महाराणा प्रताप : जिन्होंने राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये पूरा जीवन वार दिया
19 जनवरी 1597 महाराणा प्रताप का निधन
रमेश शर्मा
महाराणा प्रताप : जिन्होंने राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये पूरा जीवन वार दिया
भारतीय इतिहास के एक प्रकाशमान नक्षत्र हैं चित्तौड़ के महाराणा प्रताप। जो न किसी प्रलोभन से झुके और न किसी बड़े आक्रमण से भयभीत हुए। उन्होंने स्वाधीनता और स्वाभिमान के लिये जीवन भर संघर्ष किया और हर बार अकबर को पराजित किया।
मुगल सेना ने चित्तौड़ पर चार बड़े आक्रमण किये। चारों में महाराणा ही जीते। राणाजी के जीवनकाल में अकबर चित्तौड़ पर कब्जा नहीं कर पाया। अकबर ने चार संदेश वाहक भी भेजे, भारी प्रलोभन के साथ। इनमें तीन राजा टोडरमल, बीरबल और राजा मानसिंह थे। पर कोई भी प्रलोभन उन्हें न डिगा सका और न किसी धमकी से वे भयभीत हुए।
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को हुआ था और राज्याभिषेक 28 फरवरी 1572 को चित्तौड़ में। उनके जन्म स्थान के बारे में दो साहित्यकारों के अलग-अलग मत हैं । जेम्स टॉड ने राणा जी का जन्म स्थान कुम्भलगढ किला माना है जबकि इतिहासकार विजय नाहर ने पाली के राजमहल को। पाली राजमहल राणा जी का ननिहाल था। उनकी माता जयवंति बाई पाली महाराज सोनगरा की बेटी थीं।
इतिहासकार विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह ने युद्ध की नयी पद्धति “छापामार युद्ध प्रणाली” आरंभ की थी। इसका कारण यह था कि भारतीय राजाओं के पास सैनिक कम थे। लगातार आक्रमणों से शक्ति क्षीण हो गई थी। जबकि हमलावरों के पास तोपखाने भी थे। इसलिये छापामार युद्ध शैली विकसित हुई। इसका उपयोग करके ही महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह एवं छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगलों पर सफलता प्राप्त की।
इतिहासकार विजय नाहर ने दावा किया है कि महाराणा प्रताप मुग़ल सम्राट अकबर से कभी नहीं हारे। उलटे मुगल सेनापतियों को धूल चटाई। हल्दीघाटी के युद्ध में भी महाराणा प्रताप ही जीते और अकबर पराजित हुआ। हल्दीघाटी में मुगल सेना के पराजित होने के बाद अकबर स्वयं वर्ष 1576 में जून माह से दिसम्बर तक तीन बार विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण करने आया, परंतु अकबर और उसकी सेना महाराणा को खोज भी नहीं पायी। महाराणा के जाल में फँसकर मुगल सेना को पानी भोजन के भारी अभाव का सामना करना पड़ा। थक हारकर अकबर बांसवाड़ा होकर मालवा चला गया। पूरे सात माह मेवाड़ में रहने के बाद भी जब महाराणा प्रताप पर विजय न पा सका तो हाथ मलता हुआ अफगानिस्तान की ओर चला गया। मुगलों की ये सेनायें तीन बार शाहबाज खान के नेतृत्व में चित्तौड़ आई थीं। पर असफलता ही हाथ लगी। उसके बाद अब्दुल रहीम खान-खाना के नेतृत्व में सेना भेजी गई। यह सेना भी भारी नुकसान उठाकर लौटी। 9 वर्ष तक निरन्तर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा के विरुद्ध चित्तौड़ पर आक्रमण करता रहा। नुकसान उठाता रहा। अन्त में थक हार कर उसने मेवाड़ की और देखना ही छोड़ दिया। यह महाराणा प्रताप का ही भय था कि अकबर अपनी राजधानी लाहौर ले गया। महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद अकबर पुनः अपनी राजधानी दिल्ली ले आया।
सम्राट अकबर किसी भी प्रकार राणा प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था। इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए। जिनमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के पास गये। 1573 में राजा मानसिंह, राजा भगवानदास तथा राजा टोडरमल को प्रताप के पास समझाने के लिए भेजा। लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया। इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर दिया। इसी के बाद हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
इतिहासकार विजय नाहर ने दावा किया है कि ऐसा कुअवसर प्रताप के जीवन में कभी नहीं आया कि उन्हें अकबर को सन्धि के लिए पत्र लिखना पड़ा हो। इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप ने सुंगा पहाड़ पर एक बावड़ी का निर्माण करवाया और सुन्दर बगीचा लगवाया। महाराणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावल, 15000 अश्वरोही, 100 हाथी, 20000 पैदल और 100 वाजित्र थे। इतनी बड़ी सेना को खाद्य सहित सभी व्यवस्थाएँ महाराणा प्रताप करते थे। इतिहासकार का दावा है कि यह कुप्रचार अकबर की ओर से इतिहासकारों ने लिखा होगा कि महाराणा ने घास की रोटियाँ खाईं और संधि प्रस्ताव भेजा। सोचने वाली बात है यदि प्रताप ने घास की रोटी खाते हुए दिन बिताए होते तो फिर ऐसे निर्माण कैसे हो सकते थे, जो उन्होंने अपने जीवन में किये। यदि संधि प्रस्ताव भेजते तो चित्तौड़ पर मुगलों का झंडा होता जो महाराणा जी के जीवन में कभी न फहराया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में चित्तौड़ के किले की मरम्मत करवायी। सम्पूर्ण मेवाड़ पर सुशासन स्थापित करते हुए उन्नत जीवन जिया।
यदि राणा जी अकबर से पराजित होते या अभाव होता तो यह विकास और समृद्धि संभव ही नहीं थे। अंततः 19 जनवरी 1597 में स्वाभिमान के साथ उन्होंने देह त्यागी।