सड़ांध मारती भारतीय शिक्षा व्यवस्था
बलबीर पुंज
सड़ांध मारती भारतीय शिक्षा व्यवस्था
हाल ही में दिल्ली स्थित एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में बरसात का पानी भरने से तीन छात्रों की मौत हो गई। सीबीआई मामले की जांच कर रही है, तो सर्वोच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा है। अदालत ने अपनी टिप्पणी में कोचिंग सेंटरों को ‘डेथ चैंबर’ कहकर संबोधित किया है। इस हृदय विदारक घटनाक्रम से दो मुद्दे चर्चा के केंद्र में आ गए हैं। पहला— यह घटना लचर प्रशासनिक व्यवस्था को दर्शाती है। स्थापित नियम-कानूनों और सुरक्षा मानकों को ताक पर रखकर दिल्ली के कई भवनों के तलघरों में शिक्षा के नाम पर दुकान लगाकर करोड़ों-अरबों रुपयों का व्यापार होता रहा और शासन-प्रशासन तमाशबीन बना रहा। वे तब जागे, जब दिल्ली के ओल्ड राजेंद्र नगर स्थित एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में अचानक बारिश का पानी घुस जाने और उसमें चार घंटे से अधिक समय तक फंसे रहने के कारण सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे तीन छात्रों की मौत हो गई।
यह प्रशासनिक उदासीनता नई नहीं है। पिछले वर्ष दिल्ली के मुखर्जी नगर में एक कोचिंग सेंटर में आग लगने के बाद पुलिस ने दिल्ली उच्च न्यायालय को सूचित किया था कि शहर के लगभग 600 कोचिंग संस्थानों में से सिर्फ 67 के पास अधिकारियों से अनापत्ति प्रमाणपत्र था। हालिया घटना से साफ है कि शिक्षण प्रतिष्ठानों में सुरक्षा सुनिश्चित करने के मामले में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है।
दूसरा बड़ा मुद्दा— शिक्षा का बाजारीकरण और गुणवत्ताहीन शिक्षा है। 10 लाख से अधिक उम्मीदवार केवल एक हजार सीटों के लिए सिविल सेवा परीक्षा की प्रतिस्पर्धा करते हैं। वर्ष 2024 में 20 लाख से अधिक छात्रों ने मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट) दी, जबकि देश के मेडिकल कॉलेजों (सरकारी-निजी सहित) में एक लाख से कुछ अधिक सीटें हैं। अब जो कोचिंग सेंटर चला रहे हैं, वे इस कुस्थिति को व्यावसायिक अवसर के रूप में भुना रहे हैं। जो अभ्यर्थी सफल नहीं हो पाते, वे कोचिंग सेंटरों के लिए उपभोक्ता होते हैं और माता-पिता भी अपने बच्चों की बेहतरी के लिए अपनी सारी जमा पूंजी लगा देते हैं। सिविल सेवा और नीट-जेईई आदि की तैयारी कर रहे प्रति छात्र और उसके परिवार पर निजी कोचिंग शुल्क, रहना-खाना और अध्ययन सामग्री आदि का प्रतिवर्ष 4-6 लाख रुपये का दबाव होता है। निजी कोचिंग सेंटरों को मनमानी करने से रोकने के लिए सरकारों ने विनियमित संबंधित उपाय भी किए हैं। परंतु उसका जमीनी स्तर पर क्रियान्वन प्रशासनिक लापरवाही और अकर्मण्यता के कारण कम ही दिखाई देता है।
भारत में निश्चित रुप से कई उच्च स्तर के शिक्षण संस्थान हैं। विश्व-स्तरीय भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) आदि ऐसे उदाहरण हैं, जहां उत्कृष्ट स्नातक तैयार होते हैं और अक्सर दुनिया के विकसित देशों में जाकर देश का मान भी बढ़ाते हैं। परंतु उनकी संख्या बहुत कम हैं। भारतीय जनसंख्या के संदर्भ में यह ‘ऊंट के मुंह में ज़ीरा’ है। देश के अधिकांश स्कूल-कॉलेजों का शैक्षिक ढांचा तक जर्जर है। इस संबंध में 17 जनवरी 2024 को शिक्षा-केंद्रित गैर-लाभकारी संस्था ‘प्रथम फाउंडेशन’ ने 28 जिलों के सरकारी-निजी शिक्षण संस्थानों में 14-18 आयु वर्ष के युवाओं की चिंताजनक तस्वीर को उजागर किया है। इसके अनुसार, 50 प्रतिशत से अधिक युवा गणित के सामान्य प्रश्न हल करने, 25 प्रतिशत कक्षा-2 की क्षेत्रीय भाषा की पुस्तक पढ़ने और लगभग 43 प्रतिशत अंग्रेजी के एक वाक्य को धाराप्रवाह पढ़ने में असमर्थ हैं। अनुमान लगाना कठिन नहीं कि यह समूह किसी रोजगार में कितनी गुणवत्ता के साथ न्याय कर पा रहे होंगे।
शिक्षा के मूलत: दो उद्देश्य होते हैं। पहला— मनुष्य को समाज की बेहतरी के लिए उत्कृष्ट रूप में विकसित करना, जिससे उसमें दूसरों के प्रति दया का भाव और सद्भावना आए। दूसरा— व्यक्ति संसार में अपने ज्ञान-कौशल द्वारा अर्जित आजीविका से स्वयं और अपने परिजनों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम बने। आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के अनुसार, बढ़ते कार्यबल की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को गैर-कृषि क्षेत्र में 2030 तक सालाना औसतन लगभग 78.5 लाख नौकरियां पैदा करने की आवश्यकता है। इस संबंध में मोदी सरकार ने दो लाख करोड़ रुपये से पांच योजनाएं शुरू की हैं। क्या इससे कोई आमूलचूल परिवर्तन आएगा?
वास्तव में, असली समस्या शिक्षा का गिरता स्तर और लचरपन है। भारतीय शिक्षण व्यवस्था शिक्षा के लिए कम, नौकरियों की फैक्ट्रियां अधिक बन गई है। गुणवत्ता-विहीन शिक्षा के कारण अधिकांश युवा न केवल बेरोजगार रहते हैं, अपितु आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में किसी भी आधुनिक उद्योग-धंधे में रोजगार करने के लायक भी नहीं होते। देश में रोजगार एक बड़ा विषय है। निजी कंपनी ‘लार्सन एंड टुब्रो’ इस समय 45,000 श्रमिकों, इंजीनियरों की कमी का सामना कर रहा है। ‘स्कॉच’ की शोध रिपोर्ट के अनुसार, देश में बीते 10 वर्षों में 51 करोड़ से अधिक रोजगारों का सृजन हुआ है। फिर बेरोजगारी का कारण क्या है?
देश के बहुत बड़े वर्ग में धारणा बनी हुई है कि रोजगार का अर्थ सरकारी नौकरी ही होता है और वे इसी दिशा में अपनी तैयारी भी करते हैं। इसी वर्ष उत्तरप्रदेश पुलिस भर्ती में 60 हजार कांस्टेबल पदों के लिए 50 लाख से अधिक आवेदन आए थे। गत वर्ष नवंबर में हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग (एचएसएससी) ने चतुर्थ श्रेणी के 13,500 से अधिक पदों के लिए 13.84 लाख युवाओं ने पंजीकरण कराया था। सच तो यह है कि अधिकांश भारतीयों को सरकारी नौकरियां— अधिक वेतन, भत्तों, विशेषाधिकार, सामाजिक सुरक्षा और अक्सर ऊपरी कमाई करने के ‘अवसरों’ के कारण आकर्षित करती है। पूर्व प्रशिक्षु (ट्रेनी) आईएएस अधिकारी पूजा खेड़कर संबंधित प्रकरण इसका उदाहरण है। पूजा पर न केवल फर्जी पहचान पत्र बनवाने, धोखाधड़ी करके परीक्षा देने का आरोप है, साथ ही बतौर आईएएस अपने पद का दुरुपयोग करने, निर्धारित सीमा से अधिक सुविधा मांगने, वरिष्ठ अधिकारी का कार्यालय हथियाने, अपने निजी वाहन में लालबत्ती लगाने और उस पर ‘महाराष्ट्र सरकार’ की प्लेट लगवाने का आरोप है।
व्यवसाय तक सीमित कोचिंग सेंटर, नीट विवाद, पेपर लीक के बाद पूजा खेड़कर मामला— इस बात का सूचक है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सड़ांध कितनी बढ़ चुकी है।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)