हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हुए श्रीगुरु तेगबहादुर
धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – भाग 5
नरेंद्र सहगल
हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हुए श्रीगुरु तेगबहादुर
भारतीय संस्कृति के वैचारिक आधार अथवा सिद्धांत ‘शस्त्र और शास्त्र’ को शिरोधार्य करके हमारे सिख सांप्रदाय के छठे श्रीगुरु हरगबिन्द ने मुगल शासकों को यह संदेश दे दिया कि समय आने पर स्वधर्म की रक्षा के लिए भारत के संत-महात्मा भी हथियार उठा सकते हैं। छठे क्रांतिकारी श्रीगुरु के पश्चात सातवें श्रीगुरु हरिराय तथा आठवें श्रीगुरु हरकिशन ने भी अपने समय में दस गुरुओं की परम्परा को न्यूनाधिक आगे बढ़ाने में अपने कर्तव्य की पूर्ति की।
इसके पश्चात गुरु गद्दी पर नवम गुरु के रूप में धर्मरक्षक श्रीगुरु तेगबहादुर शोभायमान हुए। उन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों ‘मानव की जात सभै एकबो पहचान बो’ को अपने व्यवहार में चरितार्थ करते हुए हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश कटवा कर सारे देश में मुगलों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की अलख जगा दी। उस समय दिल्ली के तख्त पर इस्लामिक मतांधता का झण्डाबरदार घोर अत्याचारी औरंगजेब बैठा था। इस मुगल बादशाह ने मतांतरण की क्रूर खूनी चक्की चला कर हिन्दू समाज को समाप्त करने का बीड़ा उठाया हुआ था।
औरंगजेब ने अपने शासनकाल के 49 वर्षों में 14 सूबेदारों को कश्मीर में अपने इरादे पूरे करने के लिए भेजा। इनमें से सबसे ज्यादा अत्याचारी था सूबेदार इफ्तार खान (1671-1675), जिसने कश्मीर के हिन्दुओं पर जमकर अत्याचार किए और उन्हें इस्लाम कबूल करने को बाध्य किया। कश्मीर के पंडितों (हिंदुओं) ने इफ्तार खान के असहनीय अत्याचारों से तंग आकर निकटवर्ती प्रदेश पंजाब के नगर आनंदपुर साहिब में उस समय के महान राष्ट्रवादी संत श्रीगुरु तेगबहादुर की शरण में जाने की योजना बनाई। पंडित कृपाराम के नेतृत्व में पाँच सौ कश्मीरी हिन्दू श्रीगुरु तेगबहादुर के दरबार में पहुंचे। इन दुखी पंडितों द्वारा की गई प्रार्थना का वर्णन ज्ञानी गुरजा सिंह द्वारा संपादित पुस्तक शहीद विलास के पृष्ठ 60 पर इस प्रकार किया गया है।
बाही आसडी पकरिए, हरगोबिन्द के चंद।
हमरो बल अब रहयो नहीं, गुरु तेगबहादुर राई।
गज के बंधन काटन हारे, तुम गुरुनानक हैं अवतारी।
जिन दरोपति राखी लाज, दियो सवार सूदामै काज।
तुम कलियुग के कृष्ण मुरारी, नाम रहे सदीव तऊ पुरोजन की आस।
कश्मीर से आए इस शिष्टमंडल के नेता पंडित कृपाराम ने अपनी व्यथा श्रीगुरु को सुनाकर सारी परिस्थिति की जानकारी दी। “तलवार के जोर पर हिंदुओं को मुसलमान बनाया जा रहा है। उनके यज्ञोपवीत जलाए जाते हैं और हिंदुओं की बहु-बेटियों के शील भंग किए जाते हैं। देवी-देवताओं के मंदिर तुड़वाकर उन पर मस्जिदें बनाई जा रही हैं। तीर्थों का महात्मय और देवों की अर्चना सब कुछ लुप्त हो रहा है, – इत्यादि।”
उपरोक्त ह्रदय विदारक सारा वर्णन सुनकर श्रीगुरु गंभीर हो गए। चेहरा सूर्य के तरह दमक उठा। धर्म/राष्ट्र रक्षण हेतु उनके अंतर का क्षात्रधर्म जाग्रत हो गया। उनको इस प्रकार समाधिस्थ हुआ देखकर पास में बैठे उनके आठ वर्षीय पुत्र गोबिन्दराय ने इसका कारण पूछा। श्रीगुरु ने अपने जिज्ञासु पुत्र को स्पष्ट संकेत दिया कि हिन्दू समाज पर आई इस भयानक विपत्ति से रक्षा के लिए अब किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है।
धर्म तथा राष्ट्र के प्रति समर्पित श्रीगुरु के बेटे की रगों में भी तो वही खून था। उसने तुरंत कहा – “आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है।” बालक गोबिन्दराय की इस बात एवं इस साहस से श्रीगुरु ने निर्णय ले लिया। यह निर्णय राष्ट्रीय महत्व का था, क्योंकि श्रीगुरु के बलिदान ने आगे के इतिहास की दिशा ही मोड़ दी।
श्रीगुरु तेगबहादुर ने दिल्ली में औरंगजेब के पास संदेश भिजवा दिया कि यदि तेगबहादुर को मुसलमान बना लो तो सभी हिन्दू एक साथ इस्लाम कबूल कर लेंगे। श्रीगुरु का यह संदेश प्राप्त करके औरंगजेब प्रसन्नता से झूम उठा। उसने कश्मीर के सूबेदार इफ्तार खान को मतांतरण बंद करने का आदेश दे दिया क्योंकि अब यह काम आराम से सम्पन्न हो जाने वाला था। एक ही व्यक्ति को मुसलमान बनाना पड़ेगा, शेष सभी स्वयं ही इस्लाम कबूल कर लेंगे। अतः उसने आनंदपुर साहिब में श्रीगुरु के पास दिल्ली आने का निमंत्रण भेज दिया।
यह निमंत्रण मिलने के पूर्व ही श्रीगुरु तेगबहादुर अपने पाँच शिष्यों सहित दिल्ली के लिए चल पड़े। दिल्ली के निकट पहुँचते ही सभी को गिरफ्तार करके औरंगजेब के दरबार में पहुंचा दिया गया। श्रीगुरु एवं मुगल सम्राट के बीच लंबा वार्तालाप हुआ। श्रीगुरु ने सीना तानकर कहा कि “मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता। जबरदस्ती किसी का धर्म परिवर्तन करना मानवता के विरुद्ध है। मुगल शासक अधर्म के मार्ग पर चलने वाला अधर्मी है। उसके आदेश का पालन करना पूरे देश भारत, हिन्दू समाज और मानवता का अपमान है। मैं पूरी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ इन जघन्य कृत्यों का पुरजोर विरोध करता हूँ।”
श्रीगुरु तेगबहादुर के साहस और अपने धर्म के प्रति उनकी निष्ठा को देखकर औरंगजेब के पांव के तले की जमीन खिसक गई। उस पापी ने श्रीगुरु के समक्ष दो विकल्प रखे ‘इस्लाम अथवा मौत।’ उल्लेखनीय है कि यही नीति पूरे भारत में मुगल शासकों द्वारा अपनाई जा रही थी। घोर अत्याचारों का युग था यह।
धर्मरक्षक श्रीगुरु ने दूसरा विकल्प स्वीकार किया। वास्तव में स्वधर्म की रक्षा के लिए ही वे दिल्ली दरबार में आए थे। श्रीगुरु की प्रबल इच्छा और उनकी वीरबाणी का उल्लेख ‘श्रीगुरु प्रताप सूरज’ नामक पुस्तक में इस प्रकार किया गया है।
“तिन ते मुनि श्री तेगबहादुर, धर्म निबाइन बिरवै बहादुर।
उत्तर भणियों धर्म हम हिन्दू, अतिप्रिय को किम करिह निकन्दू।
अर्थात- औरंगजेब की बातें सुनकर स्वधर्म निभाने में वीर श्रीगुरु तेगबहादुर ने कहा – “हम हिन्दू धर्मी हैं। अपने अति प्रिय हिन्दू धर्म का विरोध हम कैसे करें। हमारा धर्म लोक एवं परलोक में सुख देने वाला है। जो भी मलिन मति और मूर्ख-मति व्यक्ति इसको त्यागने की सोचता है, वह निश्चय ही पापी है।” इसी में श्रीगुरु कहते हैं – “सुमितिवन्त हम, कहू क्यों त्यागहि, धर्म रखिए नित अनुरागहिं।” अर्थात- “हम तो सुमितवंत हैं। हम क्यों हिन्दू धर्म का परित्याग करें। हमारा तो धर्म की रक्षा में नित्य ही अनुराग है।”
अब श्रीगुरु तेगबहादुर और उनके साथियों पर अत्याचारों का दौर शुरू हुआ। लोहे के गरम खंभों से बांधना, शरीर पर गरम तेल डालना, शरीर को गरम चिमटों से नोचना इत्यादि असहनीय जुल्मों का दौर कई दिनों तक चलता रहा। जब कोई भी गुरु का शिष्य विचलित नहीं हुआ तो बेरहमी से कत्लेआम का फरमान जारी कर दिया गया।
शाही काजी के फतवे के अनुसार सबसे पहले भाई दयाल दास को उबलते पानी के देगचे में डुबो कर मारा गया। दूसरे भाई सतीदास को रुई के गट्ठर में बांध कर आग लगा दी गई। तीसरे भाई मतिदास को आरे से चीर दिया गया। इन तीनों के अमर बलिदान के बाद श्रीगुरु तेगबहादुर को भी उनका सिर काटकर कत्ल कर दिया गया।
भारतवर्ष के धर्म और राष्ट्रीय जीवन मूल्यों की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस राष्ट्रीय महापुरुष ने सारे हिन्दू समाज को संगठित होकर, शक्ति अर्जित करके, स्वधर्म के लिए बलिदान हेतु तैयार होने का आह्वान किया। श्रीगुरु ने कश्मीर के हिंदुओं की पुकार और उनके कष्टों को पूरे हिन्दू समाज और समस्त भारत का संकट मानकर राष्ट्रहित में अपना बलिदान दिया।
श्रीगुरु के इस बलिदान के साथ ही औरंगजेब के अत्याचारी शासन की चूलें हिलनी शुरू हो गईं। इस बलिदान के समाचार से पूरे भारत में हिन्दुत्व की लहर उठी और इस लहर को तूफान में बदला पंजाब में दशमेश पिता श्रीगुरु गोबिन्दसिंह ने, महाराष्ट्र में शिवाजी ने, राजस्थान में राणा राजसिंह ने और पूर्वी भारत में छत्रसाल ने। सारे देश में दिल्ली के तख्त पर बैठे जालिम औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का राष्ट्रीय प्रयास शुरू हो गया।
– क्रमश: