सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ
धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – भाग-9
नरेंद्र सहगल
सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ
‘मानवता-घातक’ राक्षसी वृति से ओत-प्रोत मुगल शासकों ने खून की नदियां बहाकर समस्त हिंदू समाज को इस्लाम में कन्वर्ट करके एक समय के विश्वगुरु भारत को दारुल हरब (कट्टर इस्लामिक देश) बनाने के लिए मानवता की सभी सीमाएं पार कर दी थीं। दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह जी ने इसी पाशविक मुगलिया दहशतगर्दी को सीधी चुनौती देकर खालसा पंथ की स्थापना की थी। समस्त भारत में यह एक सशस्त्र क्रांति के नए युग की शुरुआत थी।
प्राचीन काल की तरह इस कालखंड में भी हिंदू जातिवाद की सकीर्ण दीवारों में बंटा हुआ था। इस छुआछूत तथा इसी प्रकार के अन्य भेदों ने हिंदू समाज को भय और कायरता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया था। यह भीरुता ही वास्तव में हिंदुओं के संगठन में बाधक थी। एकत्रित होकर शस्त्र धारण करके विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की बजाए आपस में ही एक दूसरे को नीचा दिखा कर अपनों का ही खून बहाने के असंख्य उदाहरण मिल जाते हैं।
इन सभी कारणों से हिंदुओं का आत्मविश्वास और कुछ कर गुजरने की भावना पूर्णतया लुप्त हो रही थी। इस प्रकार की हीन भावना का भयंकर परिणाम यह हुआ कि लोग दिल्ली पर राज करने वालों को ही एक प्रकार से परमात्मा समझने लग गए। उस समय एक प्रचलित कहावत पर लोग विश्वास करने लगे – ‘दिल्लीश्वरो ही जगदीश्वरो’ अर्थात देश में जो कुछ भी हो रहा है वह ईश्वर की मर्जी से ही हो रहा है।
इस प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त हिंदू समाज को क्षात्रधर्म में दीक्षित करने के लिए ही दशम् गुरु ने खालसा पंथ की सिरजना की थी। पंच प्यारों के हाथों स्वयं अमृतपान करते ही श्रीगुरु ने तलवार को हवा में ऊंची लहराते हुए सगर्व ललकार भरी। “सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियों से मैं बाज मराऊं, तबे गोविंद सिंह नाम कहाऊँ।”
मुगल शासक हिंदुओं को चिड़ियों का झुंड समझते थे। जैसे बाज के आने से चिड़िया भाग जाती है, उसी तरह मुगलों के हमले से हिंदू तितर-बितर होकर पलायन कर जाते थे। विदेशी आक्रान्ताओं को लगने लगा था कि वे हिंदुओं को लूटने, मारने, प्रताड़ित करने, अपमानित करने, और इनकी बहन-बेटियों का अपहरण करने का कार्य आसानी से कर सकते हैं।
इस वातावरण ने दशमेश पिता को हथियार उठाने के लिए बाध्य कर दिया। तभी उन्होंने प्रतिज्ञा की “सवा लाख से एक लड़ाऊँ तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ यानि मैं तभी गोविंदसिंह कहलाऊंगा, जब इन चिड़ियों (हिंदुओं) में वह शक्ति उत्पन्न कर दूंगा, जिससे वह बाजों को मारकर उन्हें खाने लग जाएंगी। साथ ही एक चिड़िया में वह शक्ति होगी कि वह सवा लाख शत्रुओं को मार सके।”
उल्लेखनीय है कि श्रीगुरु ने अपने समय में इस प्रतिज्ञा पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। श्रीगुरु के ब्रह्मलोक में गमन करने के पश्चात उनकी इस वीरव्रति परंपरा को बंदासिंह बहादुर, महाराजा रणजीतसिंह, हरिसिंह नलवा, भाई मनीसिंह, जत्थेदार बघेलसिंह, जस्सासिंह, श्यामसिंह अटारी वाले इत्यादि सिख शूरवीरों ने मुगलों की ईंट से ईंट बजाकर अत्याचारी हाकमों के पांव उखाड़ दिए। इन सभी सिख बहादुरों ने हिंदुओं के मंदिरों, तीर्थ स्थलों और उनके रीति रिवाजों की रक्षा के लिए ना केवल बलिदान ही दिए अपितु थोड़ी संख्या में होते हुए लाखों शत्रुओं को मारकर दशम गुरु की प्रतिज्ञा की लाज रखी ली – “सवा लाख से एक लड़ाऊं…..”
खालसा पंथ के अस्तित्व में आते ही उत्तर भारत विशेषतया सनातन पंजाब (अविभाजित पंजाब) में हिंदू समाज में जागृति आई। निराशा विश्वास में बदलने लगी। श्रीगुरु की इस शक्ति एवं सामर्श्य का आधार वह अध्यात्मिक शक्ति थी जिसकी आधारशिला प्रथम गुरु श्रीगुरु नानकदेव ने भक्ति आंदोलन (अभियान) के रूप में रखी थी। दशम गुरु द्वारा जाग्रत की गई शक्ति की नीव में त्याग, समर्पण और बलिदान की वह भावना थी जिसे श्रीगुरु ने आदिशक्ति दुर्गा के पूजन से प्राप्त किया और तत्पश्चात इस शक्ति का संचार अपने पांचों प्यारों (आदि शिष्यों) में कर दिया।
उत्तर भारत के हिंदू अब दुर्गा के उस स्वरूप के दर्शन करने लगे जो हाथ में तलवार लेकर सिंह की सवारी करती थी। श्रीगुरु के इस ‘खालसा अभियान’ के परिणाम स्वरुप हिंदू समाज में पुनः आदिशक्ति दुर्गा की पूजा होने लग गई। दुर्गा युद्ध की अधिष्ठात्री देवी है। परंतु आदिशक्ति की पूजा केवल मंत्रजाप अथवा माला फेरने से नहीं हो सकती। इसके लिए तो अखंड यज्ञ करना होता है। यज्ञ भी वह जिसमें मनुष्य स्वयं के शीश की बलि दे। श्रीगुरु गोविंदसिंह ने वही यज्ञ किया, पांच शिष्यों के ‘शीश बलिदान’ के बाद खालसा पंथ की सिरजना करके स्वधर्म एवं राष्ट्र के लिए मरने मारने वाले सिंह (क्षत्रिय) तैयार कर दिए।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर सतीश मित्तल ने अपने ग्रंथ ‘भारत में राष्ट्रीयता का स्वरूप’ में लिखा है – “गुरुगद्दी पर आसीन होते ही दशम गुरु ने श्री आनंदपुर साहिब और तत्कालीन पंजाब (जिसमें पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा अब पाकिस्तान बन चुका पश्चिमी पंजाब भी शामिल था) की वीरभूमि को राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक एकता के सूत्र में गूँथने के एक विराट प्रकल्प की कार्यभूमि बनाने के प्रयास शुरू कर दिए। राष्ट्रीय उत्थान का जो कार्य आचार्य शंकर ने दर्शन के माध्यम से और संत तुलसीदास ने साहित्य के माध्यम से संपन्न किया था, उसी को दशमेश पिता ने अपने व्यवहारिक आदर्श कर्मयोग द्वारा आगे बढ़ाया। उन्होंने मृत प्राय हिंदू समाज एवं राष्ट्र को आत्म बलिदान का पाठ पढ़ा कर सिंह बना दिया। एक ओर, उन्होंने अपने समय के घोर आततायी मुगल-शासन की अनीतियों का विरोध शस्त्रशक्ति से किया, तो वहीं दूसरी ओर स्वयं को असहाय समझने वाले हिंदू मानव में अपनी तेजस्वी वाणी से अद्भुत उत्साह तथा उत्सर्ग की भावना का संचार किया।”
उल्लेखनीय है कि अपने ही पांचों सिहों (शिष्यों) के हाथों स्वयं अमृतपान करने वाले दशम गुरु ने पांचों को ऐतिहासिक आदेश देते हुए कहा – “अब आप पहले वाले सिख न होकर मेरे सिंह (शेर) हो। जो व्यक्ति धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने के लिए तत्पर रहता है, वह मौत को भी जीत लेता है। वह कभी नहीं मरता। आज से हम सब खालसा हैं। खालसा ही हमारी जाति-बिरादरी है। इसमें ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं। हम सूरमा क्षत्रिय हैं। हमारा कार्य ना किसी पर जोर जबरदस्ती करना है और ना ही जोर जबरदस्ती को सहन करना है अर्थात खालसा ना जुल्म करेगा और ना ही जुल्म सहेगा। लोहे के बाटे, इस्पात के खंडे तथा गुरुवाणी से तैयार किए गए जिस अमृत को हमने पान किया है, उससे निश्चय ही हमारा शरीर लोहे का हो गया है। भविष्य में जो भी यह अमृतपान करेगा उसमें यह गुण आ जाएंगे। निस्वार्थ सेवा और लोकहित हमारे जीवन के लक्ष्य हो जाएंगे।”
इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद श्रीगुरु ने अमृतपान की प्रथा को समस्त हिंदू समाज में प्रचलित करके खालसा पंथ के अनुयायियों (खालसा सैनिकों) का भर्ती अभियान प्रारंभ कर दिया। पंजाब की हिंदू माताओं ने अपना एक-एक पुत्र खालसा पंथ में दीक्षित करने की प्रतिज्ञा की। देखते ही देखते हजारों युवक सिंह सजने लगे।
———– क्रमश: