पश्चिमी सीमा के रक्षक थे गोगा बापा
राजकुमार प्रजापत
गोगामेड़ी का लक्खी मेला
पश्चिमी सीमा के रक्षक थे गोगा बापा
गौ, ब्राह्मण और हिन्दुओं की रक्षा के लिए तन-मन से समर्पित वीर गोगाजी राजस्थान के पाँच प्रमुख लोकदेवताओं में से एक हैं। नागवंशीय चौहान वीर गोगाजी पर ग्रामीण समाज की ‘सर्पदंश के जहर से मुक्तिदाता’ के रूप में अगाध श्रद्धा है। उनका यह प्रबल विश्वास है कि गोगाजी के आदेश के बिना सांप किसी को नहीं काट सकते, अतएव गोगाजी सांपों के देवता के रूप में भी पूजे जाते हैं। गाँव-गाँव में खेजड़ी के वृक्ष के नीचे गोगाजी के थान होते हैं। वैसे तो ददरेवा सहित सम्पूर्ण राजस्थान में गोगाजी की अनेक मेड़िया हैं, परन्तु गोगामेड़ी उनका सबसे बड़ा स्मारक एवं धाम है, जहाँ उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष भाद्रपद मास में भव्य एवं विशाल मेला लगता है। राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में भी लोकदेवता के रूप में गोगाजी की अपार मान्यता है। गोगामेड़ी हनुमानगढ़ जिले में नोहर से लगभग 40 किलोमीटर दक्षिण में है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वीर गोगाजी के संबंध में प्रचलित जनश्रुतियों को यदि इतिहासकारों की राय से जोड़कर देखा जाए तो यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है, कि उनका प्रादुर्भाव आज से लगभग नौ सौ वर्ष पहले इकतालीसवें युगाब्द के उत्तरार्द्ध (विक्रमी ग्यारहवीं शती के मध्य) में हुआ। ददरेवा (चूरू) के शासक जीवराज जी चौहान (जेवर सिंह) के कोई संतान नहीं थी। उनकी रानी बाछल ने सन्तान प्राप्ति हेतु भगवान की भक्ति की। संयोग से तत्कालीन नाथपंथी गुरु गोरखनाथ जी महाराज घूमते हुए ददरेवा राज्य में आये। बाछलदेवी की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया और प्रसाद के रूप में थोड़ा सा गुग्गल दिया। युगाब्द 4048 (वि.सं. 1003) में भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की नवमी को बाछल देवी को गोगाजी के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उस समय ददरेवा एक शक्ति सम्पन्न राज्य था।
सन् 792 ई. से लगातार इस्लामी आक्रांताओं के आक्रमण भारत पर होते रहे, पर वे सिन्ध से आगे नहीं बढ़ पाये थे। दसवीं शताब्दी के अंत में अरबस्तान के खलीफा सिन्ध से आगे बढ़कर एक तरफ मारवाड़ और दूसरी ओर गुजरात तक आकर लूटमार करने लगे। इन लुटेरों का मार्ग राजस्थान की मरुभूमि से ही होकर निकलता था। इस स्थिति में मरुभूमि से सटे राज्यों को हर समय चाक-चौबन्द होकर रहना पड़ता था। गोगाजी का पालन पोषण ऐसे हो चुनौतीपूर्ण वातावरण में हो रहा था। अस्त्र शस्त्रों को चलाना, घुड़सवारी, युद्ध कला तो वे सीख ही रहे थे, साथ ही साथ गुरु गोरखनाथ उन्हें वेद-उपनिषद और योग को भी शिक्षा दे रहे थे। गोगाजी ने युवावस्था में कदम रखा ही था कि उनके पिता की मुस्लिम हमलावरों से हुए युद्ध में मृत्यु हो गई।
जेवरसिंह के वीरगति को प्राप्त हो जाने के बाद गोगाजी ददरेवा के शासक बने। गोगाजी के शासक बनने के बाद भी अरब लुटेरे उसी प्रकार आते रहे। पश्चिमी भारत की मरुभूमि से सटा हुआ उनका राज्य एक सुरक्षा चौकी की तरह था। राणा गोगा अपनी इस सुरक्षा चौकी से उनका डटकर मुकाबला करते रहे। अनेकों बार उन्होंने गायों की रक्षा के लिये भी युद्ध किये। उनकी वीरता के किस्से जनमानस में सुनाये जाने लगे। उनकी कीर्ति पूरे पश्चिमी भारत में फैल गई। उनका किला भी गोगागढ़ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। अनेक युद्धों के बाद भी गोगा बापा थके नहीं थे। जब उन्होंने सुना कि गजनी का शासक महमूद भगवान सोमनाथ के मन्दिर को लूटने एवं अपवित्र करने फिर भारत में आ रहा है तो उन्होंने युद्ध की तैयारी कर ली।
चौहानों का रण-रंग
अपनी अथाह सेना के साथ महमूद भारत की ओर चल पड़ा। उसने गोगाजी को मित्रता का सन्देश भेजा कि रेगिस्तान में से होकर सोमनाथ (प्रभास) जाने का रास्ता दे दो। गोगा जी ने मेघ गर्जना करते हुए उत्तर दिया कि गोगा बापा के होते हुए महमूद रेगिस्तान में पैर भी नहीं रख सकता। फिर क्या था, चौहानों पर रण-रंग छा गया। बताया जाता है कि उस समय जाहरवीर गोगाजी ने सम्पूर्ण उत्तर भारत के राजाओं को संगठित होकर इस युद्ध में भाग लेने का निमंत्रण दिया था। सभी राजाओं ने निमंत्रण स्वीकार कर अपनी सेनाओं के साथ ददरेवा की ओर कूच किया और महमूद को भारत में घुस आने का दण्ड देने की तैयारियाँ होने लगी। आखिर वह दिन भी आ गया, गजनी के महमूद ने विशाल सेना के साथ अजगर की तरह गोगागढ़ को अपने लपेटे में ले लिया पर गोगागढ़ हिमालय की तरह अडिग खड़ा रहा।
गोगागढ़ को जीतना मुश्किल जानकर महमूद ने एक रात घेरा उठा लिया और सेना को पाटण (गुजरात) की ओर कूच करने को कह दिया। गोगा बापा ने यह देखा तो वे क्रोधित हो गए। हिन्दुत्व के रक्षक, परम शिवभक्त तथा प्रखर राष्ट्रभक्त गोगा बापा को यह कैसे सहन होता कि उनके रहते हुए महमूद उनके आराध्य देव को अपवित्र करने व मन्दिर लूटने इस तरह बच कर चला जाए। अतः गोगागढ़ के द्वार खोलकर अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ वे बगली देकर महमूद पर टूट पड़े, घमासान युद्ध हुआ, गोगा बापा की तलवार जिधर भी घूमती उधर ही गजनी की सेना का सफाया हो जाता। अप्रतिम वीरता का प्रदर्शन करते हुए गोगा जी अपने पुत्रों, नातियों के साथ सद्गति (वीरगति) को प्राप्त हुए।
गोगा बापा का भूत
गोगा बापा ने जिस काम को अधूरा छोड़ा, उसे उनके पौत्र और प्रपौत्र ने पूरा करने का निश्चय किया। पौत्र सज्जन ने महमूद की सेना को रेगिस्तान में ऐसा फंसाया कि उसकी एक तिहाई सेना वहीं नष्ट हो गई। सज्जन चौहान के पुत्र सामंत ने अब पाटण का रास्ता पकड़ा। वह दिखने में बिल्कुल गोगा बापा जैसा ही था। बिना रुके ऊंटनी को दौड़ाता, धूल से सना सामंत जब पाटण पहुँचा तो लोगों ने समझा कि गोगा बापा का भूत आ गया है। सोमनाथ में महमूद के खिलाफ मजबूत मोर्चेबन्दी में सामन्त का प्रमुख योगदान रहा। इसी के साथ लोगों में यह चर्चा फैल गई कि गोगा बापा की आत्मा सोमनाथ की रक्षा करने में सहायता कर रही है। पूरे गुजरात और राजस्थान में गोगा बापा के पुनः अवतार लेकर सोमनाथ की रक्षा करने की कथा चारों और फैल गयी और वे लोक देवता के रूप में पूज्य बन गए।
मेले का स्वरूप
गोगामेड़ी का मेला पूरे भाद्रपद महीने अपने आकर्षक रूप में रहता है। महीने की दोनों नवमी (सुदी व बुदी) को विशेष धोक लगती है। यह राजस्थान का लक्खी मेला है। गोगामेड़ी के समान ही ददरेवा में भी गोगाजी का मेला लगता है। राजस्थान के अलावा भारतवर्ष के कई राज्यों से लाखों लोग मेले में धोक लगाने आते हैं। गोगाजी के आस्थावान भक्त दूर-दूर स्थानों से पैदल चलकर ऊंचे-ऊंचे निशान लेकर बड़े उत्साहपूर्वक गीत गाते एवं ढोलक, मृदंग बजाते गोगाजी की मेड़ी तक आते हैं। ढोल की तान पर थिरकते हुए ये लोग लोहे की सांकलों के गुच्छों को अपने हाथों से ऊपर उठा-उठाकर अपने सिर एवं पीठ पर बारम्बार प्रहार करते हैं और एक विशेष प्रकार का नृत्य करते हैं। इन पर एक प्रकार का युद्धोन्माद सा चढ़ जाता है, जिसे ‘छाया चढ़ना’ कहते हैं। नृत्य करते समय ये लोग ‘गूगा की मढ़ाई मढ़ है’ व ‘गोगापीर तेरो लग्यो उमावो’ आदि नारे लगाते हैं। साथ ही नंगी तलवारों पर नाच जैसे हैरत अंगेज प्रदर्शन करते हैं। निशान के पीछे-पीछे जनसमुदाय चलता है। इन निशानों पर बहुरंगी झण्डे व मोरपंख लगे रहते हैं। गोगाजी की मेड़ी के सम्मुख यह नृत्य चरम
सीमा पर होता है। काफी देर तक नृत्य करने के बाद निशानों को गोगाजी की प्रतिमा के आगे झुकाया जाता है और गोगाजी का जयकारा लगाया जाता है। तदन्तर ये लोग उसी प्रकार नृत्य करते और ढोल बजाते अपनी-अपनी टोलियों के साथ लौट जाते हैं। जो टोलियां रात्रि में वहां रुकती हैं, वे जागरण करती हैं। सम्पूर्ण रात्रि मेला क्षेत्र में जगह- जगह सैकड़ों टोलियां ढोलक, झांझ, मंजीरों तथा डेरूओं के साथ संगीतबद्ध नृत्य करते हुए भजनों के द्वारा गोगाजी को रिझाती हैं। मेले में यात्री मुख्यतया पीले वस्त्र पहने रहते हैं। इन पीले वस्त्रों में गरीब-अमीर तथा जातिवर्ण का भेद अनायास ही तिरोहित हो जाता है। पुराने लोगों के अनुसार गोगावीर को सवारी नवमी की आधी रात को आती थी और ढोल-नगाड़े स्वयं बज उठते थे और लोग स्तब्ध खड़े रहते थे।
मेले में आसपास के गाँव वाले तथा दूरदराज क्षेत्र के शिल्पी कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। साथ ही अपनी वर्षभर की जीविका का प्रबन्ध भी इसी मेले में करते हैं। ग्रामोद्योग, स्थानीय शिल्प एवं कुटीर उद्योगों को यह मेला एक आधार प्रदान करता है। पर्यटन एवं क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखने में भी इसका अहम् योगदान है। धार्मिक एवं व्यापारिक महत्व के अतिरिक्त यह मेला सामाजिक समन्वय, सामाजिक समरसता के प्रतीक सामाजिक सम्बन्धों को प्रगाढ़ करता है। जिला प्रशासन, पशुपालन विभाग व अन्य विभागों एवं संगठनों के समन्वय से मेला व्यवस्थित रूप से पूर्ण होता है। मेले में परिवहन, चिकित्सा, पानी एवं सुरक्षा आदि की व्यवस्था की जाती है। अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ इस मेले में समाज सेवा का कार्य कर सेवा भावना का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। गोगाजी का यह मेला समाज में एकता, अखण्डता एवं राष्ट्रीयता की भावना को जन-जन तक – पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाता आ रहा है।