आडुजीवितम : द गोट लाइफ
दिवस गौड़
आडुजीवितम : द गोट लाइफ
गल्फ देशों में सम्पन्नता के सपने लेकर गए गरीब एवं विकासशील देशों के मजदूरों की सत्य घटनाओं पर आधारित एक दर्दनाक कहानी है फिल्म आडुजीवितम : द गोट लाइफ (Aadujeevitham : The Goat Life)। 2024 में एक भारतीय एवं एक अमरीकी कंपनी के संयुक्त तत्वावधान में बनी बहुत ही कम बजट की यह फिल्म भारत में ही नहीं अपितु कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी चर्चा का विषय बनी और अब तक 150 करोड़ से अधिक की कमाई कर चुकी है।
पराधीनता से प्रताड़ित एवं अपनी स्वाधीनता के लिए भागकर आए तीन लोगों की अरब के रेतीले रेगिस्तान में सर्वाइवल की इस कहानी के केन्द्र में है केरल, भारत का एक मलयाली मुस्लिम मजदूर नजीब मोहम्मद। नजीब अपने परिवार की खुशहाली के लिए पैसे कमाने सउदी अरब जाने का निर्णय लेता है। नजीब के ही साथ एक अन्य मलयाली मुस्लिम मजदूर हाकिम भी सउदी अरब जाने का निर्णय लेता है। इस काम में इन दोनों की सहायता एक भारतीय कॉन्ट्रेक्टर श्रीकुमार करता है। वह उन्हें सउदी में एक कंपनी में सहायक के कार्य के लिए भेज देता है। सउदी पहुंचने के बाद वहां की भाषा की अनभिज्ञता के कारण वे दोनों एक अरबी कफील के कब्जे में फंस जाते हैं। कफील वह व्यक्ति होता है जो गरीब लोगों से गुलामी करवाता है। गल्फ देशों की चकाचौंध में यह सत्य दुनिया को दिखाई ही नहीं देता कि वहां आज भी बंधुआ मजदूरी वैध है एवं ऐसे कफीलों को वहां की राज सत्ताओं का प्रश्रय मिला हुआ है।
वह कफील इन दोनों को अलग-अलग मसारों में भेज देता है। मसारा एक प्रकार का तबेला होता है जो अरब के रेतीले रेगिस्तान के बीच स्थित होता है। वहां कुछ भेड़-बकरियां व ऊंट होते हैं। जिनकी देखभाल के लिए ऐसे दासों की आवश्यकता होती है। नजीब जिस मसारा में पहुंचता है, वहां सिर्फ एक फटा हुआ टेन्ट है, जिसमें भी कफील के दो पहरेदार रहते हैं, जो इस दास पर नजर रखते हैं कि यह भाग ना जाए। उसे चार वर्ष बीत जाते हैं, जब वह एक बार भी नहाया नहीं होता है। यहां तक की शौच के लिए भी पानी नहीं मिलता उसे। उसे बेरहमी से पीटा जाता है। खाने के लिए केवल एक सूखी रोटी मिलती है, जिसे थोड़े से पानी में डुबोकर खाना पड़ता है। दर्दनाक यातनाएं झेलता नजीब पूरी तरह से टूट जाता है। एक दिन उसे रेगिस्तान में भेड़ बकरियां टहलाते हुए हाकिम मिल जाता है, जिसकी हालत भी ऐसी ही है। हाकिम बताता है कि उसे किसी दूसरे मसारा का एक अफ्रीकी गुलाम इब्राहिम कादिरी भी मिला है। ये तीनों मिलकर वहां से भागने की योजना बनाते हैं।
परन्तु अरब के इस रेतीले रेगिस्तान में भयंकर रेतीले तूफानों से जूझते व कई दिन भूखे-प्यासे भटकते भटकते पहले हाकिम व बाद में इब्राहिम की मृत्यु हो जाती है। नजीब किसी तरह जीवित बच जाता है और बेहद दयनीय स्थिति में वह कई दिनों बाद एक सड़क देखता है। जहां एक व्यक्ति उसे शहर तक छोड़ देता है। शहर के एक भारतीय होटल वाले उसे सहारा देते हैं, व भारत मे उसके घर सम्पर्क करते हैं।
इतना ही काफी नहीं था। अरब के कानूनों के अनुसार, उसे पहले जेल में रखा जाता है व उसके कफील की खोज की जाती है ताकि वे उसे फिर से मसारा भेज सकें। परन्तु सौभाग्य से वह बच जाता है और अंत में अपने घर पहुंचता है।
फिल्म की कहानी बताने का प्रयोजन यह है कि इक्कीसवीं सदी में जी रही दुनिया एवं सम्पन्नता के शिखर पर बैठे गल्फ देशों में एशिया,अफ्रीका आदि देशों से आए अनेक मजदूर आज भी वहां ऐसा दर्दनाक जीवन जी रहे हैं। वहां आज भी यह सब वैध है। शहरी चकाचौंध अरबी देशों की बहुत छोटी सी सच्चाई है। आज भी अधिकतर जनसंख्या वहां कबीलों में रह रही है, जो बाकी दुनिया देख ही नहीं पाती। भारत में रहने वाले मुसलमान बडी शान से कहते हैं कि हमने भारत पर आठ सौ वर्ष राज किया है। परन्तु स्वयं को अरबी समझने वाले इन भारतीय मुसलमानों को आज भी वहां मुस्लिम पहचान नहीं मिली है। अरबी लोग भारतीय मुसलमानों को ‘हिन्दी’ कहकर पुकारते हैं। दुनिया भर के अलग-अलग देशों में रहने वाले मुसलमानों को पता ही नहीं है कि अरबी मुसलमानों को उनसे कोई लगाव नहीं है। भारत में रहने वाले मुस्लिम यहां भारत को कितना भी असहिष्णु कह लें, व अरब से अपना नाता जोड़ें, परन्तु जब उन्हें यह सच्चाई पता चलेगी, तब उन्हें भारत की महत्ता समझ आएगी कि यहां वे कितने सुकून में और सुरक्षित हैं। नजीब को भी अंत में यह समझ आता है कि उसका घर, उसका देश कितना अच्छा है। यह फिल्म सच में एक संदेश है दुनियाभर के सभी मुसलमानों के लिए जो अरब को अपना मूल मानते हैं। इसीलिए सउदी अरब सहित उसके समर्थित कई देशों में इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा हुआ है।
ब्लेसी द्वारा निर्देशित मूल रूप से मलयालम एवं इसके अतिरिक्त तमिल, तेलुगु, हिन्दी, अंग्रेजी जैसी कई भाषाओं में इस फिल्म को उतारा गया है। फिल्म में किसी अरबी को नमाज पढ़ते नहीं दिखाया गया है। फिल्मांकन बेहतरीन कहा जा सकता है। जॉर्डन एवं अल्जीरिया के मीलों दूर फैले रेगिस्तान के दृश्य बहुत भयावह लगते हैं। रेतीले तूफानों के दृश्य देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फिल्म का सबसे दर्दनाक दृश्य वह है, जब नजीब को एक स्थान पर गिद्धों का झुंड दिखाई देता है। पास जाकर देखने पर पता चलता है कि वे एक मानव शव को खा रहे हैं, जो एक बूढे गुलाम का है, जो नजीब के मसारा आने के कुछ दिन बाद ही गायब हो गया था। पता चलता है कि उसे कफील ने अधमरी हालत में रेगिस्तान में फेंक दिया था, जहां गिद्धों ने उसे जिन्दा ही नोच खाया।
नजीब के किरदार में पृथ्वीराज सुकुमारन ने बेहतरीन अभिनय किया है। इस किरदार के लिए सुकुमारन ने बहुत मेहनत की है। फिल्म के आरम्भ में हट्टा कट्टा नजीब फिल्म के अंत तक सूख कर इतना पतला हो जाता है कि उसकी पसलियां दिखने लगती हैं। हाकिम और इब्राहीम का भी ऐसा ही हाल है। इस फिल्म के लिए इन कलाकारों ने अपने शरीर को ऐसा बना लिया।
लगभग तीन घंटे की फिल्म में इतनी कसावट है कि प्रारंभिक चालीस-पचास मिनट के बाद आप एक भी बार आंख नहीं झपका सकते, हिल डुल नहीं सकते, पानी भी नहीं पी सकते। यह फिल्म आपको ऐसे बांध लेती है कि आप इसमें खोकर बाकी दुनिया को भूल जाते हैं व नजीब के दर्द को अनुभव करने लगते हैं।