पाकिस्तान : सेना, चुनाव और लोकतंत्र

पाकिस्तान : सेना, चुनाव और लोकतंत्र

बलबीर पुंज

पाकिस्तान : सेना, चुनाव और लोकतंत्रपाकिस्तान : सेना, चुनाव और लोकतंत्र

आज पाकिस्तान में आम चुनाव हैं। इसके परिणाम से सब अवगत हैं। मतदाता कुछ भी कहे, दो बातें स्पष्ट हैं। पहला— पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के नेतृत्व में नई सरकार बनेगी। दूसरा— सत्ता की असली चाबी पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. के पास ही रहेगी। इससे पाकिस्तान में ‘लोकतंत्र’ नामक नाटक के एक और पर्दे का पटाक्षेप हो जाएगा। यह तय है कि नवाज चौथी बार प्रधानमंत्री के रूप में पाकिस्तान की कमान संभालेंगे। परंतु क्या वे अपना कार्याकाल पूरा कर पाएंगे या पहले की तरह उनका तख्तापलट हो जाएगा? इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है।

अगस्त 1947 से पहले अफगानिस्तान सीमा से लेकर पूर्वी छोर स्थित बंगाल की खाड़ी तक भारत एक था। इस्लाम के नाम पर पहले देश दो टुकड़ों में विभाजित हुआ, फिर 1971 में मजहबी कारणों से ही पाकिस्तान के भी दो टुकड़े हो गए। क्या कारण है कि विश्व के इस भू-भाग में खंडित भारत एक जीवंत पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र और बहुलतावादी है, तो पाकिस्तान-बांग्लादेश में इन दोनों का नितांत अभाव है? आखिर क्या कारण है कि इन तीनों देशों को विरासत के रूप में अंग्रेजों द्वारा जो व्यवस्था मिली थी, आज की स्थिति में उसमें खंडित भारत और पाकिस्तान में मीलों का अंतर आ गया है। जहां भारत आज आर्थिक, सामरिक, कूटनीतिक और जिम्मेदार देश के रूप में स्थापित है, तो पाकिस्तान आर्थिक रूप से कंगाल, आतंकवाद की पौधशाला और सैन्य तानाशाही का पर्याय बना हुआ है। 26/11 मुंबई जिहादी हमले के सरगना और घोषित वैश्विक आतंकवादी हाफिज सईद की ‘मर्कजी मुस्लिम लीग’ चुनाव में हिस्सा ले रही है, जिसमें हाफिज के बेटे और दामाद को प्रत्याशी बनाया गया है।

सच तो यह है कि जिस ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित वैचारिक अधिष्ठान की नींव पर 1947 में भारत के विभाजन पश्चात पाकिस्तान का निर्माण किया गया था, वह मौलिक रूप से लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता का प्रतिवाद ही है। यह बात पाकिस्तानी कठमुल्लों के साथ उसकी सेना भी भली-भांति समझती है। पाकिस्तानी डीप-स्टेट के लिए 1970 का आम-चुनाव किसी बुरे सपने जैसा है। अस्तित्व में आने के लगभग ढाई दशक पश्चात वर्ष 1970 में इस घोषित इस्लामी देश में पहला आम-चुनाव हुआ था, जोकि पाकिस्तान के इतिहास का पहला और अंतिम स्वतंत्र-निष्पक्ष निर्वाचन था। तब कुल 300 सीटों पर चुनाव हुए थे, जिनमें 162 सीटें पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश), तो 138 सीटें पश्चिम पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) में थीं। इस चुनाव में मुख्य मुकाबला पूर्वी पाकिस्तान आधारित और बंगाली भाषी आवामी लीग का पश्चिमी पाकिस्तान से संचालित पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) से था। चुनाव में आवामी लीग को 160 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला, तो पीपीपी को 81 सीटें। परिणामों के बाद सत्ता आवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर रहमान को सौंपी जानी थी, परंतु पाकिस्तानी सैन्य तानाशाह याह्या खान ने मजहबी कारणों से ऐसा नहीं होने दिया। परिणामस्वरूप पाकिस्तानी सेना द्वारा प्रायोजित भीषण नरसंहार (लगभग 30 लाख) से उपजे गृहयुद्ध ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ दिया। इसमें तब तत्कालीन भारतीय नेतृत्व की भी महती भूमिका थी, जिसे हम 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध रूप में स्मरण करते हैं। यह बात अलग है कि अपनी स्थापना के कुछ वर्ष बाद ही बांग्लादेश में तख्तापलट हो गया, शेख मुजीबुर की हत्या कर दी गई और कालांतर में स्वयं को इस्लामी देश घोषित कर दिया।

लोकतंत्र की मजबूती से पाकिस्तान कहीं फिर से दो-फाड़ न हो जाए, इसलिए पाकिस्तानी सेना ने मतदाताओं की पसंद को उसके द्वारा चुने गए लोगों तक ही सीमित कर दिया है। तभी पिछले चुनाव की भांति इस बार भी वह अपने द्वारा चुने हुए व्यक्ति को विजयी बनाने हेतु चुनाव परिणाम तय करने और उसे सत्ता सौंपने की दिशा में काम कर रही है। एक बात तय है कि इस बार पाकिस्तानी सेना अपनी पुरानी कठपुतली इमरान को किसी भी स्थिति में उभरने नहीं देगी। यह इस बात से स्पष्ट है कि नवाज शरीफ के विरुद्ध चुनाव लड़ रही पीटीआई समर्थित महिला उम्मीदवार को 6 फरवरी को आतंकवाद मामले में आरोपित कर दिया गया। पाकिस्तानी निर्वाचन आयोग द्वारा पीटीआई का चुनाव चिन्ह वापस लेने के निर्णय को पाकिस्तानी उच्चतम न्यायालय ने बरकरार रखा था, जिसके बाद पीटीआई के प्रत्याशी निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ने लगे। जिस प्रकार पीटीआई के निर्दलीय प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार में रोड़े अटकाए जा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि पाकिस्तानी सेना पीएमएल-एन को चुनाव जीतने का मार्ग प्रशस्त कर रही है।

इमरान की समस्या केवल पाकिस्तानी सेना से टकराव तक सीमित नहीं है। इस इस्लामी देश की नीतियों को प्रभावित करने वाले तीन देश— अमेरिका, चीन और सऊदी अरब भी इमरान से अप्रसन्न हैं। जहां अमेरिका रूस-यूक्रेन युद्ध के समय इमरान की मास्को यात्रा से खिन्न है, तो चीन इमरान द्वारा नवाज बंधुओं पर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे समझौतों में चीनी कंपनियों से घूस लेने का आरोप लगाने से असहज है। सऊदी अरब इमरान पर तब से आगबबूला है, जब उन्होंने प्रधानमंत्री रहते तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन और पूर्व मलेशियाई प्रधानमंत्री महाथिर मोहम्मद के साथ मिलकर सऊदी अरब के वर्चस्व वाले इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के समानांतर अन्य इस्लामी समूह खड़ा करने का प्रयास किया था। इसकी तुलना में अमेरिका, चीन और सऊदी अरब को इमरान की तुलना में नवाज शरीफ अधिक स्वीकार्य होंगे। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बिलावल भुट्टो जरदारी भी पाकिस्तानी सेना का पसंदीदा बनने में कई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। उनके द्वारा बार-बार भारत विरोधी विषवमन— इसका प्रमाण है।

पाकिस्तान में चल रहे घटनाक्रम का भारत पर क्या असर पड़ेगा? कुछ विशेष नहीं। पाकिस्तान का सत्व-तत्व भारत-हिंदू विरोधी है। वहां की सत्ता में वह ही काबिज हो सकता है, जो उसके वैचारिक अधिष्ठान को बराबर खाद-पानी देता रहे। इस कटु सत्य को सेना भली-भांति जानती है और सत्ता की असली चाबी उसके पास है। पाकिस्तान भारत-हिंदू विरोधी था, है और आगे भी रहेगा। पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद इस स्थिति में कोई परिवर्तन आएगा, इसकी कोई संभावना नहीं है।

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकोलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ (Tryst With Ayodhya: Decolonisation Of India) पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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