कैग की अनदेखी
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हृदयनारायण दीक्षित
कैग की अनदेखी
भारत की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) संवैधानिक (अनुच्छेद 148) संस्था है। यह और संसद भारत के सार्वजनिक धन के उपयोग के पहरेदार हैं। कैग देखता है कि देश की संचित निधि का व्यय संविधान व कानून के अधीन ही हुआ है। दिल्ली सरकार की आबकारी नीति पर कैग की रिपोर्ट विधानसभा में प्रस्तुत हो चुकी है। उपराज्यपाल ने कहा है कि, ”पिछली सरकार ने इस रिपोर्ट को सदन में नहीं रखा। कैग रिपोर्ट को अति शीघ्र सदन में रखने की संवैधानिक जिम्मेदारी सरकार पर है। सरकार ने संविधान का उल्लंघन किया है।” लम्बे समय तक रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालना अनुचित है। कैग की रिपोर्ट का विवेचन लोक लेखा समिति द्वारा होता है। समिति में सत्ता व विपक्ष दोनों के सांसद होते हैं। कैग की रिपोर्ट को नजरअंदाज करना आसान नहीं। यह शक्ति सम्पन्न संवैधानिक संस्था है। इसके कामकाज का यशस्वी इतिहास है। बोफोर्स तोप घोटाला कैग रिपोर्ट के कारण ही राष्ट्रीय मुद्दा बना। 2G स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की पोल कैग ने ही खोली। कोयला घोटाला कैग की रिपोर्ट से गंभीर मुद्दा बना। 1962 की कैग रिपोर्ट में जीप खरीदने को लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री सी. के. कृष्णा मेनन भी फंस गए थे। राष्ट्रमण्डल खेल आयोजन पर कैग रिपोर्ट से सत्तारूढ़ दल परेशानी में था।
संविधान निर्माताओं ने कैग को महत्वपूर्ण संस्था बनाया है। डॉ. आम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि वह नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को भारतीय संविधान में शायद सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी के रूप में देखते हैं। हालांकि इंग्लैंड और अमेरिका में उनके समकक्ष अधिकारी के जिम्मे खजांची और लेखाकार के कार्य होते हैं। लेकिन कैग को लेखा परीक्षण के सबसे अधिक अधिकार हैं। दिल्ली सरकार ने कैग की रिपोर्ट सदन में रखने के संवैधानिक दायित्व की उपेक्षा की है। सम्भव है कि रिपोर्ट को सदन में न रखने की योजना सोच समझ कर बनाई गई हो। संसदीय परम्परा में कैग को लोक लेखा समिति का मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक बताया गया है। लोकलेखा समिति और कैग के सम्बन्ध पारदर्शी हैं। समिति की बैठक में सभापति के दायें ठीक बगल में कैग बैठता है। सार्वजनिक धन के अपव्यय या गलत तरीके से इस्तेमाल करने से राष्ट्र को क्षति होती है। भारी भ्रष्टाचार होता है। शीर्ष स्तर के भ्रष्टाचार के खुलासे से अंर्तराष्ट्रीय बदनामी भी होती है। भारत में लोक लेखा परीक्षण विभाग की रचना 1853 में ही हो गई थी। स्वतंत्र संस्था के रूप में इसे 1919 के अधिनियम से वास्तविक रूप मिला। इसकी नियुक्ति भारत सचिव द्वारा होती थी। भारत शासन अधिनियम 1935 के अधीन उसके अधिकारों को और ज्यादा शक्ति मिली। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 ने कैग की शक्ति का संवर्धन किया। देशी रियासतों के भारतीय संघ में विलय करने के बाद कैग का उत्तरदायित्व पूरे देश में व्यापक हो गया। 1950 में संविधान में महालेखा परीक्षक का नाम नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक कहा गया।
इंग्लैंड में यह एक महत्वपूर्ण संस्था है। भारत का कैग महालेखा निरीक्षक है, लेकिन नियंत्रक नहीं है। ब्रिटेन के महालेखा परीक्षक के पास नियंत्रक महालेखा कार्य की शक्तियां भी हैं। भारत में सीएजी खर्च हुए लोक धन की गहन जांच करता है। वहीं ब्रिटेन का कैग धन के खर्च होने के पहले ही लोक धन का नियंत्रण करता है। ब्रिटेन में कैग की अनुमति के अभाव में राजकोष से कोई पैसा निकाला नहीं जा सकता। भारत का कैग संसद का सदस्य नहीं होता। ब्रिटेन में कैग हाउस ऑफ कॉमंस (लोकसभा) का सदस्य होता है। संविधान निर्माताओं ने गहन अध्ययन के बाद इस पद को गढ़ा है। इसकी निष्पक्षता सुनिश्चित की गई है। एक बार पद पर आने के बाद उसे उसी रीति से हटाया जा सकता है, जिस रीति से सुप्रीम कोर्ट के जज को। सामान्यतया राजकोष का धन करदाताओं से आता है। इसलिए उस धन को जनहित के लिए ही प्रयुक्त किया जाना चाहिए। समय समय पर इसकी गहन विवेचना जरूरी है। संविधान निर्माताओं ने इसीलिए कैग जैसी निष्पक्ष संस्था का प्रावधान किया।
संविधान में अनेक संस्थाएं हैं। सबके अपने अधिकार और कर्तव्य हैं, लेकिन ऐसे कार्यों के सम्पादन में समय प्रतिबद्धता का उल्लेख नहीं है। कैग का काम बड़ा है। निर्धारित समय के भीतर कठिन परिश्रम द्वारा ही कार्य सम्भव है। दिल्ली सरकार के मामले में कैग की रिपोर्ट सदन में नहीं रखी गई। सरकार का यह कृत्य संविधान सम्मत नहीं है। आखिर सभी काम समय के भीतर क्यों सम्पन्न नहीं हो सकते। प्रत्येक कार्य की प्रवृत्ति भिन्न होती है। कार्य की योजना बनाने में भी चूक होती है। संवैधानिक दायित्व संभालने वाले महानुभावों से अपेक्षा की जाती है कि वे निर्धारित समय के भीतर ही त्रुटिहीन कार्य पूरा कर लें। समय पर कार्य पूरा न होने से विभिन्न योजनाओं की लागत बढ़ जाती है। कैग ऐसे ही अंतर्विरोधों से निपटने और लोक धन के समुचित उपयोग को सुनिश्चित करने की जांच करता है। रिपोर्ट बनाता है। समितियों में रिपोर्ट की गहन विवेचना होती है।
संवैधानिक संस्थाओं के पदधारकों के लिए कार्य का समय निर्धारित करने में कठिनाइयां आती हैं। उन्हें समयबद्ध करने के लिए कोई संवैधानिक उपचार नहीं है। संवैधानिक नैतिकता और निष्ठा उन्हें समयबद्धता के लिए प्रेरित करती है। ऐसे लोग समय के प्रति जागरूक होते हैं। सब जानते हैं कि महत्वपूर्ण काम समय पर नहीं होते तब व्यापक राष्ट्रीय क्षति होती है। आखिरकार दिल्ली के उपराज्यपाल को रिपोर्ट मिलने और राज्यपाल से मुख्यमंत्री तक रिपोर्ट पहुंचने तक अधिकतम कितना समय लगना चाहिए? सम्भवतः दो दिन या चार दिन। लेकिन यहां महीनों लग गए। देरी होने की जांच कौन करे? कैसे करे? उत्तरदायित्व का निर्धारण कैसे हो? प्रक्रिया क्या हो? नाजायज फायदा उठाने के लिए जानबूझकर की गई देरी क्षमा योग्य नहीं होती।
लोक लेखा समिति सहित सभी संसदीय समितियां महत्वपूर्ण काम करती हैं। लोक लेखा समिति का काम बड़ा है। समिति कैग रिपोर्ट को संसद में प्रस्तुत होने के पहले भी देख सकती है। लोकसभाध्यक्ष मावलंकर ने कहा था कि “समिति को उसी समय उनकी परीक्षा करनी चाहिए। इससे उसे काम करने का अधिक समय मिलेगा। लेकिन समिति इस सम्बंध में सभा को तब तक कोई प्रतिवेदन नहीं दे सकती जब तक कि संगत लेखाओं, लेखा परीक्षा प्रतिवेदनों को औपचारिक रूप से सभा के सामने नहीं रख दिया जाता।” (संसदीय पद्धति और प्रक्रिया, लोकसभा सचिवालय, पृष्ठ 826) लेकिन समितियों की बैठकें पर्याप्त दिनों तक नहीं चलतीं। विधानमण्डलों की समितियों की हालत अधिक खराब है। कहीं-कहीं 8-10 वर्ष पुराने मामले समिति में लम्बित हैं। समय की कमी बताई जाती है और संसदीय जनतंत्र का मखौल बन जाता है। कम से कम संवैधानिक संस्थाओं की पत्रावलियां समयबद्ध गतिशील होनी चाहिए। अनेक मामलों में जांच में दोषी पाए गए लोग सेवानिवृत्त हो जाते हैं, लेकिन कार्यवाही नहीं होती। आश्चर्य है कि वरिष्ठ पदधारक भी समय की महत्ता पर प्रायः ध्यान नहीं देते। संवैधानिक संस्थाओं को स्वयं ही समय अनुशासन का ध्यान रखना चाहिए। इस विषय पर संसद या संसद की किसी समिति को गहनता से विचार करना होगा। विलम्ब के कारण भी सुस्पष्ट तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए। सब कुछ विलम्ब से हो सकता है, लेकिन राष्ट्र का सौभाग्य नहीं।