जबलपुर की दुर्गा पूजा
प्रशांत पोळ
जबलपुर की दुर्गा पूजा
जबलपुर में सार्वजनिक दुर्गा पूजा की शुरुआत बंगाली समुदाय द्वारा की गयी। 1872 में जबलपुर पर अंग्रेजों के अधिकार जमाने के 54 वर्षों बाद, दुर्गोत्सव का प्रारंभ हुआ है। ब्रुजेश्वर दत्त के निवास स्थान पर जबलपुर की पहली सार्वजनिक दुर्गा पूजा संपन्न हुई, जो तीन वर्ष बाद अम्बिकाचरण बनर्जी के गलगला स्थित निवास स्थान पर होने लगी। जबलपुर का दुर्गोत्सव ठेठ स्थानिक रंग में रंगने लगा। छह वर्षों के बाद, अर्थात 1878 से पहली बुन्देली शैली की प्रतिमा सुनरहाई में स्थापित की गयी।
बीसवीं सदी के प्रारंभ तक, अर्थात वर्ष 1900 तक, जबलपुर में बंगाली समुदाय की संख्या बहुत ही कम थी। 1904 से गन कैरीज फैक्ट्री का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। चूँकि सुरक्षा संस्थानों का मुख्यालय अंग्रेजों के जमाने से कलकत्ता में था, तो स्वाभाविक ही बंगाली भाषिकों का आगमन जबलपुर में होने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले, टेलीग्राफ वर्कशॉप और खमरिया की ऑर्डनेन्स फैक्ट्री प्रारंभ हो रही थी। रोजगार की असीम संभावनाएं थीं। उस समय महाराष्ट्र के विदर्भ से और बंगाल से अनेक लोग जबलपुर आये। बाद में भी सुरक्षा संस्थानों के विस्तार के चलते बंगाली भाषिकों का जबलपुर आना लगा रहा।
ये बंग भाषी अपने साथ अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भी लाये। यह बंग भाषिक कलासक्त होते हैं। साहित्य और नाट्य-गायन के शौक़ीन होते हैं। जबलपुर के सांस्कृतिक अवकाश पर यह सब मिलता गया/ घुलता गया। बंग भाषिकों का दुर्गोत्सव इसी विरासत का एक अंग था। जहाँ जहाँ बंग भाषिक रहते थे, वहां पर दुर्गोत्सव ठेठ बंगाल की मिट्टी की महक लेकर साकार होता गया और जबलपुर के आकर्षण का केंद्र बनता गया।
कुछ वर्ष पहले तक, जब पी एंड टी क्वार्टर आबाद होते थे, तब वहां का दुर्गोत्सव सारे जबलपुर में प्रसिद्ध था। वहां तो मानो मेला ही लगता था। चारों तरफ पी एंड टी के एक मंजिला क्वार्टर्स और बीच के विशाल मैदान पर विराजित महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा की भव्य प्रतिमा, और साथ में महासरस्वती, महालक्ष्मी, गणेश और कार्तिकेय भगवान, भरा पूरा परिवार, माँ के दर्शन को दूर दूर से आये हुए भक्त, कुछ देर ही सही, पर मैदान की हरियाली में परिवार के साथ बैठकर थोडा़ विश्राम कर लेते थे। अनेक वर्षों तक यह मूर्ति कलकत्ता के मूर्तिकार जगदीश विश्वास बनाते रहे।
जबलपुर के बंग भाषियों की शीर्ष संस्था, सिटी बंगाली क्लब, यह सिद्धी बाला बोस लाइब्रेरी नाम से जानी जाती है। यहाँ की दुर्गापूजा, सारे जबलपुर का आकर्षण होती है। बंगाल के कलाकारों द्वारा सजावट की जाती है। बंगाल के ही मूर्तिकार होते हैं और ढाक (ढो़ल) बजाने वाले भी बंगाल से ही आते हैं। षष्ठी के दिन माँ की प्राण प्रतिष्ठा होती है, और ये चार दिन, हर एक बांग्ला भाषिक माँ की आराधना में लीन रहता है।
जी सी एफ स्टेट का डीबी (अर्थात देवेन्द्र बंगाली) क्लब भी बंग संस्कृति की सम्पूर्ण मर्यादा के साथ दुर्गा-पूजा मनाता है। बंगाली समाज की एक और विशेषता है, जहाँ भी दुर्गा-पूजा होती है, वहां पंडाल में बंग भाषा में सांस्कृतिक कार्यक्रम अवश्य होते हैं। बंग भाषा में नाटक, गीत गायन, प्रहसन ऐसे कार्यक्रम प्रत्येक पंडाल में होते हैं, चाहे वह सिटी बंगाली क्लब हो, डीबी क्लब हो या पेंटीनाका का गैरिसन ग्राउंड।
अभी कुछ वर्षों से, जबलपुर की सभी बंग उत्सव समितियों ने एक अच्छा निर्णय लिया है, साथ मिलकर विसर्जन करने का। शोभायात्रा के रूप में, जबलपुर की लगभग 12- 15 बंग दुर्गा उत्सव समितियां कुछ अंतर पर साथ चलती हैं। बंग बहनें, बडे़ उत्साह से ‘सिंदूर खेला’ खेलती हैं। सारा जबलपुर, बंगाल की इस समृद्ध संस्कृति के दर्शन करता है और फिर ये सभी प्रतिमाएं, ट्रक में सवार होकर ग्वारीघाट मे नर्मदा माई में विसर्जन के लिये ले जायी जाती हैं।
बचपन में इस दुर्गा पूजा का मेरा आकर्षण था, सर्वपितृ अमावस्या के दिन सुबह रेडियो पर ‘महालया’ सुनना। बंगाली और संस्कृत भाषा में यह चंडी पाठ होता है, और सारे आकाशवाणी केंद्र प्रातः साढ़े चार बजे से उसे प्रसारित करते थे। बड़े मधुर और लयबद्ध स्वरों में बिरेन्द्र कृष्ण भद्र, महिषासुरमर्दिनी की कथा सुनाते थे। सभी घरों में रेडियो ऊँचे स्वरों में बजता था। उन बंगाली उच्चारणों में –
_‘या देवी सर्व भूतेशु शक्ति रुपेण संस्थिता _
_नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः _
यह सुनना अर्थात असीम आनंद का अनुभव रहता था। लता मंगेशकर और हेमंत कुमार की आवाज में अन्य मन्त्र और स्तोत्र रहते थे। वे गुलाबी ठण्ड के दिन रहते थे, और महालया हमें आश्वस्त करता था, की कल से दस दिन, जगतजननी मां की आराधना के, नवरात्री के, दुर्गोत्सव के, चैतन्य के और आत्यंतिक सुख के हैं।
सचमुच इस बंग संस्कृति ने कितना कुछ दिया है, हमें..!!