारत के सभी वर्गों से आह्वान किया कि वे विश्व की चुनौतियों का समाधान करने वाले मॉडल के निर्माण में अपना योगदान दें। भारत पुनः आत्मविश्वास प्राप्त कर रहा है तथा वैश्विक मंच पर अपना उचित स्थान प्राप्त कर रहा है। ऐसे में हमारा आचरण कैसा होना चाहिए तथा हम विश्व के समक्ष किस प्रकार एक आदर्श प्रस्तुत करें, जिससे अन्य देश हमें मार्गदर्शक शक्ति के रूप में स्वीकार करें, इसकी रूपरेखा उन्होंने अपने भाषण में रखी।

उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि हम सभी को लगता है कि ‘विश्वगुरु भारत’ होना चाहिए, क्योंकि हम सब भारतीय हैं और हमारी स्वाभाविक आकांक्षा भी है। लेकिन क्या विश्व को गुरु की आवश्यकता है? विश्व की आज की स्थिति क्या ऐसे लक्षण प्रकट करती है, ऐसी कोई आवश्यकता है या कुछ और है? आज का विश्व पहले की तुलना में बहुत सुखी है। भौतिक रूप से यह सच है, कितनी ही सुविधाएं हैं. विश्व का परस्पर संबंध बढ़ा है, स्थान-स्थान की परंपरा व संस्कृति का आदान-प्रदान भी जारी है। विचारों से भी विश्व समृद्ध हो रहा है। आज एक ‘क्लिक’ पर विश्व की सारी जानकारी आपके लिए उपलब्ध है।

ऐसी स्थिति में प्रश्न यह है कि गुरु की आवश्यकता क्या है। लेकिन जब आप यह पूछते हैं, तो यह भी ध्यान में आता है कि यह सिक्के का एक पहलू है। सुख-सुविधाएं बढ़ी हैं, विज्ञान काफी आगे चला आया है। “प्रौद्योगिकी” (टेक्नॉलॉजी) आ गई है। उसके कारण बहुत सी चीजें आसान और अधिक गतिशील बन गई हैं। लेकिन यह सब किसलिए है? यह सुख के लिए है। क्या मनुष्य के पास वह सुख है? सड़कें अच्छी पक्की बन गईं, लेकिन लोगों का घर-घर जाना बंद हो गया। मन में दूरियां इतनी बढ़ गई हैं कि उनको पार नहीं किया जा सकता। सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन शांति नहीं है। कोई भी उठता है, बंदूक लेकर कहीं भी जाकर गोलियां चलाता है और किसी की भी हत्या कर देता है, ऐसी घटनाएं घटने लगी हैं। परिवार टूटने लगे हैं। मन की शांति गायब हो गई है। मानव समाज के स्तर पर सोचें तो भी इतना बहुत कुछ हुआ है, लेकिन युद्ध रुकता नहीं है। यह कहीं न कहीं चल रहा है।

उन्होंने कहा कि आपस में लड़ने और एक-दूसरे का कत्लेआम करने का धंधा कट्टरता के कारण जारी रहता है। वह कट्टरता अभी चली नहीं गई है। आपसी वैमनस्य चला नहीं गया है और पर्यावरण, जिसके आधार पर हम पृथ्वी पर रहते हैं, उसका विनाश हो रहा है। अन्न जहरीला हो गया है। जमीन जहरीली हो गई। पानी जहरीला हो गया। हवा भी जहरीली हो गई। इस बारे में कैसे सोचें? एक विचार कहता है कि यह ऐसा ही होगा। विश्व में हर कोई हमेशा के लिए खुश नहीं रह सकता है। इसलिए सबको सुख देने की इच्छा से बात करने वाले यह भी कहते हैं कि ‘मैक्सिमम गुड ऑफ मैक्सिमम पीपल’ इतना ही संभव है। लेकिन वह भी दिखाई नहीं देता है। चार प्रतिशत जनसंख्या विश्व के 80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करती है और बाकी जनसंख्या पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए जो चाहे करती है। सभी संसाधनों को अपने हाथ में रखने के लिए विश्व के मुट्ठी भर अमीर लोग मिलकर जो करते हैं, उसे ‘डीप स्टेट’ कहा जाता है। यह सब उजागर होते जा रहा है। इसलिए, ‘मैक्सिमम गुड ऑफ मैक्सिमम पीपल’ होता ही नहीं है। ‘ऑल दी गुड फॉर फ्यू पीपल’ हो रहा है और यह किसी को भी नहीं चाहिए।

विश्व की अपर्याप्त दृष्टि को लेकर कहा कि पिछले दो हजार वर्षों से वह चल रही है कि विश्व में यह नियम ही है कि सबका भला नहीं होगा। भला केवल उनका ही होगा जो शक्तिशाली हैं। ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ और इसकी वजह से योग्यतम बनो। विश्व में प्रतिस्पर्धा है। विश्व में अस्तित्व के लिए संघर्ष चल रहा है। मुझे अपना पेट भरना है, आपको अपना अपना पेट भरना है। मुझे जीना है। सृष्टि जीवित रहे या नहीं, इसकी मुझे परवाह नहीं है।

वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन ने 1990 के दशक में कहा था कि अब जो समृद्धि आ रही है, वह वैश्वीकरण से आएगी, और इसमें हमें अपनी संस्कृति आदि के बारे में सब कुछ भूलना होगा। हमारी मान्यताओं को भी तोड़ना होगा और साथ मिलकर हमें एक वैश्विक व्यवस्था में एकीकृत होना होगा। फिर, कुछ दिनों बाद, 1999-2000 में कहा कि हमने कहा तो था, लेकिन यह अभी तक नहीं हुआ है। हमने प्रयास किए, लेकिन यह हो नहीं पा रहा और 2005 में कहा कि यह हमारी गलती थी। ऐसा नहीं है। हर देश की अपनी परंपरा होती है, संस्कृति होती है, स्वभाव होता है तो हर किसी का ‘मॉडल’ अलग होगा।

अब विश्व का चिंतन भारत की ओर मुड़ा है और इसका एक कारण है अपर्याप्त दृष्टि। इसे पूरा करने के साधन भारत के पास हैं।

हमारा भारत देश सुजल, सुफल, मलयज शीतल है. हम उसी में रहते हैं। पहले तो जनसंख्या बहुत कम थी। थोड़ी मेहनत करो, जीवन उत्तम होगा। और इतना अधिक है कि इसके लिए प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता ही नहीं। लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए कई भाषाएं बोलने वाले, कई धर्मों को मानने वाले लोग होने के बावजूद, एक समाज के रूप में एक साथ रहे हैं। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम की विविधता के बावजूद…

‘जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं . नानाधर्माणं पृथिवी यथोकसम्‌..’

हम एक शांतिपूर्ण वातावरण में एक साथ और एक समाज के रूप में रहे और स्वाभाविक रूप से, चूंकि  भूगोल अलग-अलग है, इतनी दूरी होने के कारण भाषाएं अलग होती हैं। भोजन और रीति-रिवाज अलग-अलग होते हैं। हर किसी को अपनी इच्छानुसार पूजा करने की बुद्धि होती है. हमने इन सभी अलग-अलग चीजों को समझा, सहन किया और बिना लड़े रहे।

भारत में हर कोई मानता है कि भौतिक अस्तित्व से परे एक अस्तित्व है। भारतोद्भव संप्रदाय में हर कोई सृष्टि, मानवता और व्यक्ति, इन तीनों को साथ लेकर चलने वाला एक परमात्व तत्त्व है। आत्मा और परमात्मा अलग नहीं हैं। वही एक होकर आया है। उसके कारण, ये सभी विविधताएं देखने में विविध हैं, लेकिन एक सीमा तक हैं. उसके बाद वे नहीं रहतीं।

सुख हमारे मन में है, और अगर हम उस सुख को प्राप्त करना चाहते हैं, तो अनुशासन की आवश्यकता होती है। संयम की आवश्यकता है। अर्थ, काम आवश्यक है क्योंकि तन, मन, बुद्धि को सतेज रखना आवश्यक होता है। परम सुख प्राप्त करने के लिए, मोक्ष प्राप्त करने के लिए, इसलिए उसका अनुशासन धर्म है। धर्म से निबद्ध अर्थ, कर्मों की प्राप्ति, मनुष्य को भौतिक और पारलौकिक सुख दोनों प्रदान करता है। इसलिए धर्म की एक परिभाषा है,… ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः’

अभ्युदय का अर्थ है भौतिक प्रगति, निःश्रेयस यानी पारलौकिक प्रगति है।

उपनिषदों की आज्ञा है, ….‘अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते’

भौतिक सृष्टि के ज्ञान की पूजा करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करें। जितना चाहिए, जैसे चाहिए जीने के लिए विद्या और पारलौकिक जगत के ज्ञान की उपासना करके अमरता प्राप्त करें। मृत्यु के पार जाओ. ऐसा जीवन हमने जीया है। आज के इतिहास की स्मृति जितनी है, पांच, सात, नौ, दस , 12 हजार वर्ष, उसमें प्राचीन काल के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिए जा सकते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण दिए जा सकते हैं पांच, सात हजार वर्षों की अवधि में। भारतवर्ष सन् 1600 तक विश्व का अग्रणी देश था – भौतिक वैभव में भी और विश्व को ज्ञान भी देता था।

सरसंघचालक ने विश्वगुरु भारत की भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा कि स्वतंत्र भारत कैसा होना चाहिए, हम कहते हैं विश्वगुरु होना चाहिए. हम धड़ल्ले से यह नहीं कहते कि हमें महाशक्ति बनना चाहिए। क्योंकि हमने देखा है कि जब लोग महाशक्ति बन जाते हैं तो वे क्या करते हैं. हम ऐसा नहीं करना चाहते। सारे विश्व पर अपना आधिपत्य जमाकर अपना स्वार्थ साधना और उसके बाद परमार्थ के लिए समय बचता है तो करना, अन्यथा नहीं करना, यह हम नहीं करना चाहते. वह हमारा स्वभाव नहीं है। श्रीलंका ने भारत के साथ कैसा व्यवहार किया, भारत की स्वतंत्रता के बाद? काफी कुछ कहा जा सकता है। लेकिन फिर भी श्रीलंका पर संकट आने के बाद मदद करने वाला एकमात्र देश कौन सा था – भारत। श्रीलंका चीन का पिछलग्गू बना, तब भी मदद करने वाला कौन था – भारत। मालदीव द्वारा किसी रंजिश की तरह बर्ताव करने पर भी पानी की किल्लत होने पर मालदीव को पानी किसने दिया – भारत ने दिया।

वीके सिंह अपने लोगों को छुड़वाने के लिए लीबिया गए, उन्होंने केवल भारतीय लोगों को नहीं छुड़ाया। वहां जितने लोग फंसे थे, उनके लिए प्रयास किए। यह हमारा स्वभाव है और इसके कारण विश्व में स्वाभाविक गुरु भारत है।

भारत बन सकता है क्योंकि भारत के पास वह सब कुछ है, भौतिक प्रगति की क्षमता है और हम यह कर रहे हैं। अभी और बहुत कुछ करना है, जी-जान से करना है. कुछ सुधारों की जरूरत है, लेकिन हम उस रास्ते पर हैं और ये होगा। भारत की युवा पीढ़ी उस विश्वास, उस संकल्प के साथ काम करने जा रही है। इसलिए कोई कुछ करे या न करे, ये होकर रहेगा यह तय है। यह कोई भविष्यवाणी नहीं, बल्कि एक गणना है।

विश्वगुरु भारत बनाने के लिए भारत के समस्त नागरिकों को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। उन्होंने कहा कि विश्व गुरु बनने के लिए ये काफी नहीं है। कोई आदमी सिर्फ इसलिए महान नहीं बन जाता क्योंकि वह ऊंचे स्थान पर है। मंदिर के शिखर पर बैठने से कौआ गरुड नहीं बन जाता। गुण तो होने ही चाहिए. विश्व का मार्गदर्शन करने वाले समाज को परम वैभव संपन्न होना चाहिए। लेकिन परम वैभव का आधा हिस्सा भौतिक वैभव का है। श्री सूक्त हम सब जानते हैं। हममें से कई लोग दीवाली के दौरान इसका पाठ करते हैं, सुनते भी होंगे। उसमें यह भी मांगा गया है।

धान्यां धनं पशूं पुत्र लाभम दीर्घमायु

उन्होंने सिर्फ इतना ही नहीं मांगा। न क्रोधो न लोभो मा शुभामन, ये गुण भी मांगे। ये दोनों मिलकर श्री होते हैं। और वैभव का वर्णन इस प्रकार है, यदि गुरुपद चाहिए तो

‘तत्र, श्री विजयो भुतिः ध्रुवानितिः’

तीन चीजें चाहिए। ध्रुवानीति चाहिए। उसे अटल होना चाहिए। नीति सत्य से उत्पन्न होती है. आत्मीयता से उत्पन्न होती है। सत्य, करुणा, शुचिता तपस, ये धर्म के चार चरण हैं। उसी प्रॉडक्ट की नीति की आवश्यकता होती है। उद्यम चाहिए, प्रयास चाहिए। उस ‘श्री’ में भी मन की अमीरी आनी चाहिए, अन्यथा धन आने के बाद ‘विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय’ ऐसा हो सकता है।

कोई व्यक्ति बुरा हो तो… ‘खलस्य साधोर् विपरीतमेतद्’

अच्छे लोगों का इससे विपरीत होता है। ‘ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ..’ तो ऐसी बुद्धि चाहिए, यह संस्कार चाहिए, यह संस्कृति चाहिए। इसलिए भारत को विश्वगुरु बनना चाहिए, तो हमें क्या करना चाहिए?

व्यापार करने वाले कुछ अच्छे लोग हैं। सभी देशों में भारतीय व्यापारियों की जरूरत है क्योंकि उसमें ईमानदारी होती है। भारतीय डॉक्टर चाहिए क्योंकि वह करुणा के साथ इलाज करता है। भारतीय इंजीनियर वांछनीय होता है क्योंकि वह उत्कृष्टता से समझौता नहीं करता है। यह अच्छी स्थिति है। कई देशों को चलाने में भारतीयों की अहम भूमिका है। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि केवल इससे काम नहीं चलेगा। देशभक्ति का आधार क्या है? युवा पीढ़ी पूछेगी – हम इस देश की भक्ति क्यों करें? इससे ज्यादा और कुछ चाहिए। वह क्या है?

पिछले हजार -बारह सौ वर्षों से हम एक समाज के रूप में स्थिर नहीं थे। और एक समाज के रूप में हमारी स्थिति नष्ट हो गई। आज हम एक अव्यवस्थित समाज हैं। पिछला कुछ-कुछ है। उसके कुछ अवशेषों को पकड़कर हम चल रहे हैं, लेकिन वह व्यवस्था इस काल के लिए नहीं है। आचारधर्म निर्धारित करने वाली चीजें देश और काल के अनुरूप नई बनानी पड़ेंगी। लेकिन उन्हें बनाते समय नींव किसकी चाहिए? वह नींव हमारी चाहिए और हमें इसे समझना चाहिए। इसलिए सबसे पहले हमें अपनी दृष्टि को सही करना है। पिछले बारह सौ वर्षों में हमारी व्यवस्थाएँ नष्ट हो गईं। कई कदाचार हमारे बीच आए और उनके चलते रहने के कारण गलती से हम इन्हें ही अपनी परंपरा मानते हैं। यह धर्म नहीं, बल्कि अधर्म है।

अंग्रेजों ने हमारा ब्रेनवॉश किया, हमारे पूर्वजों, हमारी परंपराओं, हमारे इतिहास, हमारी संस्कृति के प्रति न केवल अज्ञानता पैदा की, बल्कि तिरस्कार भी पैदा किया। और उसे वैसा ही उत्पन्न करने का प्रयास आज भी जारी है। क्योंकि सबको प्रभुत्व चाहिए और अगर भारत सच में विश्वगुरु बनता है तो ठेकेदारी खत्म हो जाएगी। इसलिए, हमें इस सारी अव्यवस्था से बाहर निकलने के बाद सबसे पहले यह समझना चाहिए कि हम कौन हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए और किसी भी कारण से समझौता नहीं किया जाना चाहिए। हमारा राष्ट्र परोपकार के लिए बना है।

सनातन काल से उपलब्ध ज्ञान निधियों की चर्चा करते हुए कहा कि हमारे देश में प्रारंभ से ही अनेक उपासना संप्रदाय चले आ रहे हैं। और हमारी मान्यता है – ‘जाकी रहे भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन देखी तैसी’। यह विवाद का विषय नहीं हो सकती। जो कट्टरता आती है, उसका अंत अवश्य होना चाहिए. हम कौन हैं, हमारी संस्कृति बताती है –

‘मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत .

आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः..’

यही हमारी पहचान है। सनातन काल से इस धर्म के आधार पर चला आ रहा जीवन, उस आचरण से उत्पन्न अनुभवजन्य, प्रतीतिजन्य आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान, ये हमारी परंपरा है। यह शाश्वत है।

‘चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा . रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ..’

सारे दर्शन, ‘जैनागमास्त्रपिटकाः गुरुग्रन्थ सतां गिरः. एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ..’

यह ज्ञान निधि बंद नहीं है। कहीं से कुछ और आएगा तो….‘आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वता’ … सभी अच्छे विचार हमारे पास आएं। हम वो लोग हैं जो इस दृष्टिकोण के साथ स्थान देते हैं। हमारे यहां हम ही सही, बाकी सारे गलत, ऐसे नहीं चलेगा। यदि ये सभी अलग-अलग हैं, तो मिलजुलकर रहेंगे। हम देखेंगे कि हमारे व्यवहार से दूसरों को परेशानी न हो और जितनी आस्था मुझे है, उतनी ही दूसरे की जो है उसके बारे में होगी। हमें इस व्यवहार का पालन करना होगा।

उन्होंने कहा कि कन्वर्जन से काम नहीं चलेगा। यदि कोई स्वयं रेवरंड नारायण वामन तिलक (Narayan Vaman Tilak {6 December 1861 – 9 May 1919} Known as Reverend Tilak – In his early thirties, in search of a universal religion, he began to read the Bible. He became an “intellectual convert” and was baptized in February 1895. It was by choice and not by missionary activity.) की तरह धर्मान्तरण करता है तो करे, उस पर आपत्ति नहीं है। लेकिन लालच, धोखे, जबरदस्ती या आक्रामक तरीके से दूसरों के देवी-देवताओं का उपहास करने का जो प्रयास जारी है, वह हमारे देश का नहीं है। यह हमारे राष्ट्रीय जीवन में समा नहीं सकता। यह स्पष्ट होना चाहिए. किसी को नीचा दिखाना नहीं है। किसी का मजाक नहीं उड़ाया जाता, सबका स्वीकार है।

रामकृष्ण मिशन में अभी भी 25 दिसंबर मनाया जाता है। यह हम कर सकते हैं क्योंकि हम हिंदू है। हमारा कोई प्रश्न ही नहीं है। हम सबके साथ मिलजुल कर रहते हैं, अनादि काल से लेकर आज भी रह रहे हैं। यह जीवन, यह हार्मनी अगर विश्व को चाहिए, हमारे देश में इसका मॉडल खड़ा करना हो तो यह हार्मनी हमारे देश में होनी चाहिए।

राम मंदिर होना चाहिए, वह बन रहा है। हिन्दुओं को लगता है, उनका श्रद्धास्थान है, यह बनना चाहिए।

लेकिन, यह सोचकर कि हम हिन्दुओं के नेता बन सकते हैं, हर दिन नए मुद्दे उठाना, भूतकाल के बोझ के परिणाम स्वरूप अतिवादी तिरस्कार, द्वेष, शत्रुता या संदेह आदि के कारण रोज नया प्रकरण निकालना, यह कैसे चलेगा? ऐसा नहीं चलेगा। आखिर में इसका सोल्यूशन क्या है?

हमें विश्व को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं। हमारे देश में यह एक छोटा सा प्रयोग होना चाहिए। वह प्रयोग करने वाले हैं, इन सभी को शामिल करने वाले पंथ व संप्रदायों की विचारधाराएं हमारे पास हैं। अब कुछ बाहर से भी आई हैं। जिनमें गलत ही सही, लेकिन कट्टरता की परंपरा है। उनका राज्य यहां होने के कारण उन्हें लगता है कि हमारा राज्य वापस आना चाहिए। लेकिन हमारा देश अब संविधान के अनुसार चलता है। यहां किसी का राज्य नहीं होता। जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जो चुने जाएंगे, वही राज्य चलाएंगे। राज्य जनता का है। वर्चस्व का युग चला गया, इसका बोध होना चाहिए।  हमें इन पुराने झगड़ों को भूलकर सभी को समा लेना चाहिए।

यह अलगाव आज भी जारी है। आज तक चली इस लड़ाई का कारण क्या है? समय-समय पर यह स्मरण कराने का प्रयास हुआ। आपकी पूजा पद्धति कौन सी है, यह प्रश्न नहीं है। यहां हम एक साथ खुशी से रह सकते हैं। यह हमारी संस्कृति सिखाती है। लेकिन समय-समय पर इसमें अड़ंगा डालने की कोशिश भी की गई। एक अड़ंगा औरंगजेब ने डाला था। दारा शिकोह की तरह जो लोग ऐसा करना चाहते थे, उन्हें उन्होंने मिटा दिया। और कट्टरता के शासन का अनुभव हुआ।

यह प्रक्रिया 1857 में फिर से शुरू हुई। दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया। एक मौलवी और एक संत की पहल पर अयोध्या में राम मंदिर हिन्दुओं को देने का निर्णय हुआ। लेकिन अंग्रेजों को ध्यान में आया कि ये लोग आपस में कितना भी लड़ें, अगर हमारे जैसा कोई विदेशी है तो सारे एकत्र होकर हमें बाहर निकालने के लिए लड़ना शुरू कर देते हैं। इसलिए इन्हें अलग किया जाना चाहिए। उन्होंने एक और प्रयास किया। और इससे अलगाववाद उत्पन्न हुआ। उस साजिश से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ।

आज़ाद भारत में तमाम लोग ऐसे थे जो कहते थे कि हम भारत में ही रहना चाहते हैं, तो फिर कोई भारत में अगर रहना चाहता है, तो उन्हें भारतीय बन कर रहना होगा। हम सब एक हैं, तो अलग होने की भाषा कैसे आ जाती है? प्रभुत्व की भाषा कैसे होती है? अल्पसंख्यक कौन है? बहुसंख्यक कौन है? सभी एक जैसे तो हैं। इस देश की परंपरा है, जिसकी जो पूजा है उसका आनंद हर कोई अपनी तरह से ले सकता है। आपस में ठीक से व्यवहार करें। नियम-कानून का पालन करें और सर्वोच्चता, कट्टरता को भूलकर इस देश की समावेशी संस्कृति के साथ अपने आपको एकरूप करके रहना चाहिए। पारंपरिक रूप से इस देश की समावेशी संस्कृति जिनके पास चली आयी है, वे भी क्यों डरते हैं? हम इसलिए डरे हुए हैं क्योंकि हम बंट चुके हैं। संगठित हो जाओ, सशक्त बनो। फिर किसी से डर नहीं लगेगा। जो डराते हैं, वही डर जाएंगे। इतने सशक्त बनो. लेकिन किसी को डर मत दिखाओ।

‘ना भय देत काहु को, ना भय जानत आप,

ऐसे भारतीय को देखकर जगत डरावे आप’

ऐसा होना चाहिए…अपनी दृष्टी साफ होनी चाहिए।

उन्होंने कहा कि हमारा देश धर्माधारित, धर्मपरायण राष्ट्र है। हमारा राष्ट्र सनातन परंपरा से चलता आया प्राचीन राष्ट्र है। ये अंग्रेजो द्वारा तैयार किया हुआ राष्ट्र नहीं है। हमारा राष्ट्र सत्ता से जुड़ा हुआ नहीं है। यह तो संस्कृति, धर्म, सत्य, इन मूल्यों से जुड़ा हुआ है। इसीलिए आज तक का सबसे प्राचीन राष्ट्र है। सृष्टि की उत्पत्ति से चलता आ रहा यहाँ का सनातन धर्म, यही हमारे देश का आधार है। यह धर्माधारित राष्ट्र विश्व को धर्म देने के लिए ही जिंदा है।

राष्ट्र सबल होना चाहिए, यह बात सबके लिए स्पष्ट होनी चाहिए। इसमें कोई विवाद ना हो। कोई भी राजनितीक पार्टी हो, यह स्पष्ट होना चाहिए। कोई भी पूजा, पंथ, संप्रदाय हो, यह स्पष्ट होना चाहिए। यह भी स्पष्ट होना जरूरी है कि हमारी सभी प्रकार की विविधता नष्ट करने का अर्थ एकता नहीं।

उन्होंने कहा कि विश्व की मान्यता है, अगर एक होना है तो सभी को एक समान होना चाहिए। लेकिन हमारी मान्यता अलग है। विविधता ही एकता का सच्चा शृंगार है। उसका आदर करना जरूरी है, स्वीकार करना जरूरी है। हमारी विशिष्टता संजोकर रखना जरूरी है। दूसरों की विशिष्टता का आदर करना होगा। विविधता को लेकर एक होकर जिंदा रहने वाला हमारा राष्ट्र है। हमें भी वही अपना स्वभाव बनाना होगा। इसमें अगर हमारी दुर्बलता आड़े आती हो, तो वह डर और दुर्बलता छोड़कर हमें ऐसे सबल होना चाहिए कि हमारे सामने कोई खड़ा ही ना हो सके। लेकिन, हम पूरी दुनिया में सबको खड़ा करने में सहायता करेंगे। इसलिए डर और दुर्बलता फेंक देना आवश्यक है।

सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने कहा कि बहुत सी गलत आदतें बन चुकी हैं, उन्हें प्रयत्न कर निकालना होगा। हमारे देश का संविधान, जो हमारे देश के लोगों ने ही परंपरागत रूप से प्राप्त बुद्धि और मन से बनाया है, हमें उस रास्ते पर प्रामाणिकता से चलना चाहिए। संविधान के मार्गदर्शक तत्त्व, संविधान में वर्णित नागरिक कर्तव्य, नागरिकों के अधिकार, आदि का अपने घर पर ही प्रबोधन होना चाहिए और श्रद्धापूर्वक उसका आचरण भी किया जाना चाहिए। नागरिक जीवन के सभी अनुशासन, नियमों का पालन करके हमें बर्ताव करना जरूरी है। कितनी भी जल्दी क्यों न हो, फिर भी लालबत्ती कभी ना तोड़ो। सभी बिल वक्त पर भरने चाहिए, आदि छोटी, छोटी बातें होती हैं..

पर्यावरण का प्रश्न बड़ा है। हमारे घर का टूटा फूटा नल उसी वक्त दुरुस्त करना होगा। शॉवर के नीचे 15 मिनट से ज्यादा क्यों रहना। कितनी बाल्टी पानी स्नान के लिए उपयोग में लाना है, वगैरा वगैरा निश्चित करके पानी बचाना होगा! सिंगल यूज प्लास्टिक कम से कम हमारे घर के बाहर कर दो। कचरे का व्यवस्थापन, पेड़ लगाना, घर के उपयोग के लिए सब्जी उगाना..ऐसी बहुत सी बातें हैं, यह खुद करने योग्य हैं।

हमारे घर पर संस्कृति चलन होता रहे, हमारे बच्चों को यह बातें बताना जरूरी है या नहीं? उन्हें बताएं यह हमें देखना होगा। इतना बड़ा कथा भंडार हमारे पास है, रामायण, महाभारत तो है ही, इसके सिवा, बालहितोपनिषद, पंचतंत्र, ‘कथासरित्सागर’, ऐसा बहुतकुछ है..ये सभी बोधप्रद कथाएँ हैं. परंपरा से हमारे यहाँ दादी – नानी की कहानियों का खजाना है! बच्चो से, माँ-बाप के साथ संवाद होना जरूरी है, उससे मोबाईल का समय कम किया जा सकता है. उसका भी टाईम-टेबल रखना चाहिए। टीवी का भी टाईम रखो। आपस में बातचीत होना आवश्यक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शताब्दी वर्ष के बाद 2026 की विजयादशमी के बाद निश्चित किया है कि पाँच बातें लेकर आगे जाना है, ‘पंच परिवर्तन’ ऐसा हम उसे कहते हैं। सामाजिक समरसता का विषय है, कुटुंब प्रबोधन का विषय है, पर्यावरण का विषय है, नागरिक शिष्टाचार का विषय है, और ‘स्व’ का विषय है। स्वदेशी, स्व-गौरव और स्वदेशी। गाँव में किसी का रोजगार चल रहा हो, वो डुबोना ठीक नहीं। जो हमारे देश में बनता है, वो जरूर उपयोग में लाना है.. जो नहीं बनता, जिसके बिना चल सकता है, तो चलना। चलना असंभव हो तो फिर अपनी शर्तों पर लेना। जितना संभव हो सके उतना आत्मनिर्भर जीवन हो। पू. विनोबा जी कहते थे, स्वदेशी माने स्वावलंबन – आत्मनिर्भर होना.. और अहिंसा भी उसका अर्थ होता है.. क्योंकि हम जब अपने ही देश का माल लेते हैं, तब हमारे देश का रोजगार बढ़ता है, किसी के पेट पर आफत नहीं आनी चाहिए..यही “स्वदेशी” का काम है।

इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत के समाज को कैसा बनना पड़ेगा, इस पर सरसंघचालक जी ने कहा कि भारतीय जनता को अपने गुणों से ऐसा होना पड़ेगा, तभी भौतिक प्रगति, आज का उत्साह, जग में हो रहा नाम, सभी देशों का हमें मिल रहा समर्थन, हमारे प्रति एक आदर की और सम्मान की भावना, इन सबका उपयोग होगा। इसके लिए समाज के सद्गुणों का एक न्यूनतम स्तर होना जरूरी है।

हमारे जीवन में, व्यक्तिगत जीवन में, कौटुंबिक जीवन में, सामाजिक जीवन में, अपनी आजीविका के स्थल पर, इस गुणवत्ता का आचरण, इस गुणवत्ता से बात करना, इसी गुणवत्ता से सोचना होगा। अगर ऐसा हुआ तो भारत को विश्वगुरू होते देर नहीं लगेगी। अगले 20 साल में हम वो स्थान पा सकेंगे। कारण, भौतिक प्रगति हो रही है. नैतिक प्रगति होना जरूरी है। यह अगर हम कर सके; तो विश्वगुरु भारत, यह केवल उद्घोषणा नहीं रहेगी। यह केवल स्वप्न नहीं रहेगा, उसे प्रत्यक्ष साकार होते हुए हम देखेंगे।

(19 दिसंबर, 2024 – सहजीवन व्याख्यानमाला)

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत द्वारा पुणे में विश्वगुरु भारत विषय पर दिये भाषण के अंश

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *