इस्लामिक कट्टरता एक चुनौती

इस्लामिक कट्टरता एक चुनौती

बलबीर पुंज

इस्लामिक कट्टरता एक चुनौतीइस्लामिक कट्टरता एक चुनौती

देश आज अपना 78वां स्वाधीनता दिवस मना रहा है। यह अवसर उत्सव मनाने के साथ आत्मचिंतन करने का भी है। वर्ष 1947 में जब हम आज के दिन ब्रितानी दासता से मुक्त हुए, तब इसके कुछ घंटे पहले हमारा देश इस्लाम के नाम पर खंडित हो चुका था। पाकिस्तान के पैरोकार उन कासिम, गोरी, गजनवी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली, टीपू सुल्तान आदि आक्रांताओं में अपना नायक खोजते हैं, जिन्होंने इस भूखंड की सनातन संस्कृति और उससे प्रेरित सिख गुरु परंपरा को कुचलने का प्रयास किया था। जो एक चौथाई हिस्सा तब हमसे अलग हुआ था, वह 1971 में फिर दो और हिस्सों में बंट गया। वही विक्षेपित भारतीय भूखंड— पाकिस्तान और बांग्लादेश नाम से जाने जाते हैं, जिस पर इस्लाम का कब्जा है। वहां सनातन भारत की कालजयी बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्षी जीवन मूल्यों का दम घुट चुका है। इसका प्रमाण बांग्लादेश के हालिया घटनाक्रम में दिख जाता है, जो अपने भीतर खंडित भारत के लिए गहरा भाव समेटे हुए है। 

जैसे ही 5 अगस्त को बांग्लादेश के प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देकर शेख हसीना अपना देश छोड़ने और भारत में शरण लेने को विवश हुईं, वैसे ही इस इस्लामी देश में महीनों से ‘सत्ता-विरोधी’ और ‘छात्र क्रांति’ के नाम पर चल रहा आंदोलन, अपने असली चरित्र अर्थात् घोर इस्लामी प्रदत्त अल्पसंख्यक— हिन्दू-बौद्ध, ईसाई और उदारवादी मुसलमान विरोधी जिहाद में परिवर्तित हो गया। बांग्लादेशी मीडिया के अनुसार, देश के 64 में से 52 जिलों में हिन्दुओं को लक्षित करते हुए 205 से अधिक हमले हो चुके हैं। हिन्दुओं को चिन्हित करके उनके घर-दुकानों के साथ मंदिरों को फूंका जा रहा है, उनकी बहू-बेटियों की अस्मत से खिलवाड़ किया जा रहा है और उनकी संपत्ति तक लूटी जा रही है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर प्रवेश के लिए पीड़ित हिन्दुओं का तांता लगा हुआ है। इससे संबंधित कई वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल भी हैं। एक बंगाली मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार, बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी और हिफाजत-ए-इस्लाम पूरे बांग्लादेश के साथ भारत से सटे क्षेत्रों के साथ नेपाल, म्यांमार के कुछ एक क्षेत्रों को मिलाकर ‘गजवा-ए-हिन्द’ अवधारणा के अंतर्गत उस पर इस्लामी परचम लहराना चाहते हैं। 

क्या शेख हसीना को उनकी तथाकथित ‘तानाशाही’ और ‘अलोकतांत्रिक’ होने के कारण हटना पड़ा? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले बांग्लादेश की आर्थिकी का हाल जान लेते हैं। शेख हसीना के पिछले 15 वर्षों से अधिक के शासन में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बदल गई है। यहां तक कि कुछ मामलों में उसने भारत को भी पीछे छोड़ दिया है। बांग्लादेश ने विश्व स्तरीय रेडीमेड गारमेंट्स (आरएमजी) उद्योग खड़ा किया है, जो भारत से अधिक निर्यात कर रहा है। बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी आय 2600 डॉलर है, जोकि लगभग भारत के बराबर है। कई सामाजिक संकेतकों में बांग्लादेश की स्थिति अच्छी है। फिर भी बांग्लादेश में शेख हसीना के प्रति गहरी घृणा का कारण क्या है, जिसके चलते उन्हें अपनी जान बचाने हेतु देश छोड़कर भागना पड़ा? 

सुधी पाठकों को याद होगा कि शेख हसीना के पिता और बांग्लादेश के जनक ‘बंगबंधु’ शेख मुजीबुर रहमान की 15 अगस्त 1975 को उनके परिवार के कई सदस्यों के साथ उनके घर में हत्या कर दी गई थी। जिन कारणों से उनकी हत्या हुई, उन्हीं कारकों ने शेख हसीना को बांग्लादेश से भागने पर विवश किया है। अपने पिता की भांति हसीना भारत के साथ अच्छे संबंध रखने की पक्षधर रही हैं, जिसे जिहादी सहित इस्लामी कट्टरपंथी ‘काफिर’ मानते हैं। वर्ष 1971 के ‘बांग्लादेश मुक्ति युद्ध’ के दौरान पाकिस्तानी सेना और जिहादी रजाकारों ने स्थानीय हिन्दू-बौद्ध समुदाय का नरसंहार करते हुए उनकी लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। वैसा मजहबी नरसंहार बांग्लादेश में दोबारा न दोहराया जाए, उसके लिए शेख मुजीबुर रहमान ने हिन्दू-बौद्ध अनुयायियों को ‘काफिर’ मानने से इनकार कर दिया। पिता की तरह शेख हसीना भी अपने कार्यकाल में ऐसा ही करने का प्रयास कर रही थीं, जो जिहादियों को मुजीबुर के समय भी नागवार गुजरा था और उन्हें ऐसा आज भी स्वीकार नहीं है। 

सच तो यह है कि अविभाजित भारत में जिन शक्तियों— ब्रितानियों, वामपंथियों और जिहादियों के गठजोड़ ने पाकिस्तान का खाका खींचा, उसने ही शेख मुजीबुर रहमान को रास्ते से हमेशा के लिए हटा दिया और उनकी बेटी शेख हसीना को देश निकाला दे दिया। इसमें अंतर केवल इतना है कि औपनिवेशी के रूप में ब्रितानियों का स्थान अमेरिका ने ले लिया है। शेख हसीना का आरोप है कि अमेरिका रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सेंट मार्टिन द्वीप पर कब्जा चाह रहा है, ताकि वह हिन्द महासागर में अपना प्रभुत्व स्थापित कर सके। इससे पहले उन्होंने, बतौर बांग्लादेशी प्रधानमंत्री, दावा किया था कि बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ हिस्सों को काटकर पूर्वी तिमोर जैसा एक ईसाई देश बनाने का षड्यंत्र चल रहा है। 

यह ठीक है कि अपने 20 वर्षों के शासनकाल में शेख हसीना हिन्दू सहित अन्य बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा हेतु प्रतिबद्ध रहीं, परंतु वह दो नावों में एक साथ सवार होने का प्रयास कर रही थीं। वह इस्लामी बांग्लादेश में उदार व्यवस्था तो बना रही थीं, साथ ही ‘हिफाजत-ए-इस्लाम’ जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन को अधिक से अधिक मदरसे बनाने के लिए ज़मीन और अनुदान भी दे रही थीं। उन्होंने ‘मदीना सनद’ के अनुसार शासन चलाने और मदरसों से मिलने वाली डिग्रियों को सामान्य विश्वविद्यालयों की डिग्रियों के बराबर का दर्जा देने की घोषणा तक कर दी थी। कड़वा सच तो यह है कि गद्दी पर बने रहने के लिए शेख हसीना ने जिस इस्लामी कट्टरपंथ को संरक्षण दिया, उसने ही उन्हें अपदस्थ कर दिया। 

स्वतंत्रता के बाद भारत का एक राजनीतिक वर्ग दशकों से ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर उसी इस्लामी कट्टरता को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से बढ़ावा दे रहा है, जो पहले भी देश का इस्लाम के नाम पर विभाजन कर चुका है। यह राजनीतिक कुनबा वोटबैंक की राजनीति हेतु गाजा-फिलीस्तीन के मुस्लिमों से सहानुभूति तो रखता है, परंतु बांग्लादेशी हिन्दुओं के दमन को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बताकर चुप रहता है। ऐसे दोहरे मापदंड रखने वालों को पहचानने की आवश्यकता है, जिनसे भारत की स्वतंत्रता, संप्रभुता, सुरक्षा और उसके सांस्कृतिक अस्तित्व को सर्वाधिक खतरा है। 

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *