1857 का स्वातंत्र्य समर : एक धर्मयुद्ध
1857 का स्वातंत्र्य समर : एक धर्मयुद्ध
1857 का युद्ध मात्र एक युद्ध नहीं बल्कि धर्मयुद्ध था। अपनी दमनकारी नीतियों, अत्याचारों और कन्वर्जन के चलते अंग्रेजों को लगता था कि भारत तो अपने आप उनकी झोली में आ गिरेगा, वे यह कहते भी थे। लेकिन भारतीयों को लगता था अपना देश ही नहीं धर्म भी बचाना है तो अंग्रेजों से आर पार की लड़ाई लड़नी होगी। 1857 की क्रांति वह अवसर था। गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूस तो एक छोटा सा कारण भर थे। यदि ऐसा ना होता तो 1857 के महासमर के बाद 1 नवम्बर, 1858 को इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को यह उद्घोषणा नहीं करनी पड़ती कि अब भारतीयों के धार्मिक विश्वासों, आस्थाओं और परम्पराओं में कोई हस्तक्षेप न करके उनका सम्मान किया जायेगा। यह 1857 की क्रांति के बाद का वह समय था जब ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से सत्ता अपने हाथ में ले ली थी और कैनिंग को वायसराय नियुक्त कर दिया था। ऐसा करके ब्रिटिश क्राउन यह जताने का प्रयास कर रहा था कि उसे भारतीयों और उनके हितों की चिंता है। कैनिंग को आदेश थे कि जल्दी से जल्दी विक्टोरिया का उद्घोषणा पत्र जनता के सम्मुख पहुंच जाना चाहिए ताकि जनता का आक्रोश कुछ कम हो जाए। कैनिंग को यह उद्घोषणा पत्र कलकत्ता से दिल्ली जाते समय इलाहाबाद में मिला। जल्दी इतनी थी कि इलाहाबाद में ही विशेष शाही दरबार की तत्काल व्यवस्था कराई गई। यह एक नवंबर, 1858 का दिन था। यह डर ही था, जिसके चलते उन्होंने इस क्रांति को मामूली सैनिक विद्रोह या गदर बताने का नैरेटिव रचा। लेकिन वीर सावरकर की पुस्तक 1857 का स्वातंत्र्य समर ने उनके इस प्रयास को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया।
1907 में सावरकर लंदन में थे। इस वर्ष 1857 की क्रांति के पचास वर्ष पूरे हो रहे थे। ब्रिटेन ने इसे विजय दिवस के रूप में मनाया। ब्रिटिश समाचार-पत्रों ने विशेषांक निकाले, जिनमें ब्रिटिश शौर्य का बखान और भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की भर्त्सना की गई। 6 मई को लंदन के डेली टेलीग्राफ ने मोटे अक्षरों में छापा—‘पचास वर्ष पूर्व इसी सप्ताह शौर्य प्रदर्शन से हमारा साम्राज्य बचा था’। लंदन में एक नाटक खेला गया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई एवं नाना साहब जैसे क्रांतिकारियों को हत्यारा व उपद्रवी बताया गया। सावरकर के नेतृत्व में भारतीय देशभक्तों ने इस अपमान का उत्तर देने के लिए 10 मई को सन् 1857 की पचासवीं वर्षगाँठ बड़ी धूमधाम से मनाई, अपनी छाती पर चमकदार बिल्ले लगाए, उपवास रखा, सभाएँ कीं और स्वतंत्र होने तक लड़ाई जारी रखने की प्रतिज्ञा ली। इस सार्वजनिक प्रदर्शन से अंग्रेज तिलमिला उठे। भारतीय युवकों से उनकी झड़प हो गई। बिल्ला न हटाने पर हरनाम सिंह जैसे देशभक्तों को विद्यालय से निकाल दिया गया। सावरकर को यह बुरी तरह अखरा और उनके मन में 1857 का यथार्थ जानने की इच्छा बलवती हो उठी। वह जानना चाहते थे कि क्या 1857 की क्रांति मात्र एक आकस्मिक सिपाही विद्रोह था? क्या उसके नेता अपने तुच्छ स्वार्थों की रक्षा के लिए इस विद्रोह में कूद पड़े थे? या वह किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सुनियोजित प्रयास था? यदि हाँ, तो उस योजना में किसका मस्तिष्क कार्य कर रहा था? योजना का स्वरूप क्या था? क्या सन् 1857 एक बीता हुआ बंद अध्याय है या भविष्य के लिए प्रेरणादायी जीवंत यात्रा? भारत की भावी पीढि़यों के लिए 1857 का संदेश क्या है? आदि-आदि। सावरकर ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए शोध करने का निश्चय किया। इंडिया हाउस के मैनेजर मुखर्जी की अंग्रेज पत्नी की सहायता से उन्होंने भारत संबंधी ब्रिटिश दस्तावेजों के आगार इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में प्रवेश पा लिया। डेढ़ वर्ष के अथक शोध के बाद उन्होंने जातीय अहंकार और विद्वेष-जनित पूर्वग्रही ब्रिटिश लेखन में छिपे सत्य को खोज निकाला और 1857 को एक मामूली सिपाही विद्रोह की छवि से बाहर निकालकर एक सुनियोजित स्वातंत्र्य युद्ध के आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। अपनी इस शोध-साधना को उन्होंने मराठी भाषा में निबद्ध किया, जिसके अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए। उनकी यह पुस्तक क्रांतिकारियों के लिए गीता थी। यहॉं तक कि आजाद हिन्द फौज के निर्माण में भी ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक की बड़ी भूमिका रही। आजाद हिन्द फौज के मूल संस्थापक रासबिहारी बोस क्रांतिपथ पर सावरकर को अपना गुरु मानते थे। जापान में शरण लेने के बाद भी वे द्वितीय विश्व युद्ध तक सावरकर से लगातार पत्राचार करते रहे। वे जापान में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने ही सुभाषचंद्र बोस को आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व करने के लिए जर्मनी से जापान आने का निमंत्रण दिया था। सुभाष बाबू भी सावरकर के प्रति श्रद्धाभाव रखते थे और स्वतंत्रता-प्राप्ति की उनकी रणनीति से सहमत थे। द्वितीय विश्व युद्ध द्वारा उत्पन्न स्थिति का लाभ उठाने के लिए जनवरी 1941 में ब्रिटिश सरकार की आँखों में धूल झोंककर भारत से विदेश जाने के छह महीने पूर्व 22 जून, 1940 को उन्होंने बंबई में सावरकर के निवास-स्थान पर उनसे गुप्त मंत्रणा की थी। अतः यह कहा जा सकता है कि आजाद हिन्द फौज के गठन और ब्रिटिश विरोधी रणनीति की प्रेरणा रासबिहारी बोस व सुभाषचंद्र बोस को सावरकर द्वारा लिखित ‘१८५७ का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक से ही प्राप्त हुई थी। उसी को आदर्श रूप में सामने रखकर नेताजी ने रानी झाँसी रेजीमेंट का गठन किया था। आजाद हिन्द फौज के सेनाधिकारियों ने स्वीकार किया कि इस पुस्तक का एक संस्करण विशेष रूप से छपवाकर सैनिकों को पढ़ने के लिए दिया जाता था। अंग्रेजी के अतिरिक्त एक तमिल संस्करण का प्रकाशन भी हुआ था। इस ग्रंथ का पाठन बार-बार किया जाता था। तमिल संस्करण का संपादन आजाद हिन्द फौज के एक प्रचार अधिकारी जयमणि सुब्रह्मण्यम ने किया था। सावरकर द्वारा लिखित इतिहास की इस महान रचना ने सन् 1914 के क्रांति आंदोलन से 1943-45 की आजाद हिन्द फौज तक कम-से-कम दो पीढ़ियों को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
‘गोष्ठी’ नामक पत्रिका के संपादक जी.वी. सुब्बाराव ने लिखा कि ‘‘यदि सावरकर ने 1857 और 1943 के बीच हस्तक्षेप न किया होता तो मुझे विश्वास है कि आजाद हिन्द फौज के ताजा प्रयासों को भी एक मामूली विद्रोह कह दिया गया होता। किंतु धन्यवाद है सावरकर की पुस्तक को कि ‘गदर’ शब्द का अर्थ ही बदल गया। यहाँ तक कि अब लॉर्ड वावेल भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रयास को मामूली गदर कहने का साहस नहीं कर सकता। इस परिवर्तन का पूरा श्रेय सावरकर और केवल सावरकर को ही जाता है।’’
बहुत शानदार जानकारी दी गई है।
इससे अपने महापुरुष सावरकर जी के बारे में विशेष जानकारी मिली है।