पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं
हृदयनारायण दीक्षित
पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं
पराधीन राष्ट्र अपनी संस्कृति और सभ्यता का आनंद नहीं प्राप्त कर सकते। भारत के लिए यह बात और भी महत्वपूर्ण है। देश दीर्घकाल तक पराधीन रहा है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस देश की सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने का अभियान चला। भारत ने विदेशी सत्ता से संघर्ष किया। पराधीनता समाप्त हुई। तब से 77 वर्ष हो गए। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के अनेक प्रतीक अभी भी बने हुए हैं। लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय से शुभ सूचना आई है। देश के अनेक शिक्षण संस्थानों विशेष रूप से मेडिकल कॉलेजों में होने वाले दीक्षांत समारोह में अब विद्यार्थियों को काला गाउन और हैट पहनने की औपचारिकता नहीं होगी। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस हेतु आदेश जारी कर दिया है। दीक्षांत समारोह में गाउन और हैट पहनना औपनिवेशिक काल की देन है। देश में इस घोषणा से प्रसन्नता है। संप्रभु राष्ट्र राज्य में पराधीनता के प्रतीकों का महिमामंडन नहीं होता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में पंच प्रणों का दृष्टिकोण रखा था। एक संकल्प में पराधीनता की मानसिकता के त्याग का आह्वान है और अपनी विरासत पर गर्व करने का संदेश भी।
पराधीनता के प्रतीक देश के स्वाभिमान को आहत करते रहते हैं। इसलिए राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर कर्तव्य पथ का उद्घाटन हुआ था। इसे अंग्रेजी राज के समय से किंग्सवे (राजपथ) कहा जा रहा था। राजपथ (किंग्सवे) भी पराधीनता का प्रतीक था। परतंत्रता के समय से यहां ब्रिटिशराज के प्रतिनिधि जॉर्ज पंचम की प्रतिमा थी। अब इसी इंडिया गेट पर सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा लगाई गई है। अंग्रेजी सत्ता के प्रतीक राष्ट्र के दीर्घकालीन अपमानों की याद दिलाते हैं। जनमानस दुखी होता है। इस मानसिकता में राष्ट्र का मनोबल क्षीण होता है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजी सभ्यता की निंदा की थी। गांधी जी की लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज में कहा गया है कि, ‘‘भारत को इंग्लैंड का कोई भी सत्ता प्रतीक या सत्ता उपकरण स्वीकार्य नहीं है।‘‘ तब ब्रिटिश संसद अंग्रेजी सत्ता का महत्वपूर्ण उपकरण थी। गांधी जी ने ब्रटिश संसद की भी आलोचना की थी। संविधान सभा में संसदीय विशेषाधिकारों पर चर्चा हो रही थी। संविधान निर्माताओं ने विशेषाधिकारों का प्रावधान (अनुच्छेद 105) दिया है। अनुच्छेद 105 का खण्ड 3 रोचक है और विस्मय करने वाला है। संविधान में प्रावधान किया गया है कि सदस्य या समितियों की शक्तियां व विशेषाधिकार वही होंगे, जो संसद समय समय पर विधि द्वारा निश्चित करे और जब तक वे इस प्रकार निश्चित होंगे, तब तक वह वही होंगे जो संविधान के प्रारंभ 26 जनवरी 1950 के दिन उसके सदस्यों और समितियों के है। अर्थात ब्रिटिश संसद के विशेषाधिकार भारतीय संसद के भी हैं। संविधान में भारतीय संसद के लिए ब्रिटिश संसद के विशेषाधिकारों के अनुसरण का उल्लेख आलोचना का विषय बना। संप्रभु राष्ट्र के संविधान में ब्रिटिश संसद के प्रावधानों के उल्लेख का कोई औचित्य नहीं था। इसलिए 44वें संविधान संशोधन में यह भूल सुधारी गई। संविधान में संशोधन किया गया कि वे वही होंगे जो इस संशोधन के ठीक पहले थे। यानी वही हैं जो ब्रिटिश संसद के हैं। क्या इसमें ब्रिटिश परंपरा और संसद के प्रति अतिरिक्त सम्मोहन नहीं है?
भारतीय दण्ड विधान, दण्ड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम ब्रिटिश प्राधिकार में ब्रिटिश संसद ने बनाए थे। इसके अनेक प्रावधान अपनी उपयोगिता खो चुके थे। लेकिन लगभग 150 वर्ष बूढ़े कानूनों पर कोई चर्चा नहीं हुई। अब औपनिवेशिक काल के इन कानूनों का अध्ययन व विश्लेषण हुआ। कालवाह्य का निरसन हुआ। अब उनके स्थान पर तीन नई संहिता बन चुकी हैं। अपनी जड़ों से जीवन रस प्राप्त करना आनंद देने वाला होता है, लेकिन पराधीनता के दीर्घ काल में ब्रिटिश सत्ता ने भारतीय विरासत पर गर्व करने के प्रतीकों को पीछे ढकेल दिया था। अंग्रेजी विद्वानों और ब्रिटिश राज को श्रेष्ठ मानने वाले लेखकों ने भारतीय ज्ञान परंपरा को भाववादी बताया। प्रचार किया गया कि भारत के लोग अपना इतिहास भी ठीक से नहीं लिख पाते। यह बात सही नहीं है। भारत में ज्ञान, विज्ञान और दर्शन पर विपुल लेखन हुआ था। जर्मनी के विद्वान मैक्समूलर ने भारतीय ज्ञान व संस्कृति की प्रशंसा की थी। मैक्समूलर के संपादकत्व में भारतीय धर्म परंपरा और संस्कृति को समझाने के लिए 50 खण्डों में ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट‘ नाम से ग्रंथ छपे थे।
अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति आग्रही राष्ट्रभाव का विकास जरूरी था और है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारतीय ज्ञान परंपरा पर अनेक आक्रमण किए थे। तो भी भारतीय राजनेताओं में ब्रिटिश परंपरा के प्रति आकर्षण था। भारतीय बजट का समय ब्रिटिश संसद के समय का अनुसरण कर रहा था। प्रशंसनीय है कि केन्द्र ने उसकी तारीख और समय का परिवर्तन कर दिया। रेल बजट को आम बजट के साथ जोड़ दिया गया है। 26 जनवरी को बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम में ‘एबाइड विद मी‘ गीत बजाया जाता था। इसे हटा दिया गया है। इसके स्थान पर कवि प्रदीप का लिखा ‘ऐ मेरे वतन के लोगों‘ गीत बजाया जाता है। मातृभाषा में अध्ययन करने का निर्णय राष्ट्रीय शिक्षा नीति का भाग बन गया है। विरासत महत्वपूर्ण संपदा है। विरासत में ज्ञान परंपरा भी आती है। पूर्वजों ने राष्ट्र जीवन को सुंदर बनाने के लिए अनेक प्रयास किए थे। संस्कृति, दर्शन, कला, विज्ञान और विश्व को ठीक से समझने के उनके प्रयास अनुकरणीय हैं। भारतीय विरासत समृद्ध है।
विरासत में करणीय व अनुकरणीय विषयों की सूची होती है। विरासत से जुड़कर हम सब पूरे समाज के सक्रिय घटक बन जाते हैं। हम पूर्वजों से जुड़ जाते हैं। बेशक विरासत की संपदा भूतकाल की है। इसमें इतिहास के तत्व अधिक हैं। इतिहास और वर्तमान का मिलन आवश्यक है। हजारों वर्ष प्राचीन देश होने के कारण यहां भिन्न-भिन्न प्रकार की विरासतें हैं। सब मिलकर राष्ट्र का सामर्थ्य बढ़ाती हैं। पेड़ अपनी जड़ों से कट कर सूख जाते हैं। जड़ों से मजबूती से जुड़े पेड़ दीर्घजीवी होते हैं। जड़ें महत्वपूर्ण हैं। जड़ें पृथ्वी से रस लेती हैं और पूरे वृक्ष को जीवन मिलता है। राष्ट्रों की जीवनऊर्जा भी विरासत से मजबूत होती है। ज्ञान विज्ञान में भारत की जड़ें वैदिक काल से भी प्राचीन हैं। विरासत की जड़ें देश के समूचे हिस्से को प्रभावित करती हैं। दीक्षांत समारोहों में विदेशी वेशभूषा सारा आनंद बेकार कर देती है। सत्ताधीश अंग्रेज चले गए। औपनिवेशिक ज्ञान और बेकार के प्रतीक छोड़ गए। इनसे मुक्ति समय का आह्वान है।
न्यायपालिका के प्रति देश में आदर भाव है। न्यायालयों में भी विद्वान अधिवक्ता अपने तर्क देते समय न्यायमूर्ति को ‘माई लॉर्ड‘ और ‘योर लॉर्डशिप‘ कहते हैं। यह कथन ब्रिटिश परंपरा की उधारी है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चन्द्रचूड़ ने इसे उचित नहीं माना था। अधिवक्ता भी काला कोट पहन कर आते हैं। वह एक कमरे में ही नहीं बैठे रहते। भारत गर्म जलवायु का देश है। व्यावहारिक दृष्टि से वकीलों की वेशभूषा मौसम के विपरीत है। यह वेशभूषा भी स्वदेशी नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा है कि, ‘‘विदेशी को राष्ट्रानुकूल बनाना और राष्ट्र के प्राचीन वैभव को युगानुकूल बनाना होगा।‘‘ विरासत से जुड़ाव स्वाभाविकता है। इसलिए विरासत का सम्मान और संरक्षण हम सबका राष्ट्रीय कर्तव्य भी है।