क्या बिखरा विपक्ष, मोदी सरकार का विकल्प बन सकता है?

क्या बिखरा विपक्ष, मोदी सरकार का विकल्प बन सकता है?

बलबीर पुंज

क्या बिखरा विपक्ष, मोदी सरकार का विकल्प बन सकता है?क्या बिखरा विपक्ष, मोदी सरकार का विकल्प बन सकता है?

क्या आई.एन.डी.आई गठबंधन, भाजपा नित एन.डी.ए. को सशक्त और मजबूत टक्कर देने की स्थिति में है? विरोधी गठजोड़ में सबसे बड़ा दल— कांग्रेस है, जिसका अपना घर ही संभला हुआ नहीं लग रहा। 18वें लोकसभा निर्वाचन में अभी तक बिना चुनाव लड़े कांग्रेस अपने कुप्रबंधन के कारण— सूरत (गुजरात) और इंदौर (मध्यप्रदेश) सीटें गंवा चुकी है। कांग्रेस सहित अन्य विरोधी इसे भाजपा द्वारा ‘लोकतंत्र की हत्या’ बता रहे हैं। सच तो यह है कि इस बार कई प्रत्याशियों को कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। नामांकन वापस लेने के अतिरिक्त पार्टी के कुछ प्रत्याशी अपने टिकट तक वापस कर चुके हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि आई.एन.डी.आई गठबंधन के अन्य घटक भी अपनी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी कांग्रेस की आफत बढ़ा रहे हैं। केरल में वामपंथी दल, प.बंगाल में तृणमूल द्वारा कांग्रेस को सीधी चुनौती— इसका प्रमाण है। इस पूरे प्रकरण में दिल्ली और पंजाब का मामला बहुत ही रोचक है। 

दिल्ली में अरविंदर सिंह लवली ने प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से यह कहते हुए त्यागपत्र दे दिया कि आम आदमी पार्टी (आप) के साथ पार्टी का गठबंधन गलत है। कांग्रेस के दो और पूर्व विधायक भी इसी प्रकार की आपत्ति जताकर पार्टी छोड़ चुके हैं। कांग्रेस का अंतर्कलह भी एक बार फिर सड़क पर है। पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी लवली को विश्वासघाती कह रहे हैं। वहीं लवली की आलोचना करने पर कांग्रेस के पूर्व विधायक आसिफ मोहम्मद के साथ लवली समर्थकों ने धक्का-मुक्की कर दी। 

वास्तव में, कांग्रेस और ‘आप’ का एक साथ आना विरोधाभास का परिचायक है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा आदि राज्यों में कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है। परंतु कई राज्य हैं, जहां कांग्रेस ने उन्हीं दलों के साथ गठजोड़ किया है, जिन्होंने उसके जनाधार में सेंध लगाकर ही अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाया है—सपा, डीएमके, आरजेडी आदि इसके उदाहरण हैं। ऐसे ही दलों में से एक— ‘आप’ भी है, जिसने दिल्ली में 2015 से न केवल उसे विधानसभा की तालिका में शून्य पर पहुंचा दिया, साथ ही पंजाब और गुजरात के चुनावों में भारी क्षति पहुंचाई है। 

‘आप’-कांग्रेस का दिल्ली के अतिरिक्त गुजरात, हरियाणा, गोवा और चंडीगढ़ में भी ‘गठबंधन’ है। परंतु दोनों पार्टियों के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कैसी है, यह पंजाब की राजनीति से स्पष्ट है। गत दिनों पंजाब विधानसभा के सत्र में मुख्यमंत्री भगवंत मान और कांग्रेसी नेता-प्रतिपक्ष प्रताप सिंह बाजवा एक-दूसरे से तू-तड़ाक पर उतर आए, यहां तक कि दोनों पार्टियों के विधायकों के बीच हाथापाई की नौबत तक आ गई थी। अब इस बात में कितनी सच्चाई है पता नहीं, परंतु बाजवा का दावा है कि मुख्यमंत्री मान ने अपने पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल की आबकारी घोटाले में गिरफ्तारी के बाद जश्न मनाया था। 

दिल्ली में गठबंधन होने के बाद भी कांग्रेस-‘आप’ में सब ठीक नहीं है। यहां लवली के त्यागपत्र और अन्य नेताओं के पार्टी छोड़ने से पहले ‘आप’ ने अपने प्रचार अभियान को अपने कोटे की चार सीटों तक ही सीमित रखा हुआ है। आखिर इतनी कटुता होने के बाद भी दोनों दल दिल्ली में गठबंधन करने को क्यों विवश हुए? इसका उत्तर 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणामों में मिलता है, जिसमें भाजपा सभी सात सीटें प्रचंड बहुमत के साथ जीतने में सफल रही थी। तब भाजपा के विरुद्ध दिल्ली में कांग्रेस और ‘आप’ ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। वर्ष 2014 में भाजपा को 46 प्रतिशत, तो 2019 में 57 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। कांग्रेस-‘आप’ के शीर्ष नेतृत्व को आशंका थी कि यदि इस बार भी वे अलग-अलग लड़े, तो इससे भाजपा को ही लाभ मिलेगा। ऐसा ही अस्वाभाविक गठजोड़ वर्ष 2013 में तब भी देखने को मिला था, जब ‘आप’ ने अपनी धुर-विरोधी कांग्रेस के साथ मिलकर दिल्ली में सरकर बनाई थी, जो मात्र 49 दिन में ही बिखर गई। वास्तव में, पंजाब को छोड़कर कांग्रेस और ‘आप’ का अस्वाभाविक गठजोड़ का एकमात्र उद्देश्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कैसे भी सत्ता से हटाना है। क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नकारात्मक राजनीति का कोई स्थान है? 

कांग्रेस जहां अपनी मौलिक गांधीवादी राष्ट्रवादी-सनातन विचारधारा को तिलांजलि देकर वामपंथ को आत्मसात कर चुकी है, वहीं वर्ष 2011-12 में गांधीवादी अन्ना हजारे द्वारा प्रदत्त भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से ‘आप’ का उदय हुआ है, जो दिल्ली में गांधीवादी सिद्धांतों के प्रतिकूल जाकर शराब आपूर्ति को सुलभ और सस्ता बनाने का भरसक प्रयास कर चुकी है, जिसमें अब उसके शीर्ष नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। कुछ वर्ष पहले केजरीवाल कई राजनीतिज्ञों का इस्तीफा मात्र एक आरोप पर मांग लिया करते थे। उन्हें वंशवाद आदि मुद्दों पर पानी पी-पीकर कोसते थे। वही केजरीवाल आज न केवल उन्हीं नेताओं में अपना सहयोगी ढूंढते हैं, पार्टी के समर्पित नेताओं के स्थान पर अपनी पत्नी को आगे करके वंशवाद प्रेरित राजनीति को आगे बढ़ाते हैं और जेल में बंद होने व न्यायालय की सख्त टिप्पणियों के बाद भी मुख्यमंत्री पद को नहीं छोड़ते हैं। यह विडंबना नहीं है, तो क्या है? 

जब ‘आप’ का जन्म हुआ, तब उसके नेताओं ने दावा किया कि वे राजनीतिक शुचिता, नैतिकता, ईमानदारी के नए आयाम गढ़ेंगे और सुविधाओं से युक्त सरकारी आवास, सरकारी वाहन आदि नहीं लेंगे। परंतु यह सब छलावा निकला। न केवल अन्य राजनीतिक दलों की भांति आप के मंत्रियों-विधायकों ने सरकारी आवास, वाहन-सुविधा और सुरक्षा आदि को अंगीकार किया, साथ ही बतौर मुख्यमंत्री, केजरीवाल ने अपने सरकारी आवास के विलासी नवीनीकरण पर लगभग 45 करोड़ रुपये व्यय होने पर गुरेज भी नहीं किया। इतना ही नहीं, बकौल आरोप, दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत को आवंटित सरकारी आवास पर उस गैर-राजनीतिक विजय नायर को रहने की छूट दे दी गई, जो दिल्ली आबकारी नीति घोटाले का आरोपी भी है। अब इस प्रकार के विरोधाभासों से भरा वर्तमान विपक्ष और उसका गठजोड़ मोदी सरकार को कितनी चुनौती दे पाएगा, यह 4 जून को मतगणना के बाद स्पष्ट हो जाएगा। 

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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