गुरु बिन ज्ञान न उपजै

गुरु बिन ज्ञान न उपजै

तृप्ति शर्मा

गुरु बिन ज्ञान न उपजैगुरु बिन ज्ञान न उपजै

ज्ञान और श्रद्धा का पावन पर्व गुरु पूर्णिमा भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण परंपरा है, जो गुरु को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करती है। इस दिन शिष्य अपने गुरु के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं का पालन करने का संकल्प दोहराते हैं। गुरु पूर्णिमा का पर्व प्रतिवर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस बार यह पर्व 21 जुलाई 2024 रविवार को मनाया जा रहा है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार गुरु पूर्णिमा महाभारत के रचयिता वेदव्यास का जन्म दिवस है, इसलिए इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। इसी दिन भगवान शिव ने अपने पहले सात शिष्यों, सप्त ऋषियों को सर्वप्रथम योग का विज्ञान प्रदान किया था, इसलिए भगवान शिव आदि गुरु कहे जाते हैं। शिवजी ने ही गुरु और शिष्य की परंपरा को आरंभ किया। वेदों में गुरु की महिमा का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया गया है। वहां बताया गया है कि गुरु को भक्ति पूर्वक प्रणाम करने से न केवल गुरु की अपितु देवताओं की भी कृपा प्राप्त होती है। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में गुरु की महत्ता का वर्णन आया है- ‘देवा: कुर्वन्ति सहाय्यं गुरुर्यत्र प्रणम्यते।’ महर्षि वाल्मीकि ने भी कहा है- ‘गुरुवृत्त्यनुरोधेन न किंचिदपि दुर्लभम्।’ जगद्गुरु विष्णु भगवान ने अपने सच्चरित्र से लोक को सदाचार की शिक्षा देने और व्यावहारिक धर्म का पाठ पढ़ाने के लिए अनेक बार पृथ्वी लोक पर आकर मर्त्यधर्म को स्वीकार किया और बताया कि किस प्रकार जीवन जीने से स्वयं का और जगत का कल्याण होता है। लौकिक और पारलौकिक ज्ञान की जितनी विद्याएं एवं शास्त्र हैं, उनके मूल रूप नारायण ही हैं। सारे सद्गुण इनमें प्रतिष्ठित हैं। इसलिए ये जगत गुरु कहलाते हैं। भगवान शिव आदि गुरु हैं, वासुदेव जगतगुरु हैं, परंतु गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु पूजन की जो परंपरा है, वह लोकहित में भगवान की वाणी को जन जन तक पहुंचने वाले लौकिक गुरु वेदव्यास जी के सम्मान में आरंभ हुई है। मानव को भक्ति, ज्ञान, नीति व सदाचार की शिक्षा देने के लिए साक्षात् नारायण ही महर्षि वेदव्यास के रूप में अवतीर्ण हुए। इन्होंने ही वेद को चार भागों में वर्गीकृत किया। समस्त पुराण, उपनिषद, ब्रह्म सूत्र, व्यास स्मृति आदि इन्हीं की रचनाएं हैं। आज के विश्व का सारा ज्ञान विज्ञान महर्षि वेदव्यास जी का ही उच्छिष्ट (पूर्व में कहा गया) है। इसलिए ‘व्यासोच्छिष्ट जगत सर्वम’ की उक्ति प्रसिद्ध है। विश्व में वर्णित ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो महाभारत में नहीं है। ‘यन्न भारते तन्न भारते’ अर्थात इनके द्वारा रचित महाभारत में जो नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है। भगवत गीता जैसा अनुपम रत्न व्यास जी द्वारा रचित महाभारत में ही उपनिबद्ध है। इन्होंने अपने विशाल वाङमय द्वारा लोक कल्याण का जो प्रशस्त पथ मानव के लिए निर्धारित किया है, वह सदा ही अनुपालनीय है।इनका सारा जीवन लोक कल्याण में वैदिक ज्ञान को प्रसारित करने के लिए ही समर्पित रहा। इसलिए जो भी संत महात्मा लोक कल्याण के लिए जन सामान्य का पथ प्रदर्शन करते हैं, उनमें हम महर्षि व्यास जी की परिकल्पना करते हैं और वह जिस स्थान पर बैठकर प्रवचन करते हैं, उसे व्यासपीठ कहा जाता है। इसी लिहाज से व्यास गद्दी पर बैठने वालों का सामाजिक दायित्व विशेष हो जाता है।

हमारी सामाजिक नैतिक बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रगति के लिए एक गुरु होना आवश्यक है, जो हमें मानवीय गरिमा को गिराने वाले आचरण से तो बचाए ही, हमारे जीवन में आने वाली समस्याओं के निराकरण के लिए भी सही और सत्य मार्ग दिखाए। गुरु कृपा से ही मनुष्य अपने यथार्थ जीवन में संपूर्णता प्राप्त करता है। गुरु वही है, जो सब प्रकार से अभ्युदय का विधायक होता है। जिसकी कृपा से बुद्धि शुद्ध व आडंबर रहित होकर कर्तव्यों के सन्मार्ग में प्रवृत्त हो जाती है। 

गुरु पूर्णिमा उन सभी आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित परंपरा है, जिन्होंने कर्म योग आधारित व्यक्तित्व के विकास में योगदान दिया है। सभी संदेहों को दूर करके साध्य प्राप्ति के लिए उचित साधन प्रयोग करने का ज्ञान दिया है। यह ज्ञान किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं अपितु पूरे समाज के लिए होता है। गुरु के विस्तृत ज्ञान के पात्र आप तभी बन सकते हैं, जब आपकी उनमें अपार श्रद्धा हो। श्रद्धा ऐसी जिससे एकलव्य अपने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा को ही असली मानकर कुशल धनुर्धर बने, दत्तात्रेय ने चराचर जगत के विभिन्न 24 घटकों को गुरु मानकर उनसे शिक्षा ली और महर्षि दत्तात्रेय कहलाए। गुरु, मंत्र और औषधि में जिसका जैसा विश्वास होता है, वह वैसा ही परिणाम पाता है। हिंदू संस्कृति में गुरु को देव तुल्य सम्मान देने की परंपरा हमेशा रही है। देव, असुर, राजा -महाराजा और सामान्य जनता सभी के कुल गुरु होते थे और सभी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए अपने गुरु के पास जाते थे, क्योंकि वही धर्म सम्मत मार्ग बताकर उनकी शंकाओं का निराकरण करते थे।

एक सच्चे गुरु को हमेशा राष्ट्र से प्रेम होता है। चाहे वह किसी भी क्षेत्र का गुरु हो मन में संपूर्ण समाज की वेदना और राष्ट्र की चेतना निहित रहती है।

वर्तमान में भी ईश्वर से यही कामना है कि यह गुरु पूर्णिमा की पावन परंपरा अनवरत चलती रहे और हमारे कृत्यों से जनसाधारण के लिए सुख, शांति, समृद्धि और समुन्नति के द्वार खुलते रहें। मार्ग प्रकाशित होते रहें। हम शिष्य से गुरु बन जाएं, इस प्रकार गुरु के वचनों को जीवन में उतारते रहें।

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