सबका साथ सबका विकास के बाद भी नहीं मिला ‘सबका’ साथ
बलबीर पुंज
सबका साथ सबका विकास के बाद भी नहीं मिला ‘सबका’ साथ
भाजपा तीसरी बार लगातार अपने दम पर बहुमत पाने से क्यों चूक गई? इसे लेकर समीक्षाओं का दौर जारी है। एक बड़ा कारण यह भी उभरकर सामने आया कि मुस्लिम मतदाताओं ने कई क्षेत्रों में संगठित होकर भाजपा के विरुद्ध मतदान किया। सीएसडीएस-लोकनीति के एक सर्वेक्षण के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर जहां 65 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाताओं ने भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठजोड़ (आई.एन.डी.आई.ए.) को मत दिया, तो उत्तरप्रदेश में यह आंकड़ा 92 प्रतिशत रहा। भाजपा को जिन राज्यों में सीटों के संदर्भ में सर्वाधिक क्षति पहुंची, उनमें सबसे ऊपर उत्तरप्रदेश का नाम है। क्या वाकई मोदी सरकार या फिर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘मुस्लिम-विरोधी’ है, जैसा अक्सर, वामपंथियों और स्वयंभू सेकुलरवादियों द्वारा नैरेटिव गढ़ा जाता है?
क्या मुस्लिम समाज मोदी सरकार से इसलिए नाराज़ था, क्योंकि उनके साथ किसी प्रकार का अन्याय हो रहा था? मोदी कार्यकाल में ऐसी बीसियों योजनाएं हैं, जिनका लाभ करोड़ों लाभार्थियों को बिना किसी जातीय-मजहबी भेदभाव के आज भी मिल रहा है। देश की कुल संख्या में मुसलमानों की जनसंख्या 15 प्रतिशत से अधिक है। फिर भी ‘कौशल भारत योजना’ के 1.23 करोड़ लाभार्थियों में लगभग 23 प्रतिशत मुस्लिम हैं। ‘जनधन योजना’ के अंतर्गत 52 करोड़ से अधिक खाते खुले हैं, जिनमें सवा दो लाख करोड़ रुपये से अधिक राशि जमा है। इन खातों में 42 प्रतिशत हिस्सेदारी मुसलमानों की हैं। इस प्रकार के कई उदाहरण हैं। बात यदि केवल उत्तरप्रदेश की करें, तो ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ के 35 प्रतिशत, ‘प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना’ के 37 प्रतिशत, ‘प्रधानमंत्री मुद्रा योजना’ के 30 प्रतिशत लाभार्थी मुस्लिम हैं। दिलचस्प है कि उत्तरप्रदेश में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत है, परंतु मोदी सरकार की लोक-कल्याणकारी योजनाओं में उनकी हिस्सेदारी 24-30 प्रतिशत है। परंतु इस राज्य में 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमानों ने भाजपा को पराजित करने हेतु आई.एन.डी.आई.ए. को मत दिया। आखिर इस अंधविरोध का कारण क्या है?
भारतीय मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग में ‘उपेक्षा’, ‘असंतोष’ और ‘असुरक्षा’ का भाव पिछले 10-20 वर्षों से नहीं, अपितु स्वाधीनता के कई दशक पहले से व्याप्त है। तब इसे दूर करने हेतु गांधीजी ने उस घोर मजहबी और विशुद्ध विदेशी ‘खिलाफत आंदोलन’ (1919-24) का नेतृत्व किया, जिसका तत्कालीन भारतीय मुसलमानों से कोई सरोकार तक नहीं था। यही नहीं, गांधीजी ने अप्रैल 1947 में वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के समक्ष मोहम्मद अली जिन्नाह के हाथों में अंतरिम सरकार की कमान सौंपने का प्रस्ताव तक रख दिया था। परंतु तत्कालीन मुस्लिम समाज टस से मस नहीं हुआ, उसका बड़ा वर्ग इस्लाम के नाम पर अलग देश की मांग पर अड़ा रहा और देश का विभाजन करके ही माना।
मुस्लिम समुदाय के बड़े हिस्से में भाजपा-विरोधी द्वेष-पूर्वाग्रह, राष्ट्रीय भावना-आकांक्षाओं के प्रति उनके उसी ऐतिहासिक अलगाव का हिस्सा है, जो 1880 के दशक में सर सैयद अहमद खां द्वारा प्रदत्त ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ से चला आ रहा है। हालिया चुनाव में मुस्लिम समाज ने भाजपा को हराने की मंशा से भाजपा-विरोधी गठबंधन— आई.एन.डी.आई.ए. (कांग्रेस सहित) का समर्थन किया।
क्या विभाजन से पहले कांग्रेस और मुस्लिम समाज में मधुर संबंध थे? वर्ष 1937-38 में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों में मुसलमानों पर अत्याचारों की जांच हेतु पीरपुर समिति का गठन किया था। उसने अपनी रिपोर्ट में ‘गौरक्षा’, ‘वंदे मातरम’, ‘तिरंगा’, ‘दंगा’, ‘हिंदी भाषा’ और ‘बहुसंख्यकवाद’ आदि विषयों को लेकर कांग्रेस को ‘सांप्रदायिक’ बताया था। बाद में अंग्रेजों और वामपंथियों के समर्थन से इन आरोपों को इस्लाम के नाम पर भारत के विभाजन हेतु मुख्य तर्क बनाया गया। यह इल्ज़ाम एक सदी बाद भी जस का तस है। तब यह आरोप इकबाल-जिन्नाह की मुस्लिम लीग ने वामपंथियों-अंग्रेजों के साथ मिलकर गांधी-पटेल-नेहरू की कांग्रेस पर लगाए थे और आज वही आक्षेप सोनिया-राहुल-प्रियंका की कांग्रेस मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों के साथ मिलकर मोदी-शाह-योगी की भाजपा पर लगा रही है।
चुनाव के दौरान एक टीवी साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, “मैं मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे लोगों को कहता हूं कि आत्म-मंथन करिए… ये आपके मन में जो है कि सत्ता पर हम बिठाएंगे, हम उतारेंगे, उसमें आप अपने बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हो।“ यहां प्रधानमंत्री मोदी की चिंता स्वतंत्र भारत के प्रथम उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की पीड़ा से मेल खाती है। 6 जनवरी 1948 को लखनऊ में उन्होंने कहा था, “मैं मुसलमानों का सच्चा मित्र हूं… मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि भारत के प्रति निष्ठा की घोषणा मात्र से बात नहीं बनेगी, उन्हें इसका व्यवहारिक सबूत देना होगा। …क्या भारत के विरुद्ध सभी आक्रामक कृत्यों की निंदा करना, उनका कर्तव्य नहीं? आप अन्य भारतीयों के साथ एक ही नाव में चलें और एक साथ डूबें या तैरें। आप दो घोड़ों पर सवार नहीं हो सकते।“ मुस्लिम समाज में इस दुविधा का संज्ञान देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी दूसरे शब्दों में लिया था। 24 जनवरी 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुस्लिम छात्रों से बोलते हुए पं.नेहरू ने कहा था, “…मुझे अपनी विरासत और पूर्वजों पर गर्व है, जिन्होंने भारत को बौद्धिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रदान की। आप इस इतिहास को कैसे देखते हैं? क्या आपको लगता है कि आप भी इस बेमिसाल विरासत के साझेदार हैं? या फिर आप यहां स्वयं को पराया समझते हैं?” आखिर क्यों 77 वर्ष बाद भी प्रधानमंत्री मोदी, पं.नेहरू और सरदार पटेल, मुस्लिम समाज पर लगभग एक जैसी चिंता प्रकट कर रहे हैं?
यह रोचक है कि जिन राज्यों में ‘वोट-जिहाद’ के कारण भाजपा अपने बलबूते बहुमत लाने से चूक गई, वह क्षेत्र स्वतंत्रता से पहले पाकिस्तान के लिए सर्वाधिक आंदोलित थे। उस समय मुस्लिम लीग का समर्थन, पाकिस्तान की हामी भरना था। तत्कालीन बंगाल, उत्तरप्रदेश, बिहार, बॉम्बे (महाराष्ट्र) आदि— जो आज भी खंडित भारत का हिस्सा है, वहां 85-100 प्रतिशत मुसलमानों ने मुस्लिम लीग का साथ दिया था। परंतु उनमें से अधिकांश कभी देश छोड़कर ही नहीं गए और कांग्रेस में शामिल होकर एकाएक ‘सेकुलर’ बन गए।
मुस्लिम लीग के ऐसे नेताओं में मुहम्मद इस्माइल भी शामिल थे, जो स्वतंत्रता से पहले मोहम्मद अली जिन्नाह और सांप्रदायिक आधार पर देश के विभाजन के कट्टर समर्थक थे। अपने सपनों का पाकिस्तान बनने के बाद इस्माइल न केवल लीग के अन्य कई नेताओं के साथ खंडित भारत में ठहर गए, साथ ही उन्होंने 1948 में मुस्लिम लीग के भारतीय संस्करण— इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आई.यू.एम.एल.) का गठन तक कर दिया। यह दल ‘सेकुलर’ तमगे के साथ भाजपा-विरोधी गठबंधन आई.एन.डी.आई.ए. गठबंधन में शामिल है। इसी दल के ई.टी. मोहम्मद बशीर ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के एकमात्र मुस्लिम प्रत्याक्षी अब्दुल सलाम को केरल की मलप्पुरम सीट पर साढ़े पांच लाख से अधिक वोट से हराया है।
कटु सत्य तो है कि भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग को वही मुस्लिम नेता ही पसंद है, जो विचारों से कट्टरपंथी हो या फिर वे उन्हीं स्वयंभू ‘सेकुलर’ दलों के अधिकांश निकट रहते है, जो इस्लामी कट्टरता को पुष्ट करने में उनका प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग करते है। यही कारण है कि उन्हें पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम सरीखे मुसलमानों के बजाय मोहम्मद शहाबुद्दीन, अतीक अहमद, आज़म खान और अंसारी-औवेसी बंधु जैसे मुस्लिम राजनीतिज्ञ अधिक भाते है। यक्ष प्रश्न है— जब आजादी से पहले गांधी-नेहरू-पटेल भारतीय मुसलमानों का मन नहीं जीत पाए, तो क्या अब इसमें मोदी-शाह-योगी सफल हो सकते है?
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)