गीता सामान्य अर्थों में उपदेश ग्रंथ नहीं है
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प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
गीता सामान्य अर्थों में उपदेश ग्रंथ नहीं है
सामान्यतः सभी धार्मिक अभिरुचि वाले हिन्दू सर्वसम्मति से ईसाइयों और यूरोपियों द्वारा किये गये बौद्धिक छल को स्मरण करते रहते हैं और यह चर्चा करते रहते हैं कि इन्होंने बौद्धिक स्तर पर गहरा आघात किया है। परन्तु वह आघात क्या है और कितना गहरा है, इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती। भारतीय शास्त्रों को लेकर सर्वाधिक छल यूरोपीय ईसाइयों ने किया और उनके भारतीय चेले कर रहे हैं। यह छल बहुत गहरा है और बहुआयामी है। अनुवाद में किया गया छल इसका ही एक अंग है। धर्म को ‘रिलीजन’ (religion) कहना, मोक्ष को ‘साल्वेशन’ (salvation) कहना, मुक्ति को ‘लिबरेशन’ (liberation) कहना, स्वतंत्रता को ‘फ्रीडम’ कहना, राज्य को ‘स्टेट’ कहना, उपदेश को ‘सर्मन’ कहना या सर्मन को ‘उपदेश’ कहना, ‘थियालॉजी’ को ब्रह्मविद्या कहना, ‘आइडियोलॉजी’ को “विचारधारा” कहना ऐसा ही बौद्धिक छल है। परन्तु 77 वर्षों से सरकार के द्वारा इस छल को अधिकृत ज्ञान प्रचारित कर दिया गया है और सरकार द्वारा प्रकाशित ग्रंथों में इसी छल को सत्य की तरह प्रस्तुत किया गया है।
इसलिये उपदेश का अर्थ हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में ‘सर्मन’ के रूप में ही लिया जाता है। जबकि सर्मन वस्तुतः ईसाइयों के सम्मेलन में नैतिक उपदेश को ही कहते हैं और न्यू बाइबिल में यानी न्यू टेस्टामेंट में ‘सर्मन ऑन दि माउंट’ में दिये गये सर्मन को उपदेश कहते हैं। यद्यपि वह स्पष्ट रूप से रिलिजियस निर्देश है और ईसाई नैतिकता के निर्देशों को ही ‘सर्मन’ कहा जाता है। बलपूर्वक कोई नैतिक निर्देश ही ‘सर्मन’ है। जबकि उपदेश का जो संस्कृत मूल का अर्थ है उसमें वह मात्र ‘कथन’ है। शंकराचार्य जी महाराज ने श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय 4 के श्लोक 34 में आये ‘उपदेक्ष्यन्ति’ शब्द का अर्थ करते हुये लिखा है –
‘उपदेक्ष्यन्ति कथयिष्यन्ति’।
अतः श्लोक और उसका मूल अर्थ है –
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शितनः।।34।।
अर्थात तत्वदर्शी ज्ञानी के पास जाकर उन्हें दण्डवत प्रणाम करके सेवाभाव के साथ परिप्रश्न करना चाहिये। तब वे ज्ञान का कथन (उपदेश) करेंगे। आगे के श्लोक में कहा है कि वह ज्ञान पाकर तुम पुनः ऐसे मोह में नहीं पड़ोगे जैसे अभी पड़ गये हो। क्योंकि तब तुम देख लोगे कि ‘समस्त प्राणी और महाभूत मुझमें ही स्थित हैं।’
इस प्रकार भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कोई नीतिशास्त्र का उपदेश उस अर्थ में नहीं दिया है जैसा इन दिनों ‘सर्मन’ को उपदेश कहा जाता है। यह करो, यह न करो, यह कहीं भी नहीं कहा है। ऐसा करने से यह परिणाम होता है या हो सकता है और वैसा करने से वह परिणाम होता है या हो सकता है (परिणाम दैवाधीन है, परंतु कर्मफल से सम्बद्ध है), यही सब जगह कहा है और इसीलिये सबसे अंत में अध्याय 18, श्लोक 63 में भगवान ने कहा है –
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यद् गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरू।।
अर्थात यह परम गोपनीय ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। तू इस पर भलीभांति विमर्श कर ले और फिर जैसा चाहता है, वैसा कर।
इस प्रकार वस्तुतः गीता तत्वज्ञान है। आधुनिक पदावली में कह सकते हैं कि वह गहरा दार्शनिक विश्लेषण है। जिसमें कार्यकारण संबंध की गहरी मीमांसा है। आप किस प्रकार का कर्म करेंगे तो उससे क्या फल मिलेगा, यह बताया गया है। आप अपने संस्कार और आकांक्षा के अनुरूप अभीष्ट कर्म का चयन कर लें और उसके संभावित फल के लिये तैयार रहें। यद्यपि प्रारब्ध और दैववश वह फल नहीं भी मिल सकता। यही गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने लगातार बताया है।
हमारे सभी शीर्षज्ञानी यही करते हैं। वे केवल कार्यकारण संबंध को समझा देते हैं। तथागत बुद्ध ने भी सदा यही कहा कि ‘मुझे यह दीखता है। यदि तुम्हें भी मेरा ज्ञान, मेरी दृष्टि सम्यक् लगे और तुम प्रज्ञा-सम्पन्न होना चाहो, तो मैं कर्तव्य-भाव से कुछ सुझाव संकेत दे सकता हूँ। उनके द्वारा तुम आत्मदीप बनोगे, आत्मज्योति बनोगे। यह मेरा बोध है। उसके बारे में अपनी दृष्टि तुम स्वयं अर्जित करोगे- अपने संयम से, वीरता से, पुरूषार्थ से।’
यह है उपदेश का भारतीय मार्ग। वह शिष्य या श्रोता को लुभाता या डराता-धमकाता नहीं कि तुम यह करोगे तो गॉड या अल्लाह अमुक इनाम देंगे या अमुक सजा देंगे। वहाँ केवल कार्यकारण संबंध समझाया जाता है। आप कार्यकारण की यज्ञीय प्रक्रिया से अनुशासित हैं। यह ब्रह्माण्डीय अनुशासन है। इस अनुशासन की मर्यादा में अपनी आकांक्षा और संस्कार के अनुरूप अथवा अपने द्वारा अर्जित बोध के अनुरूप कर्म चुनने के लिये आप स्वतंत्र हैं। कर्म में ही आपका अधिकार है। फल तो ब्रह्माण्डीय अनुशासन के अधीन है।
गीता शास्त्रीय अर्थ में उपदेश है अर्थात कथन है। वह अंग्रेजी के निम्नस्तरीय अनुवाद और नकल के रूप में प्रचलित अर्थों वाला यानी सर्मन वाला उपदेश नहीं है। वह आपको ज्ञान देती है, कोई प्रलोभन या भय या धमकी नहीं देती। जैसा एकपंथवादी और ममेश्वरवादी मजहबों और रिलीजन में दिया जाता है।
गीता को सचमुच व्यापक संदर्भ में समझना है तो सम्पूर्ण महाभारत का भी पाठ और अध्ययन अवश्य करना चाहिये। यह तो कभी भूलना ही नहीं चाहिये कि गीता महाभारत का ही एक अंश है।