दरकता इंडी गठबंधन

दरकता इंडी गठबंधन

बलबीर पुंज

दरकता इंडी गठबंधनदरकता इंडी गठबंधन

आईएनडीआई (इंडी) गठबंधन तले इकट्ठा हुआ विपक्ष, एक नहीं दिख रहा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस एक-दूसरे के विरुद्ध आक्रामक है। वास्तव में, कांग्रेस और अन्य भाजपा-विरोधी क्षेत्रीय दलों— समाजवादी पार्टी, तृणमूल, आप, राकांपा, द्रमुक आदि के बीच गठबंधन अस्वाभाविक है। कांग्रेस के अधिकांश वर्तमान सहयोगियों के जन्म का केंद्रबिंदु, कांग्रेस का विरोध ही है। इन पार्टियों ने कांग्रेस की सियासी जमीन पर सेंधमारी करके ही अपना विस्तार किया है। दिल्ली के साथ पंजाब में भी ‘आप’ कांग्रेस के अधिकांश वोटबैंक पर अतिक्रमण कर चुकी है। 

न्यायिक-संवैधानिक बाध्यता के कारण दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से गत वर्ष त्यागपत्र दे चुके अरविंद केजरीवाल ‘आप’ के मुख्य कर्ताधर्ता हैं। यह अलग बात है कि पार्टी की स्थापना (2012) से ‘आप’ के साथ रहे कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण, शांति भूषण, योगेंद्र यादव, प्रोफेसर आनंद कुमार, स्वाति मालीवाल आदि या तो निकाले जा चुके हैं या फिर पार्टी छोड़ चुके हैं। जिन गांधीवादी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (2011) से ‘आप’ का जन्म हुआ, वे अन्ना भी केजरीवाल और उनकी पार्टी से पूरी तरह कन्नी काट चुके हैं।

यूं तो आम जिंदगी की तरह सार्वजनिक जीवन में भी कई बार कथनी-करनी में अंतर होता है। परंतु इस संदर्भ में केजरीवाल के विचारों और आचरण में जितना जमीन-आसमान जैसा विरोधाभास दिखता है, उसका शायद ही भारतीय राजनीति में कोई दूसरा उदाहरण होगा। यही ‘आप’ का सबसे बड़ा संकट है, जिसे किसी भी शब्दजाल से ढंका नहीं जा सकता। 

उदाहरणस्वरूप, केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर राजनीति में नहीं आने की बात कही थी। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा से हाथ नहीं मिलाने की सौगंध भी खाई थी। परंतु जब 2013 में आवश्यकता पड़ी, तो उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली और दोनों दलों ने मिलकर 2024 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा। केजरीवाल तथाकथित ‘वीआईपी कल्चर’ (सरकारी बंगला-वाहन-सुरक्षा आदि सहित) के विरुद्ध बहुत मुखर थे। विभिन्न अवसरों पर उन्होंने इसे मुद्दा भी बनाया। जिस केजरीवाल का ‘कलेजा’ दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के घर में लगे 10 एयरकंडिशनर पर ‘कांप’ उठा था और महंगा सरकारी वकील करने पर कटाक्ष करते थे, अब उन्हें ही अपने आधिकारिक आवास के लिए आसपास की सरकारी संपत्तियों को तोड़ने, उस पर करोड़ों रुपये व्यय करने और दिल्ली शराब घोटाले में सरकारी खजाने से वकीलों पर करोड़ों रुपये खर्च करने आदि में कोई गुरेज नहीं है। शुरुआती दौर में केजरीवाल ने जिन-जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, उनमें अधिकांश से वे लिखित क्षमा मांग चुके हैं। आज वे अपने सहयोगियों मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन के साथ वित्तीय कदाचार के मामले में जेल से जमानत पर बाहर हैं। इस प्रकार के कई उदाहरण हैं। 

आज देश में संभवत: दिल्ली ही एकमात्र ऐसा केंद्र शासित राज्य है, जहां प्रदेश सरकार का केंद्र और उप-राज्यपाल के साथ रिश्ता तल्ख है। पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। मार्च 1952 में पहली बार दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए और चार वर्ष बाद दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। सितंबर 1966 में दिल्ली विधानसभा को दिल्ली मेट्रोपॉलिटन काउंसिल (डीएमसी) में बदल दिया गया। तब इसके पास कोई विधायी शक्ति नहीं थी और उसकी भूमिका दिल्ली में परामर्शदाता तक सीमित थी। फरवरी 1967 में पहली बार डीएमसी चुनाव हुए, जिसमें भारतीय जनसंघ की विजय हुई और लालकृष्ण आडवाणी परिषद के अध्यक्ष, तो विजय कुमार मल्होत्रा मुख्य कार्यकारी पार्षद बने। उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी सरकार थी, तो दिल्ली में भारतीय लोक सेवा (आईसीएस) अधिकारी आदित्यनाथ झा उप-राज्यपाल थे। 1977-83 में भी डीएमसी, जनता पार्टी के अधीन रहा। इस दौरान दिल्ली प्रशासन, केंद्र सरकार और उप-राज्यपाल के बीच वैचारिक-नीतिगत-राजनीतिक मतभेद होते हुए भी शासकीय व्यवस्था में कोई टकराव नहीं था। 

जब विधिवत-संवैधानिक प्रक्रिया से 41 वर्ष बाद 1993 में दिल्लीवासियों को अपना मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार मिला, तब उन्होंने भाजपा पर प्रचंड भरोसा जताया। तब उसने 70 में से 49 सीटें जीती थी। नवंबर 1998 तक भाजपा की ओर से मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज ने दिल्ली में मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला। इस दौरान अधिकांश समय केंद्र में भाजपा विरोधी गठजोड़ की सरकार थी। फिर भी उप-राज्यपाल, केंद्र और दिल्ली सरकार के संबंधों में कटुता नहीं थी। कांग्रेस नेत्री शीला दीक्षित 1998-2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही। उनका वैचारिक-राजनीतिक मतभेदों के बाद भी केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार (1998-2004) और उप-राज्यपाल विजय कपूर से कोई तनातनी नहीं थी। आखिर क्यों 2013 से उपराज्यपाल और केजरीवाल के नेतृत्व में ‘आप’ सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप के साथ गाली-गलौज की नौबत आ गई है? 

स्वतंत्रता के बाद देश में राजनीतिक दलों के बीच स्वाभाविक मतभेद था, लेकिन उसमें शिष्टाचार और मर्यादा रही। वर्ष 1971 से कांग्रेस के ‘वामपंथीकरण’, जिसके बारे इस कॉलम में कई बार विस्तार से चर्चा कर चुका हूं— उसने राजनीतिक संवाद में कटुता और तिरस्कार को बढ़ावा दिया। कुछ अपवादों को छोड़कर संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति के लिए अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता था। देश में दिख रही अराजकतावाद से प्रेरित राजनीति कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी की देन है, जिन्होंने वर्ष 2013 में बिना किसी मंत्रिपद के अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश को ‘बकवास’ बताकर उसे फाड़ने की बात कही थी। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए खुलकर अपमानजनक शब्दों का उपयोग करते हैं। इस मामले में केजरीवाल, राहुल से कई कदम आगे हैं। इसकी तुलना में पंजाब में ‘आप’ की मान सरकार का केंद्र के साथ बेहतर तारतम्य है। दोनों के बीच राजनीतिक मतभेदों के बावजूद कई क्षेत्रों (सुरक्षा सहित) में आपसी संवाद, साझेदारी और शिष्टाचार है। 

दो बातें स्पष्ट हैं। पहला- केजरीवाल की राजनीति कामकाज के बजाय विरोधियों से टकराव पर आधारित है। दूसरा- इंडी गठबंधन बेमानी है, क्योंकि यह केवल प्रधानमंत्री मोदी को कैसे भी सत्ता से हटाने पर टिका है। उसके पास कोई वैकल्पिक नेता, राजनीतिक स्थिरता और विकास-सम्मत जनकल्याणकारी योजना का खाका नहीं है। विपक्ष मोदी विरोध के कारण इकट्ठा तो है, परंतु सकारात्मक कार्यक्रम और प्रेरणा के आभाव में एक नहीं है। अब दिल्ली में मतदाताओं के मन में क्या है, इसका उत्तर 8 फरवरी को मतगणना के दिन मिलेगा। 

(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक हैं)

Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *