भर्तृहरि मेला (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)

भर्तृहरि मेला (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)

मनोज गर्ग

भर्तृहरि मेला (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)भर्तृहरि मेला (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी)

• लोकगाथाओं के नायक हैं महाराजा भर्तृहरि

अलवर के भर्तृहरि धाम पर प्रति वर्ष भाद्रपद शुक्ल की अष्टमी को शुरू होने वाला तीन दिवसीय मेला सोमवार से आरम्भ हो गया। यह स्थान महाराजा भर्तृहरि की तपोस्थली रहा है। महाराजा भर्तृहरि की गणना राग से वैराग्य के मार्ग के आदर्श पथिकों में की जाती है। इनके द्वारा रचित साहित्य जीवनानुभव की दृष्टि से ही नहीं, साहित्यिक मूल्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। राजपाट त्याग कर वैरागी बने योगीराज भर्तृहरि ने नीति शतक, वैराग्य शतक और शृंगार शतक जैसी अमर कृतियों का सृजन किया। इन तीनों का नाम आज भी संस्कृत साहित्य में ही नहीं संसारभर के प्रेरणास्पद साहित्य में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।

महाराजा भर्तृहरि

महाराजा भर्तृहरि उज्जैन (मालवा क्षेत्र, मध्य प्रदेश) के राजा थे। ये विक्रमी संवत् के प्रणेता राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। विक्रमादित्य शासन के जटिल कार्यों में महाराज भर्तृहरि की सहायता किया करते थे। इन्होंने असाधारण रूपवती पिंगला से विवाह किया। पिंगला के रूपपाश में फंस कर भर्तृहरि राजकार्य से विमुख हो गये। पिंगला राजमहल के एक दरोगा पर आसक्त थी। विक्रम को जब इस पापाचार का पता चला और उन्होंने अपने अग्रज से इसकी शिकायत की, तो पिंगला ने विक्रम पर ही दुराचारी होने का आरोप लगा दिया। नगर सेठ ने भी पिंगला के जाल में फंस कर विक्रम पर अपनी पुत्रवधू के प्रति बुरी दृष्टि रखने का आरोप लगा दिया। नगर सेठ के आरोप पर महाराज भर्तृहरि ने विक्रम को देश निर्वासन का दण्ड दिया। विक्रम भी उसी क्षण उज्जैन छोड़कर चले गये।

कुछ दिन बाद एक ब्राह्मण राजदरबार में आया और उसने उन्हें एक अ‌द्भुत फल दिया। उस विलक्षण फल को खाने वाला अनन्त काल तक युवा रह सकता था। महाराज भर्तृहरि ने वह फल अपनी प्रिय रानी पिंगला को दे दिया ताकि वह सदा युवा रहे। पिंगला ने वह फल अपने प्रेमी दरोगा को अपने प्रेम के प्रमाण स्वरूप दे दिया। दरोगा उस फल को सीधे अपनी प्रेयसी एक वेश्या को दे आया। वेश्या ने सोचा कि उसके घृणित जीवन के लिए चिर यौवन और भी पतित करने वाला होगा। अतः उसने वह फल राजदरबार में आकर महाराज भर्तृहरि को ही भेंट कर दिया ताकि ऐसा परोपकारी व न्यायप्रिय राजा चिरयुवा रह कर प्रजारंजन करता रहे।

वेश्या के हाथ में वही फल देख कर, जो उन्होंने अपनी प्राणाधिक प्रेयसी पिंगला को दिया था, भर्तृहरि चकित रह गये। सत्य का ज्ञान होने पर इस छल और कपटपूर्ण व्यवहार ने उनके मोह-पाश को छिन्न भिन्न कर दिया। सांसारिक प्रेम की निस्सारता उनकी समझ में आ गयी। विक्रमादित्य को बुलाकर तथा उन्हें राजपाट संभला कर भर्तृहरि ने वैराग्य ले लिया और अपना सम्पूर्ण जीवन साधना और लोक कल्याण में लगा दिया। साधना के लिये उन्होंने मत्स्य देश में अरावली की पहाड़ियों के बीच एक दुर्गम किन्तु मनोहारी स्थान चुना। अलवर जिले में सरिस्का के समीप स्थित वह स्थान उनके नाम से ही प्रसिद्ध हुआ। यहीं उन्होंने अपने राजकार्य के अनुभवों पर नीति शतक, प्रेम के अनुभव पर श्रृंगार शतक और बाद में अपने वैरागी जीवन के अनुभवों पर वैराग्य शतक की रचना की। 

भर्तृहरि का मेला

यहां महाराज भर्तृहरि की समाधि भी बनी हुई है। उन्होंने अपना अन्तिम समय यहीं व्यतीत किया। भर्तृहरि, यहाँ भर्तृहरि बाबा के नाम से पूजे जाते हैं। यहाँ अनेक फक्कड़ साधु निवास करते हैं। राख लगाए, लंगोट बाँधे, कमण्डल और चिमटा हाथ में लिए तथा झोली लटकाए ये ‘बाबा’ अ‌द्भुत दृश्य की सृष्टि करते हैं। स्थानीय गुर्जर समाज में बाबा भर्तृहरि की बहुत मान्यता है। बाबा के भक्त समाधि का दर्शन कर धूनी की भभूत मस्तक पर लगाते हैं। इसे सौभाग्यदायक माना जाता है।

यद्यपि यहाँ दर्शनार्थियों का आवागमन वर्षभर लगा रहता है, तथापि वर्षा ऋतु और मेले के समय यहाँ की शोभा देखते ही बनती है। भाद्रपद मास को लगने वाला यह मेला राजस्थान के प्रसिद्ध मेलों में से है। इसमें लाखों की संख्या में मेलार्थी एकत्रित होते हैं। स्थानीय जनता के अतिरिक्त पूरे राज्यभर से एवं पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में ग्रामीण जनता मेले में एकत्रित होती है। सप्ताह भर पूर्व से ही यहाँ दुकानें लग जाती हैं। दूर-दूर से कनफटे जोगी एवं अन्य साधु-सन्त मेले के अवसर पर एकत्रित होते हैं। कालबेलियों के भी ये आराध्य हैं। अतः घुमंतू कालबेलिया समाज के लोग भी मेले के अवसर पर चाहे कहीं भी हों, मेले में अवश्य उपस्थित होते हैं। इस मेले में विविध जनजातियों के जीवन के विविध रंग समग्रता से उजागर होते हैं। जाट, गुर्जर, अहीर, मीणा, बागड़ा आदि जातियों की स्त्रियाँ मेले में अपनी-अपनी वेश-भूषा में सजकर नृत्य करती हैं। भर्तृहरि बाबा की घाटी लोकगीतों, लोकनृत्यों और कालबेलियों की पूंगी के स्वरों से गूंज उठती है। 

जयपुर के महाराजा जयसिंह इस मेले को बहुत महत्व दिया करते थे। मेले के अवसर पर सवारी निकला करती थी। आमोद-प्रमोद की व्यवस्था होती थी और सामान्य दर्शकों के लिए दुकानें लुटाई जाती थीं। परन्तु राजसत्ता के उन प्रयासों के बिना भी यह मेला लोक संस्कृति के विविध रंगों के कारण क्षेत्र का प्रमुख आकर्षण बना हुआ है। सामाजिक जीवन में भी जहाँ राजनीति ने जातियों व विविध जनसमूहों में दूरियाँ पैदा की हैं, भर्तृहरि बाबा के व अन्य मेले मेलार्थियों के सब जनसमूहों में आराध्य की समरूपता के कारण सौहार्द व समभाव का संचार करते हैं।

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