सुप्रीम कोर्ट में ड्रेस कोड चाहिए पर स्कूल में ….?
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट में ड्रेस कोड चाहिए पर स्कूल में ….?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में देशभर के वकीलों के लिए गर्मी के मौसम में ड्रेस कोड में ढील देने की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया। याचिका में सुझाव दिया गया था कि वकील गर्मी के कारण पारंपरिक गाउन पहनने में असुविधा अनुभव कर रहे हैं, किंतु सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने जब इस याचिका को सुना तब स्पष्ट कह दिया कि पेशेवर शिष्टाचार बनाए रखना आवश्यक है। अलग-अलग स्थानों पर जलवायु के अनुसार वकीलों को पेशेवर रूप से व्यवहार करना चाहिए। वकील कुर्ता-पायजामा या शॉर्ट्स-टी-शर्ट पहनकर बहस नहीं कर सकते। वकीलों को यह समझना चाहिए कि उनकी वेशभूषा उनके पेशेवर आचरण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका अर्थ यह है कि अदालतें वकीलों के लिए एक निश्चित स्तर की पेशेवरता की अपेक्षा करती हैं, ताकि अदालत की गरिमा बनी रहे।
आप कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्पष्ट करता है कि वकीलों के लिए पेशेवरता और गरिमा का पालन आवश्यक है। यह न केवल उनके व्यक्तिगत चित्रण को दर्शाता है, बल्कि यह अदालत की छवि और उसकी गंभीरता को भी बनाए रखता है। अब उच्चतम न्यायालय के आए इस निर्णय की तुलना कोर्ट के पिछले माह दिए गए निर्णय से करते हैं, बात वहां भी ड्रेस कोड की ही थी, किंतु इसी माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के निर्णय ने जैसे एक समाज को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। कहना होगा कि नौ अगस्त को आए एक निर्णय में आज फिर से एक बार उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विचार करने के लिए विवश कर दिया है। पूरी कहानी कुछ यूं है कि मुंबई के एनजी आचार्य और डीके मराठे कॉलेज ने कैंपस में हिजाब, नकाब, बुर्का, स्टोल और टोपी पहनने पर बैन लगाया था। इस निर्णय के विरोध में नौ लड़कियां बॉम्बे हाईकोर्ट पहुंचीं। हाईकोर्ट से याचिका खारिज होने पर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश में कॉलेज सर्कुलर लागू करने पर 18 नवंबर तक रोक लगा दी।
यहां जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ का कहना रहा, ‘स्टूडेंट्स को क्या पहनना या क्या नहीं पहनना है, यह वही तय करेंगे। एजुकेशनल इंस्टीट्यूट स्टूडेंट्स पर अपनी पसंद नहीं थोप सकते।’ पीठ ने मुस्लिम छात्रों के लिए ‘ड्रेस कोड’ को लेकर जन्में नए विवाद के केंद्र में आए कॉलेज प्रशासन से कहा, ‘‘छात्राओं को यह चयन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे क्या पहनें और कॉलेज उन पर दबाव नहीं डाल सकता… यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आपको अचानक पता चलता है कि देश में कई रिलिजन हैं।’’ यदि कॉलेज का इरादा छात्राओं की धार्मिक आस्था के प्रदर्शन पर रोक लगाना था, तो उसने ‘तिलक’ और ‘बिंदी’ पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया?
