नागरिकता कानून पर विषवमन
बलबीर पुंज
इन दिनों नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए का मामला चर्चा में है। यह मामला अदालत के साथ ही सार्वजनिक विमर्श के दायरे में भी है। किसी भी कानून पर दृष्टिकोण में भिन्नता बहुत स्वाभाविक है, मगर कुछ दल तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए तथ्यों की अवहेलना करते हुए समाज में घृणा और भय फैलाने के साथ मिथ्या आरोप लगाने में व्यस्त हैं।
कहा जा रहा है कि सीएए संविधानसम्मत नहीं है और यह अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करता है। इसका निर्णय तो शीर्ष अदालत ही करेगी, परंतु इस मामले में भड़काऊ बयानबाजी आश्चर्य चकित करने वाली है। बंगाल और केरल के मुख्यमंत्रियों का कहना है कि वे सीएए को लागू नहीं होने देंगे, जबकि इस कानून का राज्य सरकारों से कोई लेना-देना नहीं है।
शरद पवार इस कानून को लोकशाही पर आक्रमण कह रहे हैं तो असदुद्दीन ओवैसी इस कानून को गोडसे की सोच वाला बता रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का बयान तो और भी अचंभित करने वाला रहा। उन्होंने सीएए को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए कहा कि ‘पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में लगभग ढाई-तीन करोड़ अल्पसंख्यक हैं। यदि इनमें से एक-डेढ़ करोड़ भी भारत आ जाएं, तो हम उन्हें कहां बसाएंगे?
नौकरी कैसे देंगे? पूरी कानून व्यवस्था चरमरा जाएगी..यह 1947 से भी बड़ा प्रवास होगा..।’ क्या यह बयान भड़काऊ नहीं? केजरीवाल दुष्प्रचार कर रहे हैं कि मोदी सरकार विदेशी अल्पसंख्यकों को भारत आने का निमंत्रण देने जा रही है, जबकि सीएए तो उनके लिए है जो संबंधित तीन पड़ोसी देशों में मजहबी प्रताड़ना से परेशान होकर 2014 से पहले भारत आ गए थे।
ऐसे शरणार्थियों से कानून एवं व्यवस्था को खतरा पहुंचने की बात कहने वाले क्या देश में अवैध रूप से बसे बांग्लादेशी-रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति को देखते हैं? राजधानी दिल्ली सहित देश के कई क्षेत्रों में रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमान बसे हुए हैं। कुछ घटनाओं पर गौर करें तो 6 मार्च, 2021 को दिल्ली-एनसीआर में लूटपाट एवं डकैती की दर्जनों वारदात कर चुके तीन बांग्लादेशी बदमाशों, 22 अक्टूबर, 2020 को राजधानी के कई क्षेत्रों में एटीएम उखाड़कर ले जाने वाले बांग्लादेशियों, 6 अगस्त 2019 को कनार्टक की एक डकैती में एक व्यक्ति की हत्या करने वाले दो बांग्लादेशियों को पुलिस ने पकड़ा था।
हरियाणा स्थित नूंह में गत वर्ष शोभायात्रा पर पथराव करने वालों में रोहिंग्या मुस्लिम भी शामिल थे। इसी तरह हल्द्वानी में अतिक्रमण हटाने पहुंचे पुलिस बल पर हमले के पीछे भी कई रोहिंग्याओं के हाथ होने का आरोप है। ऐसी एक अंतहीन सूची है। क्या सीएए का विरोध कर रहे लोगों ने रोहिंग्या-बांग्लादेशी मुसलमानों से जुड़ी इन आपराधिक घटनाओं के विरुद्ध कुछ बोला या उन्हें ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा’ माना?
स्वघोषित सेक्युलरवादी और ‘लेफ्ट-फासिस्ट’ अवैध रूप से भारत में घुसे उन रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता देने के साथ सम्मानजनक नौकरी सहित अन्य सुख-सुविधा देने का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन करते हैं, जिनके बंधु-बांधव अपने मूल देश म्यांमार में असंख्य हिंदू-बौद्ध अनुयायियों का नरसंहार कर चुके हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, अगस्त 2017 में रोहिंग्या आतंकियों ने म्यांमार में अलगाववाद से ग्रस्त प्रांत रखाइन में 99 हिंदुओं को तालिबानी तरीके से मौत के घाट उतारकर उनकी महिलाओं का मतांतरण किया था।
जांच पश्चात मृत हिंदुओं के शव एक सामूहिक कब्र में मिले थे। संयुक्त राष्ट्र के एक जांच दल ने अक्टूबर 2023 में इसे ‘अंतरराष्ट्रीय अपराध’ घोषित किए जाने की अनुशंसा की थी। इस प्रकार के जघन्य हत्याकांड और जिहादियों को स्थानीय रोहिंग्या मुस्लिमों का समर्थन मिलने के बाद 2017 में म्यांमार सत्ता-अधिष्ठान सैन्य कार्रवाई के लिए बाध्य हुआ था।
इसके चलते लाखों रोहिंग्या मुसलमान सुरक्षित ठिकाने की खोज में म्यांमार से पलायन कर गए। क्या इसके बाद उनके आचरण में कोई बदलाव आया? दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार ने सितंबर 2017 की एक रिपोर्ट में प्रकाशित किया था कि म्यांमार से शरणार्थी बनकर बांग्लादेश के काक्स बाजार पहुंचे रोहिंग्या मुस्लिम राहत शिविरों में रोहिंग्या हिंदू महिलाओं का जबरन सिंदूर मिटाकर, चूड़ियां तोड़कर और मतांतरण करके उन्हें दिन में पांच बार नमाज पढ़ने के लिए विवश कर रहे थे। स्वयंभू सेक्युलरवादियों का यही वर्ग पाकिस्तान के उन अहमदिया मुस्लिमों से भी सहानुभूति रखता है, जिनका भारत के रक्तरंजित विभाजन में बड़ा योगदान रहा।
जिस सीएए को विवादों में घसीटने का प्रयास हो रहा है, वह कानून तो भारत के मानवतावादी एवं बहुलतावादी सनातन डीएनए के अनुरूप ही है। इजरायली प्रतिकार में तबाह गाजा-पट्टी के मुस्लिमों को राहत-साम्रगी पहुंचाना, संकटग्रस्त अफगानिस्तान को रसद आपूर्ति करना और आपदाग्रस्त तुर्की में ‘आपरेशन दोस्त’ से राहत-बचाव कार्य चलाना इसका जीवंत प्रमाण है। ऐसे में साझी विरासत के कारण अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति भारत की नैतिक जिम्मेदारी है।
चीनी आक्रमण के बाद भारत ने तिब्बती बौद्ध अनुयायियों को ऐसी ही सुविधाएं प्रदान की थीं। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भी मजहबी कारणों से सताए गए अल्पसंख्यकों को नागरिकता देते रहे हैं। 1989-90 में अमेरिकी सीनेटर फ्रैंक लौटेनबर्ग के प्रयासों से अमेरिका ने सोवियत संघ और ईरान के अल्पसंख्यकों को शरण और नागरिकता प्रदान करने के लिए कानून में संशोधन किया था।
इस संशोधन के अंतर्गत ईरान में अल्पसंख्यक ईसाई, बहाई और यहूदियों को उनके धार्मिक उत्पीड़न पर शरण और नागरिकता दी गई। इसी तरह ब्रिटेन में ‘राष्ट्रीयता और सीमा अधिनियम’ के माध्यम से गुलामी और मानव तस्करी के पीड़ितों को नागरिकता और शरण देने का प्रस्ताव है। इस पृष्ठभूमि में विदेश में मजहबी कारणों से उत्पीड़न का सामना कर रहे हिंदू-सिख अपनी सुरक्षा के लिए कहां जाएंगे?
विभाजन के बाद भारत में जहां मुसलमानों की संख्या छह गुना से अधिक बढ़ गई है, वहीं पाकिस्तान में हिंदू-सिख जनसंख्या 16 प्रतिशत से घटकर दो प्रतिशत से भी कम, तो बांग्लादेश में हिंदू-बौद्ध जनसंख्या हिस्सेदारी 28 प्रतिशत से गिरकर आठ प्रतिशत रह गई है। अफगानिस्तान में 1970 में सात लाख गैर-मुसलमान थे, जो गृहयुद्ध, मजहबी हिंसा और तालिबानी राज में घटकर अंगुलियों पर गिनने लायक बचे हैं। क्या भारत हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों का प्राकृतिक घर नहीं? इस प्रश्न का उत्तर सीएए में समाहित है।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)