कन्वर्जन पर अंकुश आवश्यक

कन्वर्जन पर अंकुश आवश्यक

डॉ. ऋतु सारस्वत

कन्वर्जन पर अंकुश आवश्यककन्वर्जन पर अंकुश आवश्यक

बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रिलीजियस कन्वर्जन को लेकर कठोर टिप्पणी की। न्यायालय ने कहा, ‘यदि कन्वर्जन की प्रवृत्ति जारी रही तो एक दिन भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या ही अल्पसंख्यक हो जाएगी।’ न्यायालय ने यह भी कहा कि रिलीजियस प्रचार-प्रसार की तो छूट है, लेकिन कन्वर्जन की अनुमति नहीं है। यह पहला अवसर नहीं है कि कन्वर्जन के संबंध में न्यायालय ने ऐसी टिप्पणी की हो। इससे पूर्व नवंबर 2022 में भी उच्चतम अदालत की दो सदस्यीय खंडपीठ ने जबरन कन्वर्जन के संबंध में कहा था, ‘यह अंततः राष्ट्र की सुरक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता तथा नागरिकों के अंतरात्मा को प्रभावित कर सकता है।’ देश के विभिन्न न्यायालयों ने जबरन कन्वर्जन को लेकर चिंता प्रकट की है। इसके पीछे तथ्यात्मक एवं ठोस कारण हैं।

यह जानना आवश्यक हो जाता है कि किसी भी व्यक्ति के लिए उसका ‘पंथ’ जिसे संवैधानिक एवं न्यायिक भाषा में ‘धर्म’ भी कहा जाता है, आखिर क्यों इतना महत्वपूर्ण है। विश्व भर में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत में है, जो किसी न किसी पंथ के अनुयायी हैं और अपने पंथ विशेष में न केवल आस्था रखते हैं, बल्कि उसे ‘जीवन निर्देशक’ के रूप में स्वीकार करके अपनी जीवन प्रणाली को उसकी मान्यताओं एवं परंपराओं के अनुरूप संचालित करते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत ही नहीं अधिकांश देशों में ‘पंथ’ मात्र आस्था का विषय नहीं, अपितु व्यक्ति की पहचान का द्योतक भी है और इस पहचान को परिवर्तित करने का निर्णय यदि एकाएक हो तो कई प्रश्नों का खड़ा होना स्वाभाविक है। कन्वर्जन पर कई मनोवैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं, जो मुख्य रूप से इस तथ्य पर केंद्रित हैं कि कैसे एक व्यक्ति के कन्वर्जन से न केवल वह व्यक्ति, अपितु पूरा समाज प्रभावित होता है। ‘द आक्सफोर्ड हैंडबुक आफ रिलीजियस कन्वर्जन’ पुस्तक कन्वर्जन की गतिशीलता की व्यापक खोज प्रस्तुत करती है। इसमें चर्चा की गई है कि कैसे कन्वर्जन सदियों से संस्कृतियों और व्यक्तियों को प्रभावित करता आया है। पुस्तक के संपादक लुइस आर. रेबी लिखते हैं कि कन्वर्जन का प्रभाव केवल व्यक्तिगत परिवर्तन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना की भी प्रभावित करता है। रेंबो ने कन्वर्जन के संबंध में कहा है कि इसके अनेक कारणों के बीच सबसे महत्वपूर्ण कारक ‘संकटावस्था’ है। चाहे वह राजनीतिक हो, सांस्कृतिक या फिर मनोवैज्ञानिक।

कन्वर्जन शायद ही कभी केवल धार्मिक विश्वासों को प्राथमिक लक्ष्य के रूप में बदलने तक सीमित रहा हो। सत्य तो यह है कि कन्वर्जन प्रायः ‘पंथ’ विशेष द्वारा अपनी जनसांख्यिकी को बढ़ाकर ‘प्रभुत्व’ स्थापित करने की इच्छा से कराया जाता है, ताकि राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर वह दबाव समूह के रूप में कार्य कर सके और अपने मनोनुकूल व्यवस्थाओं को प्रभावित करे। दुर्भाग्य की बात यह है कि इसके शिकार मुख्यतः हाशिए पर खड़े वे लोग होते हैं, जो सामाजिक भेदभाव का दंश झेल चुके हैं अथवा आर्थिक रूप से कमजोर हैं। आर्थिक प्रलोभन एवं सामाजिक उत्थान के मकड़जाल के रूप में कन्वर्जन की रणनीति स्वतंत्रता पूर्व से ही भारत के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी थी, जिसने भारत की जनसांख्यिकी को बहुत सीमा तक प्रभावित भी किया। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की रिपोर्ट ‘शेयर आफ रिलीजियस माइनारिटी एक्रॉस कंट्री एनालिसिस’ बताती है कि भारत में हिन्दुओं की जनसंख्या में 7.82 प्रतिशत की गिरावट आई है। वहीं मुस्लिम जनसंख्या का हिस्सा 9.84 प्रतिशत से बढ़कर 14.95 प्रतिशत तथा ईसाई जनसंख्या का 2.24 से बढ़कर 2.36 प्रतिशत हुआ है। आंकड़े बहुत कुछ कह रहे हैं। ‘साम दाम दंड भेद’ की रणनीति अपनाकर कन्वर्जन की मानसिकता पर अंकुश लगाने के लिए 1936 में रायगढ़ रियासत द्वारा ‘रायगढ़ मतांतरण अधिनियम’ पारित किया गया। ऐसे ही कानून उदयपुर, कोटा और जोधपुर आदि द्वारा भी बनाए गए। बड़े पैमाने पर कन्वर्जन की घटनाओं की देखते हुए मध्य प्रदेश ने 1954 में एक समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट ने उजागर किया कि निर्धन लोगों को बरगलाकर कन्वर्जन कराया जा रहा है। परिणामस्वरूप, स्वतंत्र भारत में पहला कन्वर्जन विरोधी कानून मध्य प्रदेश राज्य द्वारा पारित किया गया, जिसे ‘मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1967’ के रूप में जाना जाता है। इस अधिनियम में बल, धोखाधड़ी या प्रलोभन द्वारा कन्वर्जन को दंडनीय अपराध माना गया था। इसके बाद ओडिशा ने ‘उड़ीसा धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1968’ पारित किया। इन दोनों अधिनियमों को उनके संबंधित उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती भी दी गई थी। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने ‘रेव स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश राज्य और अन्य’ (1974) मामले में अधिनियम की वैधता को कायम रखा। उच्च न्यायालय ने माना कि ‘बड़े पैमाने पर कन्वर्जन में सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की क्षमता है…।’ उच्च न्यायालय के निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। शीर्ष न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के विचारों से सहमति प्रकट की और कहा कि ‘अनुच्छेद 25 (1) के अंतर्गत किसी के मत का प्रचार का अधिकार किसी व्यक्ति को अपने मजहब में परिवर्तित करने का मौलिक अधिकार नहीं देता है।’ मतांतरण विरोधी कानून की संवैधानिक वैधता से संबंधित एक और ऐतिहासिक मामला ‘हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधि., 2006’ है। यह अधिनियम अपने पूर्ववर्तियों से एक कदम आगे गया। इसमें जोड़ी गई धारा-4 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कन्वर्जन से 30 दिन पहले जिला मजिस्ट्रेट को सूचना देनी होगी, जो कन्वर्जन की सत्यता की जांच करेगा।

न्यायालय की टिप्पणियों, उनके निर्णयों और कानूनी उठापटक से इतर हमें उन सामाजिक भूमिकाओं को भी जांचना होगा, जिनके चलते आज भी छल-कपट व लोभ लालच से कन्वर्जन हो रहा है। उन खामियों पर भी खुले रूप से चर्चा की जाए, जो हाशिए पर खड़े व्यक्तियों को कन्वर्जन की और धकेलती हैं। यह भी स्मरण रहे कि स्वामी विवेकानंद ने हिन्दुओं के योजनाबद्ध कन्वर्जन पर स्पष्ट रूप से चेतावनी दी थी कि ‘एक हिन्दू का कन्वर्जन केवल एक हिन्दू का कम होना नहीं, बल्कि एक शत्रु का बढ़ना है।’

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