धर्मयोद्धा बिरसा मुंडा
मनमोहन पुरोहित
भगवान बिरसा मुंडा का नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेकों बलिदानियों के साथ स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के उलीहातु गांव में हुआ था। वे एक ऐसे महानायक थे, जिन्होंने जीवन के छोटे से कालखंड में जनजाति समाज में जागरूकता, कन्वर्जन के विरुद्ध संघर्ष और सामाजिक सुधार की ऐसी ज्वाला प्रज्वलित की, जो आज भी युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है। भारत का इतिहास उन वीर योद्धाओं और समाज सुधारकों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपने जीवन को समाज और देश की सेवा में समर्पित कर दिया। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व थे भगवान बिरसा मुंडा, जिन्हें उनके अनुयायी भगवान का दर्जा देते हैं। उनका जीवन संघर्ष, साहस और सेवा की उत्कृष्ट उदाहरण है। उनके योगदान और बलिदान को याद करते हुए, हिन्दू समाज आज भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
बिरसा मुंडा का प्रारंभिक जीवन बहुत ही साधारण था। वे बचपन से ही आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा जर्मन मिशन स्कूल से प्रारम्भ की। मिशनरियों के संपर्क में आने के बाद उन्होंने अंग्रेजी और हिन्दी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया, जिससे उनका बौद्धिक विकास हुआ। बिरसा का संपूर्ण जीवन देवतुल्य जीवन प्रतीत होता है। मात्र 25 वर्ष की आयु में बिरसा ने उन जनपदों में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लहर पैदा की जो संसाधनविहीनता और निर्धनता की विकट परिस्थितियों में थे। आज से लगभग 125-30 वर्ष पहले भगवान बिरसा मुंडा ने धर्म संचेतना, समाज संचेतना, स्त्री संचेतना, उपनिवेशवाद का विरोध, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध आदि विषयों पर बहुत ही चिंतन, मनन के साथ और अत्यंत विवेकपूर्ण दृष्टि से अपने विचार व्यक्त किये।
कन्वर्जन और पुनः हिन्दू होने की घटना
मिशनरियों के स्कूल में प्रवेश से पहले बिरसा के परिवार का ईसाइयत में कन्वर्जन किया गया था, इसके बिना स्कूल में प्रवेश नहीं था। किन्तु उन्होंने ने जल्द ही यह अनुभव किया कि मिशनरियों का उद्देश्य उनके समुदाय को कन्वर्जन के माध्यम से अपने अधीन करना है। बिरसा ने ईसाई पंथ का त्याग करके घरवापसी की और ‘बिरसा भगत’ के रूप में विख्यात हुए। उन्होंने कन्वर्जन के विरुद्ध सशक्त आवाज उठाई और अपने समुदाय को पुनः हिन्दू धर्म की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया। उनके इस कार्य से अंग्रेज सरकार क्रुद्ध थी।
शुद्धिकरण और समाज सुधार
बिरसा मुंडा ने न केवल कन्वर्जन का विरोध किया, बल्कि समाज सुधार के लिए भी अनेक कार्य किए। उन्होंने शुद्धिकरण अभियान चलाया, जिसमें उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को उनकी मूल संस्कृति और घरवापसी के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि जनजाति समाज को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक बुराइयों जैसे शराब सेवन, अंधविश्वास, और आपसी कलह के विरुद्ध भी अभियान चलाया और एक स्वस्थ समाज की नींव रखी।
भगवान बिरसा मुंडा का धर्म और संस्कृति के प्रति दृष्टिकोण
बिरसा मुंडा ने हिन्दू धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवित करने का भरसक प्रयास किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को पारंपरिक रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करने की प्रेरणा दी। उन्होंने “बिरसाइत पंथ” की स्थापना की, जो मूलतः हिन्दू धर्म की जनजातीय संस्कृति पर आधारित था। इसका मुख्य उद्देश्य था अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बाहरी प्रभावों से बचाए रखना। बिरसा मुंडा के अंदर जो परंपरा बोध है, वह बहुत गहरा है। एक जगह अपनी माँ से संवाद में बिरसा कहते हैं- “माँ जंगल में आग है। एक दहक है। एक धुँआ है। एक उदासी है। एक मौन है। एक वेदना है। सर्वत्र प्रताड़ना है और कोई भी मुंडा इनके विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार नहीं है। यह बिरसा चाहता है कि तुम आशीर्वाद दो और प्रताड़नाओं के इस तंत्र के विरुद्ध मैं खड़ा हो सकूँ।” यह एक बालक बिरसा मुंडा की आत्माभिव्यक्ति है, जिसे कालांतर में बिरसाइत ने अपने गीतों में बाँधा है।
बिरसा मुंडा का संघर्ष
बिरसा मुंडा का जीवन संघर्ष का पर्याय था। ब्रिटिश शासन के दौरान, स्थानीय जनजातियों को शोषण, उत्पीड़न और भूमि हरण का सामना करना पड़ रहा था। बिरसा ने इन अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई और अपने समुदाय को संगठित किया। उन्होंने 1899-1900 में ‘उलगुलान’ (महान विद्रोह) का नेतृत्व किया, जो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण विद्रोह था। इस विद्रोह ने न केवल ब्रिटिश शासन को चुनौती दी, जो जनजाति समाज के अधिकारों और सम्मान की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हुआ।
समाज सुधार के काम
उन्होंने महिलाओं की स्थिति सुधारने, शिक्षा के प्रसार और जनजाति समाज के अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन किए। उनके प्रयासों से जनजाति समाज में एक नई जागरूकता और सशक्तिकरण की लहर दौड़ी। उन्होंने लोगों को संगठित किया और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उनका आंदोलन ‘उलगुलान’ (महान विद्रोह) के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसने ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया।
आज के युवाओं के लिए सीख
बिरसा मुंडा का जीवन और संघर्ष आज के युवाओं के लिए प्रेरक है। बिरसा मुंडा ने दिखाया कि अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है। आज के युवाओं को भी अपनी जड़ों और परंपराओं के प्रति सम्मान और गर्व का भाव रखना चाहिए।
साहस और संघर्ष
बिरसा मुंडा का जीवन साहस और संघर्ष का प्रतीक है। युवाओं को उनसे सीखना चाहिए कि कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों में भी हार नहीं माननी है और अपने अधिकारों और मान्यताओं के लिए संघर्ष करना है। बिरसा मुंडा ने सामाजिक सुधार के महत्व को भी समझा। उनसे सीख लेते हुए युवाओं को भी समाज की बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास करना चाहिए।
शिक्षा का महत्व
बिरसा ने शिक्षा को महत्वपूर्ण माना और अपने समुदाय के लोगों को शिक्षित करने के प्रयास किए। आज के युवाओं को भी शिक्षा के महत्व को समझना चाहिए और स्वयं को और समाज को सशक्त बनाने के लिए शिक्षा का उपयोग करना चाहिए।
संगठन और एकता
बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय को संगठित किया और एकता की शक्ति को समझाया। आज के युवाओं को भी अपने समुदाय और समाज में एकता बनाए रखने के लिए प्रयास करना चाहिए और संगठन की शक्ति को समझना चाहिए। भगवान बिरसा मुंडा का जीवन और उनके कार्य हमें यह सिखाते हैं कि एक अकेला व्यक्ति भी समाज में बड़े बदलाव ला सकता है, बशर्ते उसमें साहस, संघर्ष और सच्ची निष्ठा हो। उनका जीवन हमें सदैव याद दिलाता रहेगा कि सच्चे धर्मयोद्धा और समाज सुधारक का मार्ग कभी आसान नहीं होता, लेकिन उसका प्रभाव अत्यंत व्यापक और स्थायी होता है।