गुरुभक्त सत्यकाम
नीलू शेखावत
गुरुभक्त सत्यकाम
बालक सत्यकाम ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से ऋषिकुल जाने को उद्दत हुआ। लेकिन यह बालवय जिज्ञासु अपने कुल और गोत्र से अनभिज्ञ था, इसलिए अपनी माता के समीप जाकर बोला – “माँ! मैं अपनी ब्रह्म जिज्ञासा पूर्ति हेतु ब्रह्मचर्यपूर्वक ऋषिकुल में निवास करना चाहता हूँ। किंतु प्रवेश प्राप्ति हेतु मुझे अपने कुल और गोत्र की जानकारी होनी आवश्यक है। मैं इस विषय में कुछ नहीं जानता। आप मेरी माता हैं, आप ही बताएं- किंगोत्रो न्वहमस्मीति (मैं किस गोत्र का हूँ?)”
माँ, जिनका नाम जबाला था, बोलीं- “पुत्र! मैं तुम्हारा गोत्र नहीं जानती। क्योंकि मेरा अधिकांश समय तुम्हारे पितृगृह में आये अतिथियों के सत्कार में बीता। तुम्हारे जन्म के समय तक तुम्हारे पिता परलोकवासी हो चुके थे। अब तुम्हारे कुल-गोत्र का अवशेष तुम्हारी माता ही है, जिसका नाम जबाला है और तुम्हारा नाम सत्यकाम। तुम गुरुगृह अपनी यही पहचान बताना क्योंकि यही सत्य है।”
माता से अनुमति लेकर सत्यकाम हरिद्रुमान के पुत्र हारिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचे। आचार्य गौतम के द्वारा परिचय पूछने पर उसने माँ की कही बात ज्यों की ज्यों दोहरा दी।
“मेरी माता का नाम जबाला और मेरा नाम सत्यकाम है। मेरे पिता युवावस्था में ही मर गए और घर में नित्य अतिथियों के आधिक्य से माता को बहुत काम करना पड़ता था, जिससे उन्हें इतना भी समय नहीं मिलता था कि वे पिता जी से उनका गोत्र पूछ सकतीं। कृपा कर मुझे अपनी सन्निधि दें।”
आचार्य गौतम ने बालक के सत्य भाषण से प्रसन्न होकर कहा-” हे सौम्य! तू समिधा ले आ, मैं तेरा उपनयन कर दूंगा क्योंकि तूने सत्य का त्याग नहीं किया।”
उपनयन के पश्चात आचार्य ने अपनी गोशाला की चार सौ कृश गायें उन्हें सौंपते हुए उनकी सेवा करने का आदेश दिया। सत्यकाम ने आज्ञा शिरोधार्य कर कहा- “प्रभो! जब तक इनकी संख्या एक सहस्र न हो जाए, गुरुकुल वापस न लौटूंगा।”
कई वर्षों तक वह बालक गहन वन और एकांत का सेवन करता हुआ गोसेवा करता रहा। श्रद्धा और तप से सिद्ध हुए उस सत्यकाम से दिक्संबंधिनि वायु देवता संतुष्ट होकर ऋषभ में अनुप्रविष्ट हुई अर्थात् ऋषभ भाव को प्राप्त हुई। तब उस ऋषभ ने उसके निकट आकर कहा- सौम्य! अब हमारी संख्या एक सहस्र हो गई है, हमें आचार्य कुल पहुँचा दो। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर तुम्हें ब्रह्म का एक पाद बतलाता हूँ।”
सत्यकाम विनम्र भाव से बोला- बताइए भगवन्! ऋषभ बोले-पूर्वदिक्कला, पश्चिम दिक्कला, दक्षिण दिक्कला, उत्तर दिक्कला, यह ब्रह्म का ‘प्रकाशवान’ नामक चार कलाओं वाला पाद है। जो ब्रह्म के इस गुण युक्त रूप की उपासना करता है वह प्रकाशवान लोकों को जीत लेता है। अब अग्नि तुम्हें दूसरे पाद का स्वरूप बतलायेगी। “
मार्ग में अग्नि ने ‘अनंतवान’, हंस ने ‘ज्योतिष्मान’ और मद्गु ने ‘आयतनवान’ नामक चतुष्कल पदों के स्वरूप का साक्षात्कर करवाया। ब्रह्मतेज से युक्त होकर गुरुकुल में पहुंचने पर गौतम को वह ब्रह्मवेत्ता जान पड़ा। वे बोले- ब्रह्मविदिव वै सौम्य भासि को नु त्वानुशशासेत्यने ( तुम ब्रह्मवेत्ता से भासित हो रहे हो, तुम्हें किसने उपदेश दिया?)
तब उसने उत्तर दिया- हे प्रभो! यह उपदेश मुझे मनुष्येतर प्राणियों से मिला है, किंतु मेरी इच्छा है कि यह उपदेश मुझे आपके मुख से प्राप्त हो क्योंकि ऋषि लोग भी कहते हैं- आचार्य से जानी गई विद्या ही अतिशय साधुता को प्राप्त होती है। गुरु मुख से प्राप्त विद्या ही सार्थक है।”
तब आचार्य ने उसी विद्या का उपदेश किया, जिससे शिष्य में कुछ भी न्यून न रहा अर्थात् उसने पूर्णता को प्राप्त कर लिया।