जातर प्रथा: दक्षिण राजस्थान की एक अनोखी परंपरा

जातर प्रथा: दक्षिण राजस्थान की एक अनोखी परंपरा

जातर प्रथा: दक्षिण राजस्थान की एक अनोखी परंपराजातर प्रथा: दक्षिण राजस्थान की एक अनोखी परंपरा

दक्षिण राजस्थान के जनजातीय अंचलों में कई अद्वितीय और पुरातन परंपराएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक है ‘जातर प्रथा’। यह परंपरा जनजातीय समाज की महिलाओं, विशेषकर बहनों, को सम्मान और संबल देने का एक प्रतीकात्मक तरीका है। 

जातर प्रथा का मुख्य उद्देश्य बहनों को समाज में उनका उचित स्थान और सम्मान दिलाना है। भारतीय संस्कृति में बहनों को हमेशा विशेष स्थान दिया जाता है, और यही भावना जातर प्रथा में भी देखी जाती है। इस प्रथा के अंतर्गत जब खरीफ की फसल, विशेष रूप से मक्का, पककर तैयार हो जाती है, तो सबसे पहले इसे देवताओं को अर्पित किया जाता है। इस अनुष्ठान का उद्देश्य प्रकृति और देवताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना है, जिन्होंने फसल की सुरक्षा और समृद्धि सुनिश्चित की।

देवताओं को अर्पित करने के बाद फसल का एक विशेष भाग बहनों को दिया जाता है। यह भाग न केवल उनका अधिकार होता है, बल्कि यह भाईयों द्वारा बहनों के प्रति अपने प्रेम और सम्मान को व्यक्त करने का भी एक माध्यम होता है। बहनों को यह भाग देना एक प्रकार का वचन होता है, जिसमें भाई बहन की रक्षा और उसके कल्याण की जिम्मेदारी लेता है।

रक्षाबंधन से समानता

जातर प्रथा की तुलना रक्षाबंधन से की जा सकती है। जिस प्रकार रक्षाबंधन पर भाई अपनी बहन को उपहार देकर उसकी रक्षा का वचन देता है, उसी प्रकार जातर प्रथा में बहनों को फसल का भाग देकर उन्हें सम्मानित किया जाता है। यह प्रथा दर्शाती है कि भारतीय समाज में बहनों को कभी भी खाली हाथ नहीं जाने दिया जाता।

जातर प्रथा की प्रासंगिकता

आज के समय में भी जातर प्रथा का पालन कई जनजातीय समुदायों में होता है। हालांकि, बदलते समय के साथ इस प्रथा में भी कुछ परिवर्तन आए हैं, परंतु इसका मूल उद्देश्य और भावना आज भी वही है। यह प्रथा हमें यह सिखाती है कि कैसे हमें अपने परिवार के सदस्यों, विशेषकर बहनों, का सम्मान करना चाहिए और उन्हें समाज में उनका उचित स्थान देना चाहिए। यह प्रथा दक्षिण राजस्थान के जनजातीय समाज की एक अनमोल धरोहर है, जो बहनों को संबल देने और उन्हें सम्मानित करने की एक अद्वितीय परंपरा है। यह प्रथा हमें भारतीय संस्कृति की समृद्धि और उसकी गहरी मान्यताओं का परिचय कराती है, जहां परिवार, रिश्तों और प्रकृति के प्रति सम्मान की भावना सर्वोपरि होती है।

जातर प्रथा का प्रारंभ

ऐसा माना जाता है कि जातर प्रथा कृषि की शुरुआत के साथ ही विकसित हुई। जब कृषि कार्य प्रारंभ हुए और लोगों ने फसल उगाना शुरू किया, तो उन्होंने अपने विश्वास और धर्म के अनुसार अपनी फसलों का पहला भाग देवताओं को अर्पित करने की परंपरा बनाई। इसके बाद, उन्होंने बहनों को फसल का भाग देने की परंपरा शुरू की, जो समय के साथ जातर प्रथा के रूप में स्थापित हो गई।

सामाजिक आयोजन

जातर प्रथा के दौरान परिवार और समुदाय के लोग इकट्ठा होते हैं। इस समय पर पारंपरिक गीत और नृत्य भी किए जाते हैं, जो इस आयोजन को और भी उल्लासपूर्ण बनाते हैं। इसमें पूरे परिवार और समुदाय की भागीदारी होती है, जिससे इस प्रथा का सामाजिक महत्व भी स्पष्ट होता है। इस आयोजन के अंत में उपस्थित लोगों को पारंपरिक भोजन और प्रसाद दिया जाता है। यह भोजन विशेषकर नई फसल के अनाज से तैयार किया जाता है, जो इस पर्व का एक महत्वपूर्ण भाग है।

किन किन जनजातियों द्वारा मनाई जाती है जातर प्रथा

इसे विशेष रूप से भील, मीणा, गरासिया, सहरिया आदि जनजातियों द्वारा प्रमुख रूप से मनाया जाता है। दक्षिण राजस्थान में जनजातीय जनसंख्या की बड़ी भागीदारी भील और मीणा जनजातियों की है, जो राज्य की कुल जनजातीय जनसंख्या का अधिकांश भाग बनाते हैं। गरासिया और सहरिया जनजातियों का प्रतिशