दीपोत्सव
नीलू शेखावत
दीपोत्सव
दीपावली शारदीय विषुव, वैदिक दक्षिणायन और शरद ऋतु का सबसे बड़ा पर्व है। पूर्वकाल में शरदकाल में फसल की कटाई के पश्चात नवधान्येष्टि हुआ करती थी। यह अन्नोत्सव उसी परंपरा का क्रमिक निर्वाह है, यद्यपि इसका आरंभ शरत् पूर्णिमा से ही हो जाता है, जब हरी-हरी फसलें सुनहरी होकर वर्ष भर की चिंता मिटा देती हैं। किंतु लाम में उत्सव नहीं मनते। जब अनाज घर पहुंचेगा तब निश्चिंतता होगी और निश्चिंतता का नाम ही तो उत्सव है। घर और पेट भरा हो तो काली रात भी सुहावनी लगती है।
अंधेरे को उजाले से भरना मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धि है, परिणामस्वरूप हमने दीप जलाए और कौमुदी से भी बड़ा उत्सव दीपोत्सव कहलाया। अमावस्या की काली रात और दीपों की जगमग अवलि! दीपक प्रकाश, जीवन और ज्ञान का प्रतीक हैं। दीपक मर्त्य में अमर्त्य का भाव है।
‘यो दीप ब्रह्मस्वरूपस्त्वम्” इसे हम ब्रह्म स्वरूप ही मानते हैं। दीपक की उत्पत्ति सूर्य से मानी जाती है, जो अग्नि रूप है। अग्नि अंधकार को मिटाता है, प्रकाश का आह्वान करता है, वह चिर युवा और प्राचीन पुरोहित है। इसलिए ऋषियों ने बार-बार अग्नि का स्मरण किया।
‘ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्’ प्रकाश मानवता के लिए सदैव काम्य रहा, तभी उषा से कहा गया- “हे उषा की पहली किरण! तुम अंधकार को ऋण की तरह दूर कर दो।” किंतु वह अंधेरी रात को भी अपने लिए उतनी ही कल्याणकारी मानकर पूजता है।
ऋषियों ने प्रकृति को माता कहा है, वह इसलिए कि माँ की दृष्टि में साम्य भाव है। वह जंगल और बीहड़ का, सर्दी और गर्मी का, अंधेरे और उजाले का समान रूप से पोषण करती है। प्रकृति पूजक भारतीयों ने माँ का अनुकरण किया और सम भाव से जीवन की हर अनुकूलता व प्रतिकूलता में ईश्वरीय अनुकंपा देखी। शुक्ल और कृष्ण पक्ष इसी जीवन दर्शन का प्रतिबिंब हैं।
ऋग्वेद में उषा सूक्त है तो रात्रि सूक्त भी है।
उपा गा इवाकारं वृनीश्व दुहितार्दिवः, रात्रि स्तोमम् न जिग्युशे
“मैं यह गीत तुम्हारे पास ‘किरण-गाय’ की तरह लाया हूँ (अर्थात् समर्पित मन से)। हे देवपुत्री रात्रि, इस गीत को विजेता की स्तुति के समान स्वीकार करो।”
दीपावली के दीप उसी गहन रात्रि देवी को समर्पित हैं। दीपावली को दीपदान का विशेष महत्त्व है। कहते हैं- उसी पुण्य से यक्षराज कुबेर को धनपति होने का सौभाग्य मिला। इसी से इसे यक्ष-पर्व के रूप में भी उल्लेखित किया गया है। इस दिन इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा रघु के भय से कुबेर द्वारा धन-वर्षा का प्रसंग भी मिलता है। धीरे-धीरे मानव की जीवटता के अनेक कथा-प्रसंग इनमें जुड़ते गए और एक दिन मानवता के प्रकर्ष पर पहुंचे पुरुषोत्तम श्रीराम के विजयी विग्रह में उन सब कथाओं का अंतर्भाव हुआ और आज यह पर्व उनके गृहागमन और राज्याभिषेक के साथ ही लक्ष्मी प्राप्ति पर्व के रूप में मनाया जाता हैं।
यह पाँच दिवस का पर्व पुंज है, जहाँ धन-त्रयोदशी, रूप-चतुर्दशी, अमावस्या, गोवर्धन और यम-द्वितीया के माध्यम से आरोग्य, रूप, लक्ष्मी, समृद्धि और सद्भाव की कामना की जाती है।
इस पर्व में स्वच्छता का विशेष महत्त्व है। धनतेरस से पूर्व ही घरों में साफ सफाई कर ली जाती है। कचरा फेंकते समय बोला जाता है-
दळदर दळदर आगो जा
लिच्छमी लिच्छमी घर में आ
कच्चे घरों में लिपाई-पुताई की जाती है। गेरू और पांडू से सुंदर मांडने मांडे जाते हैं। मांडनों में भी पगल्यों का विशेष महत्त्व है। लक्ष्मी के पगल्ये के साथ पशुधन के खुरों के अलंकृत निशान भी मांडे जाते हैं क्योंकि पशु हमारी समृद्धि के सूचक हैं। यह परंपरा भगवान श्री कृष्ण के गौचारण से भी जुड़ी हुई है। इसी कारण दीपावली के अगले दिन गोवर्धन की पूजा का भी विधान है। नये अन्न का प्रथम भोग ठाकुर जी को लगाने के बाद ही ग्रहण किया जाता है। अन्नकूट त्योहार वस्तुत: श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पूजा की आवृत्ति है।
दीपावली से पूर्व रूप-चतुर्दशी, जिसे स्थानीय भाषा में ‘छोटी दीवाली’ भी कहा जाता है- स्त्रियों के लिए विशेष महत्व रखती है। गृहलक्ष्मियाँ सोलह शृंगार से सुसज्जित हो देहरी पर दीपक सजाती हैं।
‘कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा’-कीर्ति’
श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा जैसे गुणों से सुसज्जित स्त्रियों की आभा दीपक से द्विगुणित हो दमक उठती है। प्रकाश सबका है, दीपावली सबकी है, सभी को प्रकाश पर्व की अनंत शुभकामनाएं।