अब जरा उस सर्कुलर को भी देख लेते हैं, जोकि कॉलेज की ओर से जारी किया गया था, वस्तुत: इसमें तीन बिन्दुओं में बात रखी गई है। ‘’एक – छात्रों को परिसर में औपचारिक और सभ्य पोशाक पहननी चाहिए। वे हाफ शर्ट या फुल शर्ट और ट्राउजर पहन सकते हैं। लड़कियां कोई भी भारतीय या पश्चिमी पोशाक पहन सकती हैं। छात्रों को ऐसा कोई भी परिधान नहीं पहनना चाहिए जो रिलिजन या सांस्कृतिक असमानता को दर्शाता हो। नकाब, हिजाब, बुर्का, स्टोल, टोपी, बैज आदि को ग्राउंड फ्लोर पर कॉमन रूम में जाकर उतारना होगा और उसके बाद ही वे पूरे कॉलेज परिसर में घूम सकते हैं। जींस, टी-शर्ट, रिवीलिंग ड्रेस और जर्सी की अनुमति नहीं है। दो- अपने व्याख्यान / प्रैक्टिकल के लिए समय से पहले पहुंचें। तीन- 75% उपस्थिति अनिवार्य है। शिक्षा में अनुशासन सफलता की कुंजी है।’’ यहां गहराई से देखने पर कहीं प्रतीत नहीं हो रहा है कि एक विशेष समुदाय को टार्गेट करके यह आदेश महाविद्यालयों ने निकाला था।
हालांकि हम मानकर चलते हैं कि जिस ‘बिंदी’ का न्यायालय हवाला दे रहा था, उसके बारे में न्यायालय को यह भलीभांति पता ही होगा कि सिर्फ हिन्दू युवतियां ही ‘बिंदी’ नहीं लगातीं, उसे तो अन्य अनेक मत, पंथों, रिलीजन, मजहब को मानने वाली महिलाएं भी लगाती हैं। यानी कि बिंदी की सार्वजनिक स्वीकृति है। तिलक भी बिंदी की तरह ही एक भाग है, फिर कोर्ट को यह भी पता ही है कि सिख पगड़ी पहनते हैं, उन्हें ये अधिकार सार्वजनिक रूप से हर जगह सामाजिक स्वीकृति के अंतर्गत पूरी तरह से मान्य किया गया है। फिर यह स्वीकार्यता इसलिए भी है क्योंकि भारत की सिख जनसंख्या 20.8 मिलियन है, जो देश की कुल जनसंख्या का केवल 1.72% है। इसका अर्थ है कि एक कक्षा में एक छात्र या अधिकतम दो ही मुश्किल से सिख होंगे, किंतु क्या यह मुसलमानों पर लागू होता है। वह तो देश की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29, 30, 350ए तथा 350बी में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन इसकी परिभाषा कहीं नहीं दी गई है। यह विडंबनापूर्ण स्थिति है कि कहीं पर कोई समुदाय जो 96, 98 प्रतिशत है वह अल्पसंख्यक है और वहीं, किसी राज्य में 2 प्रतिशत जनसंख्या वाले लोग बहुसंख्यक हैं और अल्पसंख्यक को मिलने वाले लाभ से वंचित हैं। संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार, ‘ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी जनसंख्या नगण्य हो, उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा।’ किंतु क्या यह परिभाषा भारत में रह रहे मुसलमानों पर लागू होती है ? अल्पसंख्यक की अब तक कि परिभाषाएं उठाकर देखें, इनमें स्पष्ट है कि दो प्रतिशत या अधिकतम 10 प्रतिशत से कम कुल जनसंख्या का अल्पसंख्यक समुदाय कहलाएगा, पर भारत में मुसलमान जैसा कि वे स्वयं कहते हैं कि 20 करोड़ से अधिक हैं, जोकि स्वभाविक तौर पर कुल जनसंख्या का 14 प्रतिशत या इससे कुछ अधिक हो जाता है ।
दूसरी ओर राज्यीय स्तर पर भी इसकी समीक्षा की जाए तो हिंदू जो राष्ट्रव्यापी आंकड़ों के अनुसार एक बहुसंख्यक समुदाय है, पूर्वोत्तर भारत के कई राज्यों और जम्मू कश्मीर में अल्पसंख्यक है। लक्षद्वीप में 96.20% और जम्मू-कश्मीर में 68.30% मुसलमान हैं, जबकि असम (34.20%), पश्चिम बंगाल (27.5%), केरल (26.60%), उत्तर प्रदेश (19.30%) और बिहार (18%) में भी इनकी अच्छी-खासी जनसंख्या है फिर भी इन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है और वे इसका लाभ ले रहे हैं। दूसरी ओर वे समुदाय, जो वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक हैं, राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त न होने के कारण लाभ से वंचित हैं। विडम्बना देखिए; लक्षद्वीप में मात्र दो प्रतिशत हिंदू हैं लेकिन वे वहाँ अल्पसंख्यक न होकर बहुसंख्यक हैं और 96% प्रतिशत आबादी वाले मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। ईसाई मिजोरम, मेघालय, नगालैंड में बहुसंख्यक हैं जबकि अरुणाचल प्रदेश, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल मे भी इनकी संख्या अच्छी है, इसके बावजूद ये अल्पसंख्यक माने जाते हैं। यह गैर-बराबरी है। इसे एड्रेस किये जाने की आवश्यकता है। किंतु हर उस मुद्दे में जिसमें न्यायालय को लगता है हस्तक्षेप करना चाहिए वह करती है, पर यहां इस मुद्दे पर वह अभी तक चुप नजर आ रही है।
यहां माननीय न्यायालय को भी समझना होगा कि उसके प्रश्न करने का कौई औचित्य नहीं, वह समाधान देने के लिए है और उनका दिया गया निर्णय कानूनी स्तर पर ही नहीं तर्क सम्मत भी होना चाहिए। आप सोचिए, यदि किसी भी कक्षा में अकेले मुसलमान जोकि देश में आज के समय में 100 में 20 या इससे अधिक अलग-अलग राज्यों के हिसाब से कहीं-कहीं तो 96 और 68 प्रतिशत तक हैं, वह अपने मजहबी परिधान को पहनकर कक्षा में पहुंचेंगे तो कक्षा की स्थिति क्या होगी, क्या यह कक्षा किसी पंथ निरपेक्ष श्रेणी में आएगी? जैसा कि संविधान हवाला देता है(परिभाषा धर्मनिरपेक्षता) । इसी तरह से यदि हिन्दू और अन्य अल्पसंख्यक जहां भी जिस राज्य में बहुसंख्यक हैं वे अपने पारंपरिक पोशाकों में पाश्चात्य स्वीकृत शिक्षा व्यवस्था के संस्थानों में जाने लगे तब वहां कैसी स्थिति होगी। क्या यह स्थिति किसी सांस्कृतिक मेले या सामुदायिक मेले जैसी नहीं होगी? फिर वहां शिक्षा की एक रूपता एवं सामने से एक समान दिखने वाली दृष्टि कैसे आएगी?
इस मामले में थोड़ा विचार उच्च न्यायालय पहुंचने के पहले बॉम्बे हाईकोर्ट के दिए निर्णय पर भी कर लेते हैं। दरअसल, छात्राओं की तरफ से दायर याचिका में कहा गया था कि यह नियम उनके मजहब का पालन करने के मौलिक अधिकार, निजता और पसंद के अधिकार का उल्लंघन करता है। इस पर उच्च न्यायालय ने कहा कि सभी छात्रों पर ड्रेस कोड लागू है, चाहे वह किसी जाति या धर्म का क्यों न हो। ड्रेस कोड को अनुशासन बनाए रखने के लागू किया गया है। यह संविधान के तहत शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और प्रशासन के मौलिक अधिकार के अनुरूप है। न्यायालय ने कहा- यह छात्रों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। इसी बयान के साथ कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया था। इससे पहले कर्नाटक में इसी तरह के विवाद पर 15 मार्च 2022 को कर्नाटक हाईकोर्ट ने कॉलेज यूनिफॉर्म को आवश्यक बताया था।
यहां प्रिंसिपल का तर्क भी समझना होगा- छात्रों को एडमिशन के समय ही बताया गया था कि छात्र ठीक-ठाक कपड़े पहनें। क्योंकि नौकरी मिलने के बाद भी उन्हें ऐसा ही करना होगा। साल के 365 दिनों में से छात्रों को मुश्किल से 120-130 दिन ही कॉलेज में रहना पड़ता है। इन दिनों ड्रेस कोड का पालन करने में उन्हें क्या परेशानी होनी चाहिए? छात्रों द्वारा कैंपस में अभद्र व्यवहार के कई मामलों के कारण ही प्रशासन को नया ड्रेस कोड लाना पड़ा। हालांकि अभी उच्च्तम न्यायालय पीठ ने कहा है कि उसके अंतरिम आदेश का किसी के द्वारा दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए, फिर भी जो संदेश देश भर में दिया जाना चाहिए वह चला गया है और वह कहीं से भी यह नहीं दर्शाता कि ये समान रूप से सभी के हित में है। अब जब सुप्रीम कोर्ट में ड्रेस कोड पर बहस हुई है तो उसे अन्य शिक्षण संस्थानों की सद्इच्छा और भावना को भी समझना चाहिए, यहां यही कहना है।