कैसे साकार हुआ गोवा मुक्ति का संकल्प
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
कैसे साकार हुआ गोवा मुक्ति का संकल्प
स्वतंत्रता प्राप्ति और विभाजन के पश्चात तत्कालीन रियासतों, स्वतंत्र प्रांतों का भारतीय संघ के तौर पर एकीकरण सबसे बड़ी चुनौती था। इस ऐतिहासिक कार्य को लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दूरदृष्टि से मूर्तरूप देने का कार्य किया। इन रियासतों के अतिरिक्त भारतीय उपमहाद्वीप के कई क्षेत्र यथा — गोवा, दमन-दीव, दादरा एवं नगर हवेली इत्यादि सन् 1954 के पूर्व फ्रांस और पुर्तगाल शासन के अधीन थे। ‘पुर्तगाल सरकार’ इन क्षेत्रों पर अपना आधिकारिक सैन्य शासन करती थी। ये वही क्षेत्र हैं, जिनका धार्मिक-पौराणिक ग्रंथों में वर्णन है। गोवा के इस पावन भू-भाग का भगवान परशुराम की पुण्यभूमि ‘कोंकण’ के तौर पर पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। किन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि निकृष्ट, बर्बर, क्रूर अरबों-तुर्कों, मुगलों तथा अंग्रेजी परतंत्रता की बेड़ियों समेत पुर्तगालियों ने इस पवित्र भूमि को अपने अधीन कर सदियों तक परतंत्रता की त्रासदी में जकड़े रखा था। जब भारतीय चेतना जगी तो लुटेरों के अत्याचारों की नींव पर खड़े किले पर किले ढहने लगे। इसी क्रम में गोवा, दमन-दीव, दादरा एवं नगर हवेली की स्वतंत्रता की गाथा सुदीर्घ संघर्षों की कथा कहती है। यह अपने आप में स्वातंत्र्योत्तर भारत के संघर्ष की अपनी एक अलग कहानी है। उस समय जमीनी संघर्ष और क्रांति की चिंगारी जलाने के लिए अखण्ड भारत के मतवाले अपने प्राणों की चिंता किए बिना स्वयं की शक्ति से स्वतंत्रता की आहुति में कूद पड़े थे।
स्वतंत्र हुए दादरा और नगर हवेली
स्वाधीन भारत की 31 जुलाई सन् 1954 की तारीख उस स्वर्णिम अध्याय के तौर पर दर्ज है, जो अपने आप में ऐतिहासिक है। उस दिन आजाद गोमांतक दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवी कार्यकर्ता दादरा-नगर हवेली को पुर्तगाल शासन से मुक्त कराने के लिए आगे बढ़ चले। रात्रि में भीषण बारिश होने के बावजूद भी अपने अदम्य साहस और शौर्य के चलते पुर्तगाली सैनिकों को परास्त किया। इस प्रकार सुदीर्घ संघर्षों के फलस्वरूप 2 अगस्त सन् 1954 को दादरा-नगर हवेली में भारत का तिरंगा ध्वज फहराकर पुर्तगालियों की परतंत्रता से मुक्ति मिली। इसकी पूर्व पीठिका मुंबई में तैयार हुई जहां यूनाइटेड फ्रंट आफ गोवन (UFG ) संगठन ने इसे साकार किया। इस अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका विनायक राव आप्टे के नेतृत्व में 40-50 संघ के स्वयंसेवकों और आजाद गोमांतक दल के प्रभाकर विट्ठल सेनारी और प्रभाकर वैद्य के नेतृत्व में आए कार्यकर्ताओं की थी। मुक्ति के बाद परिस्थितियां सामान्य होने पर 15 अगस्त सन् 1954 को दादरा और नगर हवेली में पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। आगे चलकर संवैधानिक और राजनीतिक दृष्टि से दादरा और नगर हवेली को 10 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1961 के अन्तर्गत संघ शासित क्षेत्र में सम्मिलित किया गया।
कहानी गोवा मुक्ति संग्राम की
अब कहानी गोवा मुक्ति संग्राम की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दृष्टि प्रारंभिक काल से ही महाभारत कालीन आर्यावर्त्त की पवित्र पुण्य भूमि के स्वरूप को मानस पटल पर अंकित कर ‘अखण्ड भारतवर्ष’ के निर्माण की रही है। इसी कड़ी में जब ‘गोवा’ को भारतीय क्षेत्र में सम्मिलित करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को संघ, जनसंघ और गोवा मुक्ति के लिए काम करने वाले नेतृत्वकर्ताओं ने सशस्त्र हस्तक्षेप/ सैन्य कार्रवाई करने को कहा तो उन्होंने इससे इनकार कर दिया था। नेहरू गोवा मुक्ति के लिए अन्तरराष्ट्रीय राजनीति की ओर देख रहे थे। वो इसका कूटनीतिक हल निकालने की सोच रहे थे। उनका मत था कि—पुर्तगाल NATO का सदस्य है। साथ ही कश्मीर को लेकर भी विवाद चल रहा है। ऐसे में भारत की तरफ से सैनिक कार्यवाही उचित नहीं हैं। इस प्रकार नेहरू ने गोवा मुक्ति को लेकर अपनी अस्वीकृति स्पष्ट रूप से प्रकट कर दी थी।
धधक उठी गोवा मुक्ति की ज्वाला
प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा ‘गोवा मुक्ति’ के प्रस्ताव को अस्वीकृत करने के बाद भी माँ भारती के अखण्ड स्वरूप की झाँकी ह्रदय में बसाए हुए सपूतों ने अपना लक्ष्य सुनिश्चित कर लिया था। उन्होंने यह तय किया था कि-चाहे जो हो जाए हमारी भारतमाता की पुण्यभूमि के आधे इंच पर भी विदेशी सत्ता नहीं टिक सकती। इस प्रकार वर्ष 1955 में गोवा मुक्ति की ज्वाला धधक उठी । गोवा के स्वातंत्र्य संघर्ष में धार्मिक-सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर सभी एकजुट होकर उठ खड़े हो गए। उन मतवालों के ह्रदय में स्वतंत्रता की जो क्रांति धधक रही थी। उसमें सभी ने अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य अनुसार आहुतियां सौंपीं। गोवा के स्वातंत्र्य यज्ञ में – उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को स्वयंसेवक सुधीर फड़के ‘बाबूजी’ ने सांस्कृतिक आधार पर एकजुटता का परिचय दिया। उन्होंने उस समय समरसता के आधार पर जनसामान्य को एकत्रित करने का अतुलनीय कार्य किया था। भारत की प्राचीनतम् परम्परा के अनुसार मातृशक्ति जब चण्डी का स्वरूप ग्रहण करती है तो किसी भी कार्य की पूर्णता स्वमेव सुनिश्चित हो जाती है। गोवा का स्वातंत्र्य समर भी उस शक्ति के तपबल से परिपूर्ण रहा। गोवा मुक्ति आन्दोलन के लिए जाने वाले वीर सपूतों को सरस्वती आपटे ‘ताई’ के नेतृत्व में राष्ट्रीय सेविका समिति भोजन की व्यवस्था करती थी।
मुक्ति आन्दोलन में बलिदान और सरकार की रोक
गोवा मुक्ति आंदोलन के प्रारम्भिक दिनों में ही मध्यप्रदेश के उज्जैन से गोवा की स्वतंत्रता के लिए गए- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक राजाभाऊ महाकाल का पुर्तगाली सेना की गोली लगने के चलते बलिदान हो गया। इसके बाद देश की जनता ने प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार से हस्तक्षेप करने, आंदोलनकारियों की सहायता करने की पुनः मांग उठाई। किन्तु सरकार ने मांग को तो ठुकराया दिया और आंदोलनकारियों के गोवा जाने पर रोक लगानी शुरू कर दी। एक ओर मुक्ति संग्राम में जाने वाले सत्याग्रहियों पर पुर्तगाली सेना बर्बर अत्याचार कर रही थी।आंदोलन का दमन कर नृशंसता की सीमाएं लांघ रही थी। इधर नेहरू सरकार रोक लगा रही थी।
नेहरू सरकार की इस रोक के विरुद्ध उस समय जनसंघ ने मुखर विरोध करते हुए कहा कि — “गोवा की समस्या को शांति से सुलझाने का आग्रह और बड़ी संख्या में सत्याग्रह पर रोक ये दोनों कैसे चल सकते हैं? सत्य तो यह है कि पुर्तगाल शांति की भाषा नहीं समझता। वह एक अधिनायकवादी शासन है जो गोवा में ही नहीं पुर्तगाल में भी आतंककारी उपायों से काम ले रहा है। सत्याग्रह भी जैसा चल रहा है वहाँ इकतरफा शांति है। पुर्तगाली तो जघन्य अत्याचार करके अशांति उत्पन्न कर ही रहे हैं। यदि भारत सरकार पुलिस कार्रवाई नहीं करना चाहती तो जन-सत्याग्रह पर क्यों रोक लगाई जाती है? कांग्रेस इसका उत्तर नहीं दे सकती। जनसंघ के अनुसार कांग्रेस का दावा कि गोवा भारत का अंग होकर रहेगा एक सत्य का ही निरूपण है। आज इसकी घोषणा की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता तो उस नीति निर्धारण की है जिसके अनुसार गोवा-भारत का अंग हो जाए। कांग्रेस ने इस दृष्टि से देश को इस समय बड़ा धोखा दिया है तथा गोवा आंदोलन के एक नेता के शब्दों में आंदोलन की पीठ में छुरा भोंकने का प्रयत्न किया है।
(पाञ्चजन्य, 1 अगस्त, 1955)
गोवा मुक्ति संग्राम और बलिदान
अब, बात इतिहास के पन्नों में 13 जून सन् 1955 की तारीख की… इसी दिन से कर्नाटक से भारतीय जनसंघ के नेता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जगन्नाथ राव जोशी ने गोवा सत्याग्रह की शुरुआत की थी। ‘गोवा मुक्ति अभियान’ का शंखनाद कर दिया था। फिर सत्याग्रह में राष्ट्रवाद की रणभेरी ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ और वन्देमातरम, भारतमाता के जयकारों से गूँज उठी। इस अभियान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जगन्नाथ राव जोशी के साथ लगभग 3 हजार की संख्या में ‘गोवा मुक्ति’ के लिए वीर व्रतधारी कार्यकर्ताओं का एक दल कूच करने गया था। पुरुषों के साथ-साथ इस अभियान में मातृशक्ति ने भी बढ़- चढ़कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके पूर्व 15 जून सन् 1946 को डॉ. रामनोहर लोहिया ने गोवा की जनता को पुर्तगाल शासन से मुक्ति के लिए सभा की थी। 18 जून सन् 1946 से सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया था। इस आन्दोलन में उन्होंने गोवा के लोगों का पुर्तगाल शासन के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए आह्वान किया था। इससे वहाँ के जनसामान्य में पुर्तगाल उपनिवेश के विरुद्ध क्रांति की चिंगारी सुलग चुकी थी।
आगे गोवा की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की धार और तेज होती चली गई। 15 अगस्त सन् 1955 के दिन जब सम्पूर्ण देश में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ स्वतंत्रता दिवस की 9 वीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी। उस समय माँ भारती के लाड़ले वीर पुत्र वन्देमातरम के जयगान के साथ गोवा की मुक्ति के लिए आगे बढ़ रहे थे। माँ भारती के वीर सपूत बर्बर पुर्तगालियों की बन्दूकों की गोलियाँ को सहज ही अपने सीने में सहन कर रहे थे। गोवा मुक्ति के यज्ञ में आहुति बनकर वीरों की तरह आगे बढ़ रहे थे। इस सत्याग्रह में एक-दो नहीं बल्कि 51 की संख्या में वीर पुत्रों ने मां भारती की अखण्डता की बलिवेदी में ‘गोवा मुक्ति’ के लिए जीवन रुपी आहुति समर्पित की थी। इस सत्याग्रह में पुर्तगाली सेना की गोलियों से लगभग 3 सौ सत्याग्रही घायल हो गए थे। यह पुर्तगाली गोलीकांड स्वतंत्र भारत के दूसरे ‘जलियांवाला बाग हत्याकांड’ की भाँति ही था।
पुर्तगाली सेना का अत्याचार और ‘संघ-जनसंघ’ का प्रतिकार
सत्याग्रहियों पर पुर्तगाली सेना के अत्याचार कर पाञ्चजन्य की यह रिपोर्ट प्रकाश डालती है — “पुर्तगाली शासन के अत्याचारों के परिणामस्वरूप अखिल भारतीय जनसंघ के मंत्री ‘कर्नाटक केसरी’ जगन्नाथ राव जोशी तथा महाराष्ट्र जनसंघ के उपाध्यक्ष अण्ण साहेब कवड़ी की स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गई थी। इसके अतिरिक्त जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में गोवा में प्रविष्ट होने वाले जनसंघ के जत्थे के दो सत्याग्रहियों की भयंकर यातनाओं के परिणाम स्वरूप मृत्यु हो गई थी।इन बलिदानियों में से एक मथुरा के अमीरचंद गुप्त भी थे।” (पाञ्चजन्य, 1955)
गोवा मुक्ति आन्दोलन के दौरान पाञ्चजन्य ने 22 अगस्त 1955 को इस पर अपनी रिपोर्ट दर्ज की और लिखा कि —
“15 अगस्त को इधर तो गगन मण्डल में सूर्य का आगमन हुआ उधर सत्याग्रहियों की टोलियों ने ‘पुर्तगालियों भारत छोड़ो’ के जयघोष के साथ गोवा की सीमा में प्रवेश किया। सीमा पर तैनात पुर्तगाली सैनिकों ने निहत्थे सत्याग्रहियों पर अपनी ब्रोनगनों, स्टेनगनों, रायफलों तथा बन्दूकों के मुंह खोल दिए। एक-के-बाद दूसरा सत्याग्रही बलिदान होने के लिए बढ़ने लगा। मौत से जूझने की होड़ लग गई। एक दिन में 5000 सत्याग्रही गोवा की सीमा में प्रविष्ट हुए जिनमें से 51 के लगभग का घटनास्थल पर बलिदान हो गया तथा 3 सौ से ऊपर घायल हो गए। इस अहिंसात्मक संग्राम में पुरुषों ने जिस वीरता का परिचय दिया। उससे कहीं अधिक वीरता का प्रदर्शन महिलाओं ने किया। 40 वर्षीया सुभद्रा बाई ने तो झांसी की रानी की ही स्मृति जाग्रत कर दी। आपने पुरुष सत्याग्रही से झण्डा छीनकर स्वयं छाती पर गोली खाकर अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।”
पुर्तगाली सेना की आंदोलनकारियों के विरुद्ध क्रूरता का प्रतिकार करते हुए 1955 में जनसंघ की सार्वजनिक सभा में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि — “पुर्तगाली शासन बर्बर अत्याचारों से जनता को भयभीत करके भारतीयों को गोवा में आंदोलन करने से रोकना चाहता है किंतु भारतवासी डरते नहीं है। वे पुर्तगाली अत्याचारों के सम्मुख किंचित भी नहीं झुकेंगे। जनसंघ इसके पश्चात बड़ी संख्या में सत्याग्रही भेज कर आंदोलन को प्रबल बनाएगा। इतना ही नहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने तत्कालीन गृहमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पंत को तार भेजकर — अमीरचंद की मृत्यु की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए जगन्नाथ राव जोशी आदि सत्याग्रहियों की सुरक्षा की माँग की थी।
इस संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि — “गोवा में पुलिस कार्रवाई करने और गोवा को मुक्त कराने का इससे अच्छा अवसर कोई न आएगा। इससे हमारी अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और आसपास के जो राष्ट्र सदा हमें धमकाते रहते हैं। उन्हें भी पाठ मिल जाएगा। भारत सरकार ने गोवा मुक्ति आन्दोलन का साथ न देने की घोषणा करके मुक्ति आन्दोलन की पीठ में छुरा मारा है। भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय नागरिकों पर हुए इस अमानुषिक गोलीबारी का प्रत्युत्तर दे और मातृभूमि का जो भाग अभी तक विदेशियों की दासता में सड़ रहा है, उसे अविलम्ब मुक्त करने के उपाय करे।”
( पाञ्चजन्य 22 अगस्त, 1955 )
गोवा मुक्ति आंदोलन – कांग्रेस और जनसंघ
उस समय जनसंघ ने ‘गोवा मुक्ति’ सत्याग्रह के दौरान पुर्तगाली शासन की क्रूरता और सत्याग्रहियों की मौत पर कड़ा रुख अपनाया था। संघ और जनसंघ के स्वयंसेवक/ कार्यकर्ता एक ओर आंदोलन में आर-पार की लड़ाई लड़ रहे थे तो दूसरी ओर गोवा मुक्ति के लिए भारत सरकार कार्रवाई करने का दबाव बना रहे थे। स्वातंत्र्य वीरों की आहुति, निष्ठा, त्याग, साहस ,शौर्य और जनसंघ की रणनीति ने अन्ततोगत्वा वह कर दिखलाया जिससे गोवा मुक्ति का संकल्प साकार होना था। ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि — उस समय भारत के विभिन्न दल गोवा सत्याग्रह में भाग ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष के आदेशानुसार कांग्रेसजन इस आंदोलन से दूर रहे। आए। गोवा मुक्ति आन्दोलन में प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार और जनसंघ के बीच जो टकराव थे वो इस संदर्भ में कई सारे प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं। यद्यपि उसी बीच 23 जुलाई, 1955 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक इस प्रश्न पर विचार करने के लिए बुलाई गई, जिसमें कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया। इसमें चार मुख्य बातें थी –
1.गोवा का आंदोलन प्रधानत: गोवावासियों को चलाना चाहिए
2. भारत से बड़ी संख्या में सत्याग्रही न जाएँ
3.गोवा की समस्या शांतिपूर्ण ढंग से ही सुलझानी चाहिए
4. गोवा भारत का होकर रहेगा
कांग्रेस के प्रस्ताव की उपर्युक्त बातों को जनसंघ ने एक-दूसरे का विरोधी और सभी बिन्दुओं को निराधार एवं गलत बताया। जनसंघ के अनुसार गोवा का आंदोलन प्रधानत: गोवावासियों के द्वारा चलाए जाने की माँग करने का अर्थ है कि- प्रथमत: हम गोवावासियों को भारतीयों से अलग समझते हैं। गोवा भारत का अंग होने के कारण गोवा की स्वाधीनता भारत की स्वाधीनता का ही भाग है। इसीलिए यह प्रधानत: भारतवासियों का जो स्वाधीन हो चुके हैं उनका प्रथम कर्तव्य है कि वे अपने उन भाईयों की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करें जो अभी भी पराधीनता के पाश में बँधे हैं।
कांग्रेस, जनसंघ और तत्कालीन घटनाक्रमों पर ये संदर्भ भी उल्लेखनीय और प्रासंगिक हैं —“कांग्रेस के प्रस्ताव के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि आंदोलन की मुख्य जिम्मेदारी विरोधी दलों के ऊपर थी। भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष प्रेमनाथ डोगरा ने कई पत्र सभी दलों के नेताओं को लिखे। अधिकतर दलों ने गोवा मुक्ति के लिए जनसंघ को समर्थन देने से दूरी बना ली। जनसंघ की मांग थी कि एक अखिल भारतीय स्तर पर सर्वदलीय समिति का निर्माण किया जाए। कांग्रेस के सदस्य भी जनता के मन में यह भ्रम पैदा करने का प्रयत्न कर रहे थे कि सरकार की नीति ठीक है और कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव पास करने के बाद कुछ बचा नहीं। यद्यपि आगे चलकर सत्याग्रहियों की भावनाओं का आदर करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी गोवा-संबंधी नीति में कुछ परिवर्तन भी किया। उन्होंने घोषणा की है कि दिनांक 8 अगस्त, 1955 से भारत में पुर्तगाली दूतावास बंद कर दिया जाएगा।प्रधानमंत्री नेहरू ने यह भी स्वीकार किया था कि पुर्तगाल बातचीत करने के लिए तैयार नहीं है। जनसंघ के अनुसार, “समझौता न होने और भारत सरकार द्वारा पुर्तगाली दूतावास बंद करने के निर्णय के बाद पुलिस कार्रवाई अथवा शांतिपूर्ण जन-सत्याग्रह दो ही मार्ग रह जाते हैं। आश्चर्य का विषय है कि प्रधानमंत्री नेहरू इन दोनों के ही लिए तैयार नहीं हैं। ऐसी स्थिति में गतिरोध उपस्थित हो जाता है। यदि भारत की जनता नेहरू सरकार पर और दबाव डाले तो उसे कोई सक्रिय कदम उठाने पर मजबूर किया जा सकता है।”
(पाञ्चजन्य ,1 अगस्त 1955)
अब,आगे बढ़ते हैं इतिहास की तारीख यानी — 1 सितंबर सन् 1955 को जब गोवा में भारतीय कॉन्सुलेट को बंद कर देने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि —
“सरकार गोवा में पुर्तगाल की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं करेगी”
प्रधानमंत्री नेहरू के इस निर्णय के बाद स्थिति परिवर्तित होने लगी।उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ पुर्तगाल को लेकर सही थे। इस प्रकार के गोवा मुक्ति को लेकर 1955 से 1961 तक अनेकानेक आंदोलन चलते रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ , आजाद गोमांतक दल समेत वो दल और संगठन जो गोवा को अखण्ड भारत का अविभाज्य अंग मानते रहे, उन्होंने अपना प्राणोत्सर्ग करते हुए भी गोवा मुक्ति संग्राम की ज्वाला ह्रदय में जलाए रखी।
ऑपरेशन विजय, लहराया तिरंगा शान से
आगे चलकर वर्ष 1961 में भी जब भारत सरकार के हस्तक्षेप के उपरांत भी जब पुर्तगाल शासन ने भारत को सौंपने से इनकार कर दिया। ऐसी स्थिति में अंततोगत्वा गोवा-दमन-दीव की स्वतंत्रता के लिए सरकार ने तीनों सेनाओं को सशस्त्र तौर पर कार्रवाई करने की अनुमति दे दी। यह उसी बात की स्वीकारोक्ति थी जो संघ और जनसंघ की ओर से 1954-55 से मांग उठाई जाती रही। गोवा मुक्ति के लिए सत्याग्रह और आंदोलन किए जाते रहे। भारतीय वायुसेना सेना ने 2 दिसंबर को ही एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के नेतृत्व में ‘गोवा मुक्ति अभियान’ शुरू कर दिया गया। ‘ऑपरेशन विजय’ के इस अभियान को 18 दिसम्बर को पूर्ण आकार दिया गया। भारत की तीनों सेनाओं ने संयुक्त तौर पर मात्र 36 घंटों में पुर्तगाल सेना के छक्के छुड़ा दिए। घुटने टेकने आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिया। सेना गोवा-दमन-दीव को पूर्ण स्वतंत्रता कराने की अभूतपूर्व सफलता का विजय तिलक लगा चुकी थी। पुर्तगाल के गवर्नर जनरल वसालो इ सिल्वा ने भारतीय सेना प्रमुख पीएन थापर के सामने सरेंडर कर दिया था। भारतीय सेना ने अपने शौर्य का परचम लहराया और ‘ऑपरेशन विजय’ की सफलता के साथ ही 19 दिसंबर सन् 1961 को भारतीय सेना ने गोवा, दमन और दीव में तिरंगा फहराया। भारतीय सेना ने माँ भारती की अखण्डता के लिए बलिदान हुए सत्याग्रहियों के संकल्प को पूर्ण कर राष्ट्र के अखण्ड स्वरूप को मानचित्र में पुनश्च अंकित करने का कार्य किया। गोवा सहित पुर्तगाल शासन के अधीन रहे राज्यों की मुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों, आजाद गोमांतक दल के कार्यकर्ताओं समेत राष्ट्र प्रेमियों ने अपनी जो आहुति दी थी। वह पुण्याहुति स्वतंत्रता की नींव बनी। जन-जन में क्रांति की मशाल बनी, जो इतिहास के सुनहरे पन्नों में आज अपनी अलौकिक आभा से जागृत है। आगे चलकर 30 मई 1987 को गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया जबकि दमन और दीव केन्द्र शासित प्रदेश बने रहे। गोवा मुक्ति संग्राम के पीछे जो अखंड भारत की दृष्टि थी, वही 1961 में साकार हुई। गोवा मुक्ति आन्दोलन में अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले वीर-वीराङ्गनाओं ने यह संदेश दिया कि—राष्ट्र से बढ़कर कुछ भी नहीं है। एकता और अखंडता के विचार ही राष्ट्र को महान बनाते हैं। इनके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। गोवा मुक्ति दिवस के अवसर पर इस तत्वबोध को आत्मसात करें कि- स्वतन्त्रता की थाती असंख्य बलिदानों से मिली है। इसकी रक्षा करना और महान पूर्वजों से प्रेरणा लेकर राष्ट्र निर्माण में अग्रसर रहना सबका कर्त्तव्य है।
(साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)