इस्लाम को गैर इस्लामी कुछ भी पसंद नहीं

विजय मनोहर तिवारी
इस्लाम को गैर इस्लामी कुछ भी पसंद नहीं
“बटवारे संपत्ति के होते हैं। विरासत बंटती नहीं हैं।”
मजहब के आधार पर हुए अखंड भारत के विनाशकारी विभाजन को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। आज भी अनेक मजहबी लोग पाकिस्तान को मुसलमानों की मिल्कियत मानते हैं, जो मजहब के कारण उन्हें मिलनी चाहिए थी। किंतु वे एक बंटवारे से ही संतुष्ट होकर नहीं रहे। बचे-खुचे भारत में वक्फ की आड़ में भारत की संपत्तियों को हड़पने की धीमी गति से उनकी कब्जा जमाने की वही घातक प्रक्रिया जारी रही।
दो नवजात इस्लामी देश दस लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक का क्षेत्र हड़पकर बैठ गए और वक्फ ने भारत में दस लाख एकड़ के क्षेत्र कब्जा लिए। इनमें हजारों मठ-मंदिर और तीर्थ हमेशा के लिए हमसे अलग हो गए। मुलतान और लाहौर में वे मंदिर या तो मदरसे-मस्जिदों में बदल दिए गए या माँस की दुकानें खोल दी गईं। संपत्ति का कोई कैसा भी प्रयोग कर सकता है। वह केवल संपत्ति नहीं थी, वह भारत की विरासत थी।
बांग्लादेश में हिंदुओं के नरसंहार और इस्कॉन के विरोध का अर्थ ही यह है कि उन्हें केवल हिंदुओं की संपत्ति चाहिए, विरासत से उनका इंकार स्पष्ट है। स्वतंत्रता पश्चात कश्मीर में हुआ हिंदुओं का नरसंहार और पलायन यही रेखांकित करता है कि इस्लाम के अनुयायियों के पूरे प्रयास केवल संपत्तियों को हड़पने के हैं। उन्हें भारत के पूर्वजों की परंपरा, संस्कृति और इतिहास की महान विरासत में कोई रुचि नहीं है। रुचि तो दूर, वे उसे हर स्तर पर समाप्त करने के हामी हैं। संभल में जो कुछ सामने आ रहा है, वह यही है। संपत्तियों पर कब्जे जमाओ और विरासत को मिटाओ। होहल्ला ऐसा हो कि कुछ सुनाई ही न दे। मगर सब सुनाई और दिखाई दे रहा है।
इस्लाम के अनुयायियों का यह चरित्र ऐतिहासिक, वैश्विक स्तर पर एकरूप और हर कहीं जारी उनके अंतहीन प्रयासों के साथ दर्शनीय है। अफगानिस्तान में तालिबान के उभार के बाद अंतिम सिख परिवारों का गुरु ग्रंथ साहिब सहित सुरक्षित पलायन भी यही दर्शाता है कि उस विरासत को वे फूटी आँखों देखना नहीं चाहते। उन्हें केवल संपत्ति चाहिए। संपत्ति केवल इमारतों और तिजोरियों के रूप में ही नहीं, महिलाएँ और बच्चियाँ भी इसमें शामिल हैं। कश्मीर में कुछ ऐसे ही नारे लगाए गए थे कि हिंदू अपने घर-दुकान और महिलाओं को छोड़कर निकल जाएं।
दुर्भाग्य यह है कि यह विरासत अकेले हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों की नहीं हैं, वह अक्ल के उन अंधों की भी है, जो केवल अपनी पहचान बदल दिए जाने से स्वयं को कुछ और समझ रहे हैं। एक ओढ़ाई गई पहचान सत्य को ढंक नहीं सकती। इस्लाम के आवरण में असल सत्य कन्वर्जन का है।
हम कह सकते हैं कि बचे-खुचे और अब अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित भारत के हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध ही हजारों वर्ष की विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। यह ध्यान देने वाली बात है कि इनमें से कोई भारत को अपनी संपत्ति नहीं कहता। वे भारतीय परंपरा और संस्कृति के एकमात्र उत्तराधिकारी हैं। दस हजार वर्षों में भारत ने जो कुछ भी अर्जित किया है, वह संचित ज्ञान परंपरा उत्तराधिकार में उन्हें मिली है। वह उनकी संयुक्त है और वे इस संयुक्त परिवार के अटूट हिस्से हैं।
सनातन संस्कृति के आरंभ से सिख परंपरा के विकसित होने तक, तथागत बुद्ध और समस्त तीर्थंकरों की धाराएँ इनमें शामिल हैं। किसी मुस्लिम को इनसे कोई लेना-देना नहीं रहा है। उनकी विचारधारा और मजहब का डिजाइन उन्हें इस बात की कहीं अनुमति नहीं देता कि वे भारत भूमि के प्रतीकों से स्वयं को जोड़ें। उन्हें भारत के हिस्से अंत तक चाहिए, भारत की विरासत का एक अंश भी नहीं।
विरासत से इंकार एक बात है किंतु शत्रुतापूर्ण ढँग से उसे नष्ट करने की निरंतर चेष्टाएँ अधिक खतरनाक हैं। इस्लामियों के इरादे स्पष्ट हैं। आज से नहीं आरंभ से। सीरिया, स्पेन और तुर्की में उन्होंने चर्चों के साथ वही किया, जो भारत में मंदिरों के साथ सदियों तक हुआ। कब्जा और पहचान बदलने का एकसूत्रीय एजेंडा। दमिश्क से लेकर इस्तांबुल तक हजारों चर्चों को इबादतगाहों में बदल दिया गया। भारत में मंदिरों के मिटाए जाने की कहानी हर उस जगह दोहराई गई, जहाँ से मुस्लिम हमलावर कहीं के लिए भी गुजरे या कब्जा जमाकर रहे। आज तक नदियों और कुओं से मिलने वाली खंडित मूर्तियां, जंगलों में पड़े हजारों धूल-धूसरित मंदिर और मंदिरों के मलबे से खड़ी की गई हजारों मस्जिदों की सूचियाँ हैं, जिन्हें गूगल के सहारे तस्वीरों में देखा जा सकता है। पहले कुछ और था, बाद में कुछ और। बीच में बस एक सफल कब्जे की कहानी है।
मंदिरों को लूटना और तोड़ना, विश्वविद्यालयों को जलाकर राख कर देना, केवल भारत की मूल विरासत से इंकार करना नहीं था, उसे अपमानित करने और जड़ मूल से नष्ट करने की साफ कोशिश थी, जिससे आज कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। वह एक ऐसी ऐतिहासिक सच्चाई है, जिस पर गर्व करने वाले मुसलमान आज भी सरहदों के इस या उस ओर कम नहीं हैं। जिस परंपरा को उनका दीन नहीं मानता उसे केवल नहीं मानना ही पर्याप्त नहीं है, उसे नष्ट करने के निरंतर प्रयास और तैयारी उनके स्वभाव में जन्मजात है। यह एक कटु और सर्वज्ञात सत्य है।
ऐसी विकट परिस्थिति में सनातन के छत्र में बचे हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को इतिहास और वर्तमान के क्या सबक हैं? मेरी दृष्टि में सबसे पहला पाठ तो यही है कि उनमें यह भाव हो कि वे एक ही विशाल वटवृक्ष की शाखें हैं। कोई किसी से किसी अर्थ में अलग नहीं है। भारत की जड़ों ने उन्हें सींचकर विकसित किया है। भारत का जो कुछ भी है, उनकी संयुक्त विरासत है और उसे भविष्य की हर संभावित आपदा से बचाना उनका धर्म है। उनके धर्मस्थल, उनकी परंपराएँ, उनके शास्त्र, उनके पर्व और त्यौहार, उनके भोजन और परिधान, उनकी भाषा और बोली सब कुछ उनकी महान विरासत का हिस्सा हैं, जिसके वे उत्तराधिकारी हैं। यह उन्हें उत्तराधिकार में मिला है। इसकी रक्षा करना और सुरक्षित अगली पीढ़ी को सौंपना उनके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इसमें किसी भी प्रकार के आपसी टकराव और व्यर्थ विवाद भयावह खतरे में ले जाएंगे, क्योंकि देश को संपत्ति मानकर हजम करने की कुत्सित मानसिकता के लोग यही चाहते हैं कि हम बंटे और कटें।
बीते सौ वर्षों में भारत ने अपनी विरासत का एक बड़ा हिस्सा गंवाया है, जिसकी वापसी लगभग असंभव है। द्विराष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर हुए रक्तरंजित बटवारे ने पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश को मानचित्र पर उभारा, किंतु हिसाब वहीं खत्म नहीं हुआ। हमारे अदूरदर्शी राजनेताओं ने सत्ता की शीघ्रता में दरियादिली दिखाते हुए अधूरे हिसाब छोड़े, जो तीन पीढ़ियों के बाद फिर सुलग रहे हैं।
सबसे घाटे में रहे भारत की संयुक्त विरासत के समस्त उत्तराधिकारियों को यह सोचना होगा कि आखिर वे कितना और कब तक खोने दे सकते हैं। यह मध्ययुग नहीं है और भारत कोई लूट का माल नहीं है, जो अंत तक लुटता और बटता ही रहेगा। कब्जा और लूटमार की यह घातक कथा अब पूर्ण होनी चाहिए और इसे बढ़ावा देने वाली शक्तियों को हर स्तर पर दरकिनार किया जाना चाहिए।