इतिहास में ज़हर घोलने का षड्यंत्र

इतिहास में ज़हर घोलने का षड्यंत्र

शिवकांत शर्मा

इतिहास में ज़हर घोलने का षड्यंत्रइतिहास में ज़हर घोलने का षड्यंत्र

बिहार में जन्मे ब्रितानी पत्रकार और विचारक जॉर्ज ऑरवेल के नाम से एक कथन है – “लोगों को मिटाने का सबसे कारगर उपाय यह है कि उनकी अपने इतिहास की समझ को मिटा दिया जाए।” प्राचीन भारत के इतिहास को लेकर कुछ ऐसा ही खेल चल रहा है। हमारे प्राचीन इतिहास के लिखित प्रमाण कम मिलते हैं। इसी का लाभ उठाकर इस काल के शासकों और ब्राह्मणों को हूण और इस्लामी लुटेरों और आक्रांताओं जैसा असहिष्णु बताकर बौद्ध धर्म की विरासत के विनाश का ठीकरा उनके सिर फोड़ने के प्रयास चल रहे हैं ताकि हिन्दुओं और बौद्धों के बीच बैरभाव की दीवार खड़ी हो सके।

इसकी शुरुआत पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म का विध्वंसक बता कर की जाती है। वह नौवें और अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का सेनापति था, जिसकी हत्या करके ईसा पूर्व 185 में गद्दी पर बैठा था। कुछ बौद्ध ग्रंथों में उसे बौद्ध भिक्षुओं का संहारक और स्तूपों का विनाशक बताया गया है। इसका पहला उल्लेख तीसरी से पाँचवीं सदी के बीच लिखे गए बौद्ध जातक अशोकावदान में मिलता है। कहा गया है कि पुष्यमित्र ने पटना के पास कुक्कुटाराम विहार पर चढ़ाई करके बौद्ध भिक्षुओं का संहार किया और चला गया। वहाँ से स्यालकोट जाकर उसने हर भिक्षु के सिर के लिए 100 रोमन दीनार देने का ऐलान किया। परंतु वहाँ रहने वाले एक जैन मुनि ने दीनारों के लालच में अपनी माया से भिक्षुओं के सिर रचने शुरू कर दिए। पता चलने पर उसे मारने निकले पुष्यमित्र और उसकी सेना को कृमिशा नाम के बौद्ध यक्ष ने पहाड़ से कुचल कर मार डाला। बौद्ध महायान शाखा के आठवीं सदी के ग्रंथ मंजुश्रीमूलकल्प में कहा गया है कि गोमिमुख नाम के राजा ने कश्मीर से पूरब क्षेत्रों में स्थित विहारों और भिक्षुओं का विनाश किया। अंत में वह उत्तरी क्षेत्र में पहाड़ी चट्टानें गिरने से सेना समेत साथ मारा गया। सत्रहवीं सदी के तिब्बती लामा तारानाथ ने भी अपने बौद्ध धर्म के इतिहास में लिखा है कि पुष्यमित्र नाम के ब्राह्मण राजा ने मध्य देश से जालंधर तक अनेक विहारों को जलाकर बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला, जिसके कारण मध्य और उत्तर भारत से बौद्ध धर्म का लोप हो गया।

बौद्ध ग्रंथों में पुष्यमित्र शुंग की बौद्ध सम्प्रदाय विरोधी हिंसा के इन उल्लेखों को लेकर कई समस्याएँ हैं। सर्वप्रथम तो ये ग्रंथ पुष्यमित्र के काल से 400 से 1700 वर्ष बाद के हैं। दूसरे, इनमें आई हिंसा की घटनाओं के वर्णन में बड़ा अंतर है। ऊपर से यक्ष, दानव और कुम्भांडों का उल्लेख इन्हें ऐतिहासिक की जगह पौराणिक ही सिद्ध करता है। तीसरे, अशोकावदान में जिन रोमन दीनारों का ईनाम देने की बात कही गई है, वे पुष्यमित्र के समय चलन में ही नहीं थीं। चौथे, पुष्यमित्र के ब्राह्मण होने का कोई प्रमाण नहीं है। अशोकावदान ने तो उसे मौर्यवंश का ही आखिरी राजा बताया है। हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने उसके लिए अनार्य शब्द का प्रयोग किया है। पाँचवीं और सबसे बड़ी समस्या यह है कि अभिलेखीय प्रमाण और चीनी बौद्ध यात्रियों के यात्रा संस्मरण पुष्यमित्र का बौद्ध विरोधी होना साबित नहीं करते। न ही शुंगकालीन किसी ऐसे हिन्दू मंदिर या मठ के अवशेष मिलते हैं, जिन्हें पुष्यमित्र या उसके वंशजों ने बौद्ध विहारों को तोड़कर बनाया हो। बौद्ध धर्म का भारत से लोप होने के दो बड़े कारण हो सकते हैं। पहला बौद्ध धर्म और दर्शन में कोई ऐसी प्रमुख विशेषता न होना जो उसे हिन्दू धर्म और दर्शन से विशिष्ट और आकर्षक बना सके। दूसरा हूणों और इस्लामी आक्रांताओं के हमले जिन्होंने बौद्ध विहारों को ध्वस्त किया और भिक्षुओं को मार भगाया।

भरहुत और साँची के स्तूप बौद्ध स्तूपकला के उत्कृष्टतम नमूने माने जाते हैं। भरहुत के स्तूप का शिल्प और शिलालेख बताता है कि वह पुष्यमित्र के शासनकाल में बना था। उसी के शासनकाल में साँची के स्तूप का विस्तार हुआ था और उसका पाषाण परकोटा बना था। बोधगया के महाबोधि मंदिर से मिले एक शिलालेख में राजा ब्रह्ममित्र की रानी नागदेवी और राजा इंद्राग्निमित्र की रानी कुरंगी से मिले दान का उल्लेख है। ये दोनों राजा शुंगकालीन माने जाते हैं। मथुरा से मिला शिलालेख बताता है कि पुष्यमित्र के सामंत धनभूति ने वहाँ के एक बौद्ध संघाराम के लिए तोरण द्वार और परकोटे का दान किया। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र का तो अमात्य ही बौद्ध भिक्षु था। स्पष्ट है कि ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच जिस वैरभाव का इतिहास गढ़ा जा रहा है वह कभी था ही नहीं। अभिलेखों से तो यह साबित होता है कि स्तूपों और विहारों के लिए दान करने वालों में अधिकतर लोग हिन्दू थे और वे स्तूपों और विहारों में उसी तरह जाते थे, जैसे आजकल सिख गुरुद्वारों और मुस्लिम पीरों की दरगाहों पर जाते हैं। इसीलिए चीन से आने वाले बौद्ध यात्रियों फा ह्यान, हुआन त्सांग और इत्सिंग ने अपने यात्रा संस्मरणों में न पुष्यमित्र की हिंसा का कोई उल्लेख किया है और न हिन्दुओं और बौद्धों के बैरभाव का।

आजकल कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने नालंदा महाविहार के विध्वंस का इतिहास बदलने का अभियान छेड़ रखा है। उनका कहना है कि नालंदा के रत्नोदधि, रत्नसागर और रत्नरंजक नाम के पुस्तकालयों को बख़्तियार ख़िल्जी ने नहीं बल्कि एक ब्राह्मण भिखारी ने जलाया था। इस रोचक घटना का उल्लेख दो बौद्ध लामाओं ने अपने इतिहास ग्रंथों में किया है। तारानाथ ने अपने बौद्ध सम्प्रदाय के इतिहास में लिखा है कि भिक्षुओं ने विहार में भिक्षा लेने आए दो तीर्थिक साधुओं पर गंदा पानी डाल कर उन पर कुत्ते छोड़ दिए। इससे नाराज़ होकर एक ने बारह वर्ष सूर्य साधना की और सिद्धि पाकर पुस्तकालयों को हवन की राख छिड़क कर जला दिया। तीर्थिक शब्द ग़ैर बौद्ध जैन और आजीवक भिक्षुओं और गोरखपंथी साधुओं के लिए प्रयोग में आता था। सुम्पा खान्पो ने भी अपने इतिहास ग्रंथ में लगभग यही किस्सा दोहराया है। तारानाथ का इतिहास नालंदा विध्वंस के 500 साल बाद, 1608 में लिखा गया था और सुम्पा खान्पो का 1748 में। दोनों लामा कभी भारत नहीं आए और दोनों के इतिहास सुनी-सुनाई बातों पर आधारित हैं। इसलिए एक अकेले तीर्थिक साधु का हज़ारों भिक्षुओं और रक्षकों के होते हुए लाखों किताबों वाले पुस्तकालय की तीन इमारतों को अपनी सिद्धि के बल से जला कर भस्म कर देना साफ़ तौर पर किंवदन्ती है इतिहास नहीं। 

रोचक बात यह है कि तुर्क विध्वंस से खंडहर बने नालंदा में 1234 में रहकर गए लामा धर्मस्वामी ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया है। धर्मस्वामी ने नालंदा के पुस्तकालय का भी उल्लेख नहीं किया जो संभवतः उनके समय तक जलकर भस्म हो चुका था। उस समय नालंदा में बचे भिक्षुओं की देखभाल बोधगया के राजा बुधसेन कर रहे थे और जयदेव नाम के एक ब्राह्मण के दान से विहार चलता था। तुर्कों ने इस बात से नाराज़ होकर जयदेव को पकड़ लिया था और उसे मारने की धमकी दी थी। चारों और तुर्क लुटेरों का आतंक छाया था। विक्रमशिला और ओदंतपुरी को पूरी तरह और नालंदा के अधिकतर भाग को ध्वस्त कर दिया गया था। 

तुर्क लुटेरों और ख़ासकर बख़्तियार ख़िल्जी की लूटपाट और हिंसा का दूसरा और सबसे प्रामाणिक उल्लेख फ़ारसी इतिहासकार मिन्हाज अल-सिराज की तबक़ात-ए-नासिरी से मिलता है। अल-सिराज ने 1260 में लिखी इस क़िताब में बताया है कि विहारों को किले समझकर हमले करने वाले बख़्तियार ने किस तरह बौद्ध भिक्षुओं को सिरमुंडे ब्राह्मण समझकर उनका कत्ले-आम किया और इमारतों से धन-दौलत की जगह पुस्तकें मिलने पर उन्हें नष्ट कर दिया। उसके द्वारा ध्वस्त किए गए विहारों में विक्रमशिला और ओदंतपुरी के नाम तो हैं पर नालंदा का नाम नहीं है और न ही पुस्तकालय जलाने का ज़िक्र है। इसी आधार पर तर्क दिया जा रहा है कि बख़्तियार ने नालंदा और उसके पुस्तकालयों को ध्वस्त नहीं किया। पर यह सही नहीं है। क्योंकि नालंदा में रहकर गए बौद्ध लामा धर्मस्वामी ने अपने संस्मरण में तुर्क लुटेरों के आक्रमणों से हुई नालंदा महाविहार की दुर्दशा का विस्तार से वर्णन किया है। उनके बाद तारानाथ और सुम्पा खान्पो ने भी तुर्क हमलों से नालंदा की दुर्दशा की बात दोहराई है। इसलिए केवस अल-सिराज द्वारा नालंदा के नाम का उल्लेख न करने भर से सिद्ध नहीं होता कि बख़्तियार ने नालंदा पर हमला नहीं किया। ऐसा कैसे हो सकता है कि विहार लूटने निकला लुटेरा ओदंतपुरी को लूटकर उससे केवल पाँच मील दूर पड़ने वाले सबसे बड़े और संपन्न विहार को लूटे बिना लौट गया हो? धर्मस्वामी, तारानाथ और सुम्पा खान्पो इन तीन लामाओं के विवरणों से सिद्ध हो जाता है कि नालंदा का विनाश तुर्कों ने ही किया। जिन तुर्क लुटेरों ने मंदिरों, स्तूपों और भिक्षुओं को नहीं छोड़ा वे भला पुस्तकालयों को क्यों बख़्शेंगे?

पुरातत्व के साक्ष्य बताते हैं कि नालंदा महाविहार में भयानक आग लगी थी। ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि महाविहार की दुर्दशा तुर्क लुटेरों के हमलों से हुई जिन्होंने भिक्षुओं को निर्दयता से मारा और स्तूपों और मंदिरों का विध्वंस किया। अल-सिराज ने लिखा है कि विक्रमशिला और ओदंतपूरी का विनाश बख़्तियार ख़िल्जी ने किया। पुस्तकें भी नहीं छोड़ीं। नालंदा महाविहार और ओदंतपुरी विहार एक-दूसरे से लगभग सटे हुए थे। ऐसे में यह मानना कितना तर्कसंगत है कि नालंदा में और सारा विध्वंस तो तुर्कों या बख़्तियार ख़िल्जी ने किया पर पुस्तकालयों को कोई गोरखपंथी साधु जला गया? 

कोई राय बनाने से पहले यह याद रखना भी आवश्यक है कि नालंदा महाविहार की स्थापना हिन्दू सम्राट कुमारगुप्त ने की थी किसी बौद्ध ने नहीं! उसके बाद उसे 200 गाँवों का दान देकर आय का स्थिर स्रोत सम्राट हर्षवर्धन ने बनाया जो सर्वधर्मसमभाव रखते थे। शिक्षा का माध्यम संस्कृत था जिसे सीखना अनिवार्य था। विहार में बौद्ध वाङ्मय के साथ-साथ तर्कशास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, खगोल और अथर्ववेद भी पढ़ाए जाते थे। वेद-वेदांगों, शास्त्रों, पुराणों और साहित्यिक कृतियों की अधिकतर दुर्लभ पांडुलिपियाँ इसके रत्नोदधि पुस्तकालय में थीं। महाविहार में बुद्ध के साथ-साथ विष्णु, सूर्यदेव और शिव के मंदिर भी थे। अपने अंतिम दिनों में यह जयादित्य नाम के एक ब्राह्मण के दान पर चलता था और दान देने वालों में अधिकतर हिन्दू थे। बौद्ध और हिन्दू आचार्यों के बीच मुखर शास्त्रार्थों के विवरण तो ख़ूब मिलते हैं, परंतु आपसी हिंसा और आगज़नी का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। इन तथ्यों के आलोक में हिन्दू-बौद्ध दुश्मनी का इतिहास गढ़ना कितना सही है यह आप सोचिए।

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2 thoughts on “इतिहास में ज़हर घोलने का षड्यंत्र

  1. इतिहास को भूलने वालों को इतिहास मिटा देता है, इसलिए युवा पीढ़ी को इतिहास जानना ही चाहिए।

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