कांग्रेस को जातिगत जनगणना में दिख रही सत्ता की चाबी
प्रमोद भार्गव
कांग्रेस को जातिगत जनगणना में दिख रही सत्ता की चाबी
समग्र भारतीय समाज की यह विडंबना रही है कि मुद्दा कोई भी हो जाति उभरकर आ ही जाती है। आजकल लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी अनर्गल प्रलाप करते हुए जातीय विभाजन को हवा देने का काम कर रहे हैं। एक तरफ तो वे पुरजोरी से जातिगत गणना कराने की मांग कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ जब भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी का नाम लिए बिना कटाक्ष किया कि ‘जिनकी जाति का पता नहीं वे जातिगत जनगणना की बात करते हैं’ तो राहुल आहत हो गए। अब वे और अखिलेश यादव पूछ रहे हैं कि ‘सदन में जाति कैसे पूछी गई?‘ इसे अपमान की असंसदीय भाषा बता रहे हैं। यह बात सोच से परे है कि जो लोग संसद के मंदिर में जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं, वे अपनी जाति बताने में अपमान का अनुभव क्यों कर रहे हैं? यही राहुल देश में आम बजट प्रस्तुत करने से पहले परंपरा बन चुके ‘हलवा उत्सव‘ के समय पूछ रहे थे कि इसमें शामिल अधिकारियों की जाति क्या है। यह भी कह रहे थे कि इसमें अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के अधिकारी शामिल थे या नहीं। जाति पूछने का जो प्रश्न राहुल को गाली लगा, क्या इन अधिकारियों को नहीं लगा होगा? बहरहाल जातीय कुचक्र को बढ़ावा देने की संसद में यह स्थिति देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए बड़ा संकट बनकर सामने आ सकती है।
डॉ. आंबेडकर ने भारतीय समाज की इस भेदभाव से जुड़ी बुराई को पहले ही समझ लिया था। इसीलिए उन्होंने जाति विहीन समाज के निर्माण की कल्पना की थी। डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी जाति तोड़ो अभियान चलाया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को कहना पड़ा है कि भेदभाव पैदा करने वाली ‘वर्ण‘ और ‘जाति‘ जैसी हर व्यवस्था को निर्मूल करने की आवश्यकता है। सामाजिक समानता भारतीय परंपरा का हमेशा से हिस्सा रही है। लेकिन कांग्रेस ने अंग्रेजों की तरह बांटो और राज करो की नीति को सत्ता की सीढ़ी मान लिया। राहुल गांधी उसी को आगे बढ़ा रहे हैं। आज युवाओं में तो जातिवाद रहा ही नहीं, बढ़ते अंतर्जातीय विवाह इसकी बानगी हैं। अगर जातिवाद कहीं है, तो वह आरक्षण में है।
प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद में जाति कहीं नहीं है। हिन्दू ग्रंथों में वर्णों का उल्लेख मिलता है। हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था कब जाति व्यवस्था में बदल गई, किसी को पता ही नहीं चला। मुस्लिम समाज में सौ से अधिक जातियां हैं, परंतु इनकी जनगणना में पहचान का आधार धर्म और लिंग है।
जाति पर जबरदस्त कुठारघात महाभारत काल के भौतिकवादी ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, ‘इस अनंत संसार में कामदेव अलंध्य हैं। कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए? इसलिए संकीर्ण योनि होने से भी जातियां दुष्ट, दूषित या दोषग्रस्त ही हैं, इस कारण जाति को छोड़कर स्वेच्छाचार का आचरण करो।’ चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। कबीरदास ने जातिवाद को ठेंगा दिखाते हुए कहा, ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान।’ महात्मा गांधी ने जाति प्रथा तोड़ने के लिए ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चलाए। भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले ने जाति तोड़ने के अनेक प्रयत्न किए, लेकिन वह मजबूत होती चली गई। कुलीन हिन्दू मानसिकता, जाति तोड़क कोशिशों के समानांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। इसी मूल की प्रतिच्छाया हम पिछड़ों और अनुसूचित जाति समाज में देख सकते हैं। इसी के चलते जातीय संगठन और राजनीतिक दल भी अस्तित्व में आते रहे। मुलायम सिंह, लालू यादव और मायावती ने जातीय संगठनों की आग पर खूब रोटियां सेकीं और खाईं। भविष्य में निर्मित होने वाली इन स्थितियों को अंबेडकर ने 1956 में ही भांप लिया था। उन्होंने आगरा में भावुक होते हुए कहा था कि ‘उन्हें सबसे अधिक आशा अनुसूचित जाति समाज के पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग से थी कि वे समाज को दिशा देंगे। लेकिन इस तबके ने हताश ही किया है। अंबेडकर का अंतिम लक्ष्य जाति विहीन समाज की स्थापना था। जाति टूटती तो स्वाभाविक रूप से समरसता व्याप्त होने लग जाती। लेकिन देश की राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि नेता सवर्ण रहे हों या अवर्ण, वर्ग भेद को ही स्वाधीनता के समय से सत्तारूढ़ होने का मुख्य हथियार बनाते रहे। जाति का यह दुष्कर्म चरम पर दिखाई दे रहा है।
जो राहुल गांधी वर्तमान में जातीय जनगणना के पैरोकार बनकर हर समिति में पिछड़े अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की उपस्थिति की बात कर रहे हैं, वे यदि स्वयं के गिरेबान में झांकें और कांग्रेस के अतीत को ही खंगालें तो पता चलेगा कि वास्तव में कांग्रेस की वस्तुस्थिति क्या थी। उनकी दादी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नारा दिया था, ‘जात पर न पांत पर, मोहर लगेगी हाथ पर‘ लेकिन यही इंदिरा गांधी काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट को दरकिनार कर देती हैं। राहुल के पिता राजीव गांधी ने पदोन्नति में आरक्षण का वैचारिक विरोध किया था। अतएव सोचने की आवश्यकता है कि जातीय जनगणना ही देश की उन्नति का आधार थी, तो इंदिरा, राजीव, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के केंद्रीय सत्ता में रहते हुए क्यों नहीं कराई गई? मनमोहन सरकार के दौरान तो स्वयं राहुल गांधी सांसद थे, लेकिन उन्होंने संसद में एक बार भी जातीय जनगणना का प्रश्न नहीं उठाया। राजीव गांधी फाउंडेशन और राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट के सदस्यों में से एक भी सदस्य एसी-एसटी से नहीं है। वे इनमें ही इन जातियों के सदस्यों को शामिल कर लें तो उनकी कथनी और करनी का अंतर दूर होगा? दरअसल लगता है कि कांग्रेस और इंडी गठबंधन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का नोटिस देने पर विचार कर रही है। इसलिए जातीय विभाजन को हवा देने का काम पूरी शक्ति से किया जा रहा है। देश में अब अमीर और गरीब दो ही जातियां हैं। इस विसंगति की खाई को पाटने का दायित्व प्रत्येक देशभक्त नेता का होना चाहिए।