ब्राह्मणवाद का वामपंथी नैरेटिव

ब्राह्मणवाद का वामपंथी नैरेटिव

उमेश चतुर्वेदी

ब्राह्मणवाद का वामपंथी नैरेटिवब्राह्मणवाद का वामपंथी नैरेटिव

भारतीय राजनीति का केंद्रीय तत्व बन चुके ब्राह्मणवाद शब्द को आज जिन अर्थों में लिया जा रहा है। शायद ही उन अर्थों में इसका यूरोप में प्रयोग शुरु हुआ था। सोलहवीं सदी में पुर्तगाली मानव विज्ञानी गोंकालो फर्नांडिस ट्रैंकोसो ने इस शब्द (Brahmanism) का सबसे पहले प्रयोग किया था। तब शायद भारतीय समाज व्यवस्था को लेकर उनकी अपनी सोच रही होगी। लेकिन यह कहना भी कठिन है कि उन्हें भारतीय समाज का ठीक-ठीक ज्ञान रहा होगा। बेशक तब समूचा यूरोप सोने की चिड़िया की खोज में भारत की ओर दौड़ पड़ा था। पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस और ब्रिटेन के कारोबारी तथा सैन्य अधिकारी भारत की खोज में निकल पड़े थे। कमोबेश अपनी-अपनी तरह से उन्होंने भारतीय क्षेत्रों पर कब्जा भी किया। यह बात और है कि सबसे अधिक हिस्से पर कब्जा हासिल करने में अंग्रेज आगे रहे। हालांकि पांडिचेरी और गोवा के छोटे हिस्सों पर फ्रांसीसी और पुर्तगाली भी जमे रहे। ब्राह्मणवाद शब्द को रूढ़ बनाने और सवर्ण समाज के विरुद्ध घृणास्पद सीमा तक पहुंचाने में भारतीय वामपंथियों का योगदान अतुलनीय है। दिलचस्प यह है कि अपने निजी जीवन ही नहीं, अपने राजनीतिक उत्थान में भी यही वामपंथी हद दर्जे तक सवर्णवादी, जातिवादी और क्षेत्रवादी रहे हैं। इस शब्द को आक्रामक और सनातन विरोधी स्वरूप में स्थापित करने की शुरुआत अतिवादी वामपंथी समूह के सांस्कृतिक अंग ‘जन संस्कृति मंच’ के दूसरे मसविदा के माध्यम से हुई। इसके बाद यह शब्द भारतीय समाज में सवर्णों से घृणा और आक्रमण का जरिया बन गया।

ब्राह्मणवाद शब्द का सनातन विरोधी धारा के तौर पर अंबेडकर भी प्रयोग करते थे। बौद्ध पंथ और ब्राह्मणवाद के युद्ध की परिकल्पना भी वही देते हैं। अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ में वे ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच युद्ध की बात करते हैं। हालांकि इस पूरी चिंतन प्रक्रिया में वे इस पर शोध करने से परहेज करते हैं कि अगर ब्राह्मणों और बौद्धों में हिंसक संघर्ष ही हुआ तो फिर उन्होंने बुद्ध को भगवान क्यों माना और उन्हें ईश्वर के दसवें अवतार के रूप में स्वीकार क्यों किया? क्या पराजित मानस इस तरह किसी को ईश्वर मान सकता है?

भारत में जब अट्ठारहवीं सदी में औपनिवेशिक शासन शुरू हुआ तो तत्कालीन अंग्रेज विद्वानों और अधिकारियों को लगा कि इस समाज पर कब्जा तभी जमाया जा सकता है, जब यहां सामाजिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर दिया जाए। यहां की पीढ़ीगत ज्ञान परंपरा को तहस नहस किया जाए। निश्चित तौर पर भारतीय समाज अगर शक्तिशाली था तो उसकी बड़ा कारण भारतीय सनातन परंपरा है। जो कमोवेश आज भी सामाजिकता को बनाए और बचाए रखने में सफल है। अंग्रेज इस शक्ति को किस तरह समझते थे, इसका संकेत हमें मैकाले का हाउस ऑफ लॉईस में दिये भाषण में मिलता है। भारत को स्वतंत्रता देने के लिए ब्रिटिश संसद में जो चर्चा हुई, उस चर्चा की गहराई में भी जाएंगे तो भारतीय समाज की इस पारंपरिक शक्ति का उल्लेख मिलता है। बहरहाल औपनिवेशिक शासन को स्थापित करने की राह में सबसे बड़ी बाधा सनातन परंपरा को माना गया। इसके बाद ब्राह्मणवाद शब्द को आधार बनाया गया। प्रोफेसर प्रमोद दुबे के अनुसार, औपनिवेशिक शासन काल में मद्रास (चेन्नई) और कलकत्ता (अब कोलकाता) में ईसाई मिशनरियों और उनके शक्तिशाली पादरियों ने भारतीय सनातन परंपरा, धार्मिक सोच आदि पर हमला शुरू किया। इसमें भारतीय धर्म और समाज को नीचा दिखाने के लिए ब्राह्मणवाद शब्द का जोरशोर से प्रयोग शुरू हुआ। समाज को बांटने और कन्वर्जन के प्रयास शुरू हुए।

नए ईसाई बने लोगों को सुविधा संपन्न बनाया जाने लगा और इस तरह भारतीय परंपरा में स्थापित ईश्वर की अवधारणा को चोट पहुंचाई जाने लगी। भारतीय जाति परंपरा में छुआछूत जैसी बुराइयों को छोड़ दें तो इनकी सामाजिक शक्ति को गांधी तक स्वीकार करते हैं। जयप्रकाश नारायण भी अपने एक निबंध में भारतीय ग्राम्य समाज और उसकी सामाजिक परंपरा को शक्तिशाली मानते हैं।

जिनके दम पर भारतीय सभ्यता हजारों वर्षों से दुनिया के लिए लालची निगाहों का कारण बनी रही, उस परंपरा पर भी चोट पहुंचाई गई। इसी चोट पहुंचाने की परंपरा में कभी नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने के पीछे ब्राह्मण का हाथ बता दिया जाता है, तो कभी बाह्मणों और बौद्धों की लड़ाई का इतिहास पढ़ाया जाने लगता है। कभी भारतीय ग्रामीण समाज को ब्राह्मणवाद के माध्यम से पतित और गंदगीभरा बताया जाने लगता है। परवर्ती काल में पाठ्‌यक्रम को भी इसी दृष्टि से तैयार किया गया। उन पाठ्‌यक्रमों को तीन से चार पीढ़ियां पढ़ चुकी है, उनका मानस भी इसी पाठ्‌यक्रम से तैयार हुआ है। इसलिए उन्हें भी ब्राह्मणवाद की अवधारणा सही लगती है। उन्हें लगता है कि सनातन परपंरा दुनिया की सबसे पिछड़ी व्यवस्था है। कबीर ने भी लिखा है, पंडितवाद झूठा, लेकिन उनका पंडितवाद का विरोध दरअसल पाखंड का विरोध है। कबीर सिर्फ पंडित या ब्राह्मणवाद को ही निशाना नहीं बनाते, बल्कि वे इस्लाम के पाखंड पर भी हमला करते हैं। तभी उन्हें यह कहने में संकोच नहीं होता कि कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाया, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय। कबीर जितने सनातनी पाखंड के विरोधी हैं, उतने ही इस्लाम के पाखंड के। लेकिन जरा भारतीय वामपंथी चिंतन को देखिए। यह ब्राह्मणवाद के जरिए सनातनी परंपरा के विरुद्ध तो मुखर है, लेकिन इस्लामी पाखंड और और रूढियों को लेकर उसका भाव धर्मनिरपेक्षता की पर्देदारी में कहीं छुप जाता है। इन अर्थों में कह सकते हैं कि, भारतीय वामपंथी चिंतन भी रूढ़ और पाखंडी है। पुर्तगाली मानवविज्ञानी गोंकालो फर्नाडिस ट्रैंकोसो ने शायद ही सोचा होगा कि ब्राह्मणवाद शब्द इस गति को प्राप्त होगा। लेकिन भारतीय वामपंथी वैचारिकी की बलिहारी है कि यह शब्द भारतीय समाज को बांटने का सबसे बड़ा औजार बन चुका है। सामाजिक तनाव का उपकरण तो खैर है ही।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं प्रसार भारती में सलाहकार हैं)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *