मदर ऑफ डेमोक्रेसी को सार्थकता देता संविधान
डॉ. बालू दान बारहठ
मदर ऑफ डेमोक्रेसी को सार्थकता देता संविधान
भारत के संविधान ने 75 वर्ष की अपनी यात्रा पूर्ण कर ली। यह यात्रा ऐतिहासिक तथा गौरवपूर्ण होने के साथ ही चुनौतीपूर्ण भी रही है। 800 वर्षों से अधिक की राजनीतिक दासता, भीषण आर्थिक शोषण, आस्था पद्धति के आधार पर रक्तपात, विभाजन की विभीषिका के साथ इस यात्रा को शुरू करना काफी मुश्किल भरा था। लेकिन हमने कर दिखाया और सफलतापूर्वक 75 वर्ष पूर्ण भी कर लिए। ये 75 वर्ष जहां एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका आदि के राष्ट्रों हेतु प्रेरणादायक थे, वहीं दूसरी तरफ यूरो -अमेरिकी विद्वानों के लिए आठवां आश्चर्य। प्रत्येक चुनाव के पश्चात, किसी प्रधानमंत्री की हत्या अथवा मृत्यु के साथ, अकाल व बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के साथ या चीन तथा पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के पश्चात, पंजाब व पूर्वोत्तर के कतिपय हिंसक आंदोलन के दौरान या माओवादी हिंसा के समय इन यूरो अमेरिकी विद्वानों ने भारत के लोकतंत्र तथा संविधान की समाप्ति की भविष्यवाणियां कीं। परन्तु हर बार वे गलत साबित हुए।
देखा जाए तो भारतीय संविधान ने केवल राजनीतिक लोकतंत्र ही नहीं अपितु सामाजिक तथा आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर स्वयं को मदर ऑफ डेमोक्रेसी के रूप में सिद्ध किया है। मतदान और गणतंत्र का होना स्वस्थ लोकतंत्र का मापक है। लेकिन लोकतंत्र कोई जड़ वस्तु नहीं होता है। यह केवल वोट का अधिकार भी नहीं है और न ही निर्वाचित होने की गारंटी मात्र। लोकतंत्र महज एक व्यक्ति, एक मत भी नहीं है और न ही केवल स्वतंत्र नियामक निकाय या अनेक राजनीतिक दलों या दक्षिण पंथ, वामपंथ आदि विचार का होना ही लोकतंत्र है। नियमित व निष्पक्ष चुनाव या विधि का शासन होना भी लोकतंत्र नहीं है। दरअसल, लोकतंत्र एक जीवंत गतिविधि है, समाज में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। अपने गहन व सच्चे अर्थ में तो यह जीवन जीने की पद्धति है। भारत की जीवन दृष्टि लोकतांत्रिक है। जब भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी के रूप में संबोधित किया जाता है, तब इसका अर्थ केवल लोकतंत्र की विशालता ही नहीं होता अपितु इसका निहितार्थ यह है कि भारत का ज्ञात इतिहास सदा लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित रहा है। यहां का ज्ञान मानव कल्याण और परहित में, ऊर्जा सृष्टि पालन में, संपदा सर्वहित में, भक्ति विश्व कल्याण में और शक्ति निर्बल के सरंक्षण में लगी है। यहां का शासन पालक के रूप में तथा प्रजा कर्तव्य केंद्रित रही है। यहां अल्पसंख्यकों के प्रति उदारता और निर्बल के प्रति करुणा का भाव रहा है। यहां की प्रार्थना में सभी के सुख व सभी के हित का बोध रहा है। यहां का अध्यात्म विज्ञान का विरोधी नहीं रहा, यहां किसी कोपरनिकस या गेलीलियो को अपनी सत्यता सिद्धि के लिए जिंदा नहीं जलना पड़ा। यहां का धर्म किसी को एक गाइड बुक से डराता और धमकाता नहीं, धर्मच्युत नहीं करता अपितु आध्यात्मिक लोकतंत्र की स्थापना करता है। यहां विविधता में एकता स्थापित करना आदर्श रहा है, न कि एकरूपता को थोपना। वास्तव में संविधान भारतीय समाज की इस चिति को स्थापित करने का ही कार्य कर रहा है।
भारत को देखें तो सिद्ध ही है कि इसकी चिति और संस्कृति सदा लोकतांत्रिक रही है। हमारी राजव्यवस्था में आरंभ से ही लोकतांत्रिक और गणतंत्रीय तत्व विद्यमान रहे हैं। हमारे यहां राजतंत्र रहा, लेकिन वह निरकुंश कभी नहीं रहा। आज से 2500 वर्ष पूर्व भी हमारे यहां कपिलवस्तु, अल्कप्पा, केसपुता, सुस्मागिरी, रामग्राम, पावा, कुशीनगर, वैदेही, वैशाली आदि गणराज्य रहे हैं। प्राचीन साहित्य में बार बार ग्रामणी पद का वर्णन सिद्ध करता है कि प्राचीन भारत में गांव आत्मनिर्भर व स्वशासन की इकाई थे। 800 वर्षों की लंबी राजनीतिक दासता के पश्चात जब आत्मनिर्णय का अवसर मिला, तब स्वाधीन भारत के संविधान ने इन मूल्यों को मजबूती देने का ही कार्य किया है। भारत में पहले आम चुनावों में लगभग 26 लाख महिलाओं के नाम केवल इसलिए मतदाता सूची में शामिल होने से रह गए थे कि उन्होंने अपने पति का नाम बताने से मना कर दिया था। उनका मानना था कि ऐसा करने से पति की आयु कम हो जाएगी। आज देश में लगभग चालीस लाख महिलाएं विभिन्न पदों पर निर्वाचित हैं। यह संख्या और महिलाओं की कार्यप्रणाली चकित करने वाली है। यूरोप जो स्वयं को लोकतंत्र का घर कहता है, इतनी सहजता से महिला सहभागिता को स्वीकार कर पाया?
संविधान ने प्रतिकूल परिस्थिति में न केवल राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की अपितु नीति निदेशक तत्वों के माध्यम से आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करना भी सुनिश्चित किया। ये निदेशक तत्व सरकारों के समक्ष आदर्श के रूप में हैं, जिनको प्राप्त करने के प्रयास निरंतर हो रहे हैं। समाज के वंचित वर्गों, महिलाओं, अवयस्कों, अनुसूचित जाति, जनजाति, श्रमिकों, किसानों आदि के कल्याण की अनेक योजनाएं निदेशक तत्वों को ही स्थापित कर रही हैं।
इस तरह राजनीतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और इंटेलेक्चुअल डेमोक्रेसी की स्थापना के साथ भारत के संविधान ने सामाजिक लोकतंत्र को स्थापित करने का असंभव सा लगने वाला कार्य भी पूर्ण किया है। उज्जवल व उदार दार्शनिक परम्पराओं के होते हुए भी कतिपय ऐतिहासिक कारणों से भारतीय समाज श्रेणीबद्ध हो गया था, जिसके कारण उसमें अस्पृश्यता जैसी बुराइयां घर कर गई थीं। संविधान ने इसकी समाप्ति को सुनिश्चित कर समरस समाज की स्थापना को संभव बनाया है। मौलिक अधिकारों के अंतर्गत अनुच्छेद 14 जहां विधिक समानता की स्थापना करता है, वहीं अनुच्छेद 15 सार्वजनिक जीवन में सामाजिक आधार पर भेदभाव का उन्मूलन करता है। नियोक्ता के रूप में राज्य बिना किसी भेदभाव के अवसर की समानता प्रदान करे, इसे भी संविधान ने सुनिश्चित किया है। संविधान ने केवल बाधाओं की अनुपस्थिति को ही स्थापित नहीं किया है अपितु आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्यवाही को भी सुनिश्चित किया है। छुआछूत जैसी बुराई को संविधान ने दंडनीय अपराध घोषित किया, जिसे समाज ने भी सकारात्मक रूप से स्वीकार किया। यदि अस्पृश्यता अपराध नहीं है तो दुनिया में कुछ भी अपराध नहीं है, इस भाव के साथ समाज में अस्पृश्यता को समाप्त करने के प्रयास आरम्भ हुए, जिसके सुखद परिणाम आज समरस समाज के रूप में दिख रहे हैं।
देखा जाए तो मूर्तरूप में संविधान ने हमें अनंत अवसर प्रदान किए हैं, परंतु उसकी कार्यरूप में परिणति का स्तर क्या है? हम स्वाधीन हो गए हैं, लेकिन क्या स्वतंत्र हो पाए? हमारी कार्य संस्कृति में, हमारे तंत्र में स्व का बोध कितना विकसित हो पाया है? औपनिवेशिक गुलामी के भौतिक, वैचारिक तथा मानसिक प्रतीकों से हम मुक्त हो पाए हैं?हमारी विचार व निर्णय प्रक्रिया में आज भी औपनिवेशिक पृष्ठभूमि अवरोधक का कार्य तो नहीं कर रही है? समाज और राजनीतिक प्रणाली के मध्य अन्तःक्रिया के हमारे उपकरण लोकतांत्रिक हैं? हम अपनी राजनीतिक प्रणाली को कितना आधुनिक कर पाए हैं अथवा हमारी राजनीतिक संस्कृति कितनी विकसित हुई है? आज इन प्रश्नों को संबोधित करना आवश्यक है। यह संभव है कि अनेक ऐसी कसौटियां होंगी, जिन पर हम खरे न उतर रहे हों, लेकिन यदि हमारी मोटरगाड़ी खराब हो जाए तो समाधान उसे ठीक करना है न कि बैलगाड़ी पर बैठना। उसी तरह, हमारी संवैधानिक व्यवस्था में यदि कुछ कमियां रह गई हैं, तो समाधान उसे ठीक करना ही है न कि उसे चुनौती देना। वैसे भी,जैसा डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था, संविधान चाहे कितना भी अच्छा या बुरा क्यों न हो, अंततः यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे लागू करने वाले लोग कैसे हैं और नागरिकों में राष्ट्रीयता का भाव कैसा है? मुझे पूर्ण विश्वास है कि संविधान की 100 वर्ष की यात्रा पूर्ण करने तक हम स्वाधीनता से स्वतंत्रता की अपनी यात्रा को पूर्ण कर लेंगे तथा एक विकसित, आधुनिक, आत्मनिर्भर व ‘स्व’ केंद्रित भारत का निर्माण हो चुका होगा।