इजराइल-हमास युद्ध और दोहरा मापदंड
बलबीर पुंजइजराइल-हमास युद्ध और दोहरा मापदंड
इजराइल-हमास युद्ध को 100 दिन से अधिक हो गए हैं। यह युद्ध अभी तक हजारों को लील चुका है, तो गाजा-पट्टी का आधा हिस्सा इजराइली बमबारी से मलबे में बदल गया है। इजराइल और फिलीस्तीन के असंख्य नागरिक के विरुद्ध हो रहा अत्याचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इस मानवीय त्रासदी के लिए कौन जिम्मेदार है? इजराइल या हमास (इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन) रूपी फिलीस्तान समर्थित संगठन?
इजराइल अपनी स्थापना (1948) से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। जब भी उस पर मजहबी कारणों से आक्रमण होता है, तब वह प्रतिकार करते हुए कोई रियायत नहीं बरतता। परंतु हमास का युद्ध मजहबी उन्माद से प्रेरित है और काफिर-कुफ्र अवधारणा से प्रेरणा पाता है। हमास, दुनिया के कई देशों द्वारा घोषित आतंकवादी संगठन है। परंतु एक वैश्विक वर्ग, जोकि वाम-उदारवादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों का एक समूह है— वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इजराइल पर हमला करने वाले हमास के प्रति सहानुभूति रख रहा है। उनके लिए दुनिया का एकमात्र यहूदी राष्ट्र— इजराइल ही दोषी है।
इसे पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा कहेंगे कि इजराइल में जिस तरह दानवी कृत हमास के जिहादियों ने किया, जिसमें उन्होंने पालने में सोते ढेरों मासूम बच्चों की गला रेतकर हत्या तक कर दी या उन्हें जीवित जला दिया— उसके समर्थन में इस कुनबे द्वारा नैरेटिव बनाया जा रहा है कि हमास का हमला ‘फिलीस्तीन पर जबरन इजराइली कब्जे’ का बदला है, जबकि प्रतिकारस्वरूप सैन्य कार्रवाई कर रहा इजराइल हजारों फिलीस्तीनियों का दमन कर रहा है। यदि ऐसा है, तो यह कुनबा ‘ब्लैक सितंबर’ के बारे में क्या कहेगा?
इजराइल के पड़ोस में जॉर्डन नामक इस्लामी राष्ट्र है, जिसके शासक राजा अब्दुल्ला-2 शाही हाशमाइट साम्राज्य (1946 से अबतक) से हैं, जिसे पैगंबर मोहम्मद साहब का प्रत्यक्ष वंशज माना जाता है। बात वर्ष 1967 की है। उस समय इजराइल के विरुद्ध हुए छह दिवसीय मजहबी युद्ध में मिस्र, जॉर्डन और सीरिया की प्रचंड पराजय हुई थी। तब लाखों फिलीस्तीनियों को जॉर्डन के तत्कालीन साम्राज्य के राजा हुसैन ने शरण दी। इसी कालखंड में ‘फिलिस्तीन मुक्ति संगठन’ (पीएलओ) के सहयोग से ‘फतह’, ‘फिदायीन’ और ‘पीएफएलपी’ नामक समूहों का गठन भी हो चुका था, जो यहूदी राष्ट्र इजराइल को दुनिया से मिटाने हेतु जॉर्डन में अपनी शक्ति बढ़ाने लगे। अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए वे प्रत्येक अंतराल पर इजराइली ठिकानों पर हमला करते। इससे उनकी लोकप्रियता अरब देशों में काफी बढ़ने लगी। उस समय पीएलओ का मुख्यालय जॉर्डन के अम्मान में था।
इसी बीच मिस्र ने 1969 में इज़राइल पर फिर हमला कर दिया, जिसमें जॉर्डन से संचालित ‘पीएलओ’, ‘फतह’, ‘फिदायीन’ और ‘पीएफएलपी’ ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। तब मिस्र-जॉर्डन-इजराइल के बीच 1970 में अमेरिका के कूटनीतिक ‘रॉजर प्लान’ से युद्धविराम हुआ। इससे नाराज़ पीएलओ ने हाशमाइट सम्राट हुसैन को चुनौती दी, जिस जॉर्डन ने उन्हें शरण दी, उस पर कई हमले किए और उसमें ही अलग ‘फिलीस्तीन’ राष्ट्र बनाने का प्रयास शुरू कर दिया। कालांतर में पीएफएलपी ने सम्राट हुसैन की हत्या की भी कोशिश की, जिसमें असफल होने से बौखलाए पीएफएलपी ने दो अमेरिकी और एक स्विस हवाई जहाजों का अपहरण कर लिया और उन्हें जॉर्डन ले आए। 56 यहूदियों और छह अमेरिकी नागरिकों को छोड़कर अन्य सभी यात्रियों को रिहा कर दिया और जॉर्डन पर दवाब बनाने के लिए पीएफएलपी आतंकियों ने दो खाली जहाजों को बम से उड़ा दिया।
यह घटनाक्रम फिलीस्तीनी समूहों द्वारा जॉर्डन की स्वायत्तता पर गहरा प्रहार था। सम्राट हुसैन ने 16 सितंबर 1970 को अपनी सेना को फिलीस्तीनी-नियंत्रित क्षेत्रों पर हमले के निर्देश दे दिए, जिसे ‘ब्लैक सितंबर’ नाम से जाना जाता है। कई रिपोर्टों के अनुसार, उस समय मारे गए फिलिस्तीन समर्थक लड़ाकों की अनुमानित संख्या 25,000 या उससे अधिक थी। दिलचस्प यह भी है कि जो पाकिस्तान पिछले 100 दिनों से अन्य कुछ इस्लामी देशों की भांति हमास-विरोधी इजराइली सैन्य अभियान में कई ‘निर्दोष फिलीस्तीनियों’ के मारे जाने पर आंसू बहा रहा है, उसी देश के पूर्व तानाशाह जनरल जिया-उल-हक ने ही जॉर्डन के 10 दिवसीय ‘ब्लैक सितंबर’ में इजराइल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हजारों फिलीस्तीनियों के कत्लेआम में रणनीतिक भूमिका निभाई थी। जिया उस समय ओमान में पाकिस्तानी दूतावास में कार्यरत थे। तब जिया ने जॉर्डन सेना को पीएलओ के विरुद्ध लड़ने हेतु विशेष प्रशिक्षण दिया था। इस घटना के लिए जिया को फ़िलीस्तीनियों का ‘कसाई’ कहकर संबोधित किया जाता है।
क्या तब पाकिस्तान के समर्थन से जॉर्डन के मुस्लिम शासक, जो पैगम्बर साहब के प्रत्यक्ष वंशज हैं— उनके द्वारा हजारों फिलीस्तीनियों की मौत पर कोई हो-हल्ला हुआ था, जैसे इजराइल-हमास युद्ध में हो रहा है? यदि तब सम्राट हुसैन द्वारा अपने देश की एकता और अखंडता सुरक्षित रखने के लिए फिलीस्तीनियों पर सैन्य कार्रवाई गलत नहीं थी, तब इजराइल द्वारा हमास के 7 अक्टूबर 2023 को किए भीषण आक्रमण का प्रतिकार, जिसमें गाजा-पट्टी पर रॉकेट-टैंक से हमला हो रहा है— उस पर हायतौबा क्यों?
यह विडंबना केवल फिलीस्तीनियों तक सीमित नहीं है। पाकिस्तान ने अपनी वैचारिक कोख से जिन हजारों-लाखों जिहादियों को पैदा किया, वह उसके लिए भी भस्मासुर बन रहे हैं। पूर्व तानाशाह जिया-उल हक के कार्यकाल (1978-88) के बाद पाकिस्तान में शिया-सुन्नी और अहमदिया संप्रदायों के बीच मजहबी टकराव को बढ़ावा मिला। एक आंकड़े के अनुसार, पाकिस्तानी वैचारिक अधिष्ठान द्वारा पनपाए आतंकवाद ने दीन के नाम पर बीते दो दशकों में 70,000 पाकिस्तानियों (शत-प्रतिशत मुस्लिम) को मौत के घाट उतार दिया है। अकेले वर्ष 2010-18 में सुन्नी मुस्लिम मजहबी कारणों से लगभग 5,000 शिया मुसलमानों की हत्या कर चुके हैं। कई अन्य इस्लामी देश भी इसी प्रकार के दीनी संघर्ष से दो-चार हैं।
वास्तव में, यह दोहरे मापदंड की चरमसीमा है। जब दुनिया (भारत) में आतंकवादियों द्वारा इस्लाम के नाम पर गैर-मुस्लिमों के साथ अन्य मुसलमानों की हत्या की जाती है, तब इस पर या तो चुप्पी मिलती है या निंदनीय कहकर औपचारिकता पूरी कर ली जाती है या फिर इसे कुतर्कों से न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया जाता है। परंतु जब इसके पीड़ित (किसी देश सहित) द्वारा प्रतिकार किया जाता है, तब इसे ‘दमन’ या ‘इस्लामोफोबिया’ की संज्ञा दे दी जाती है। इजराइल-हमास युद्ध पर विकृत नैरेटिव— इसका हालिया उदाहरण है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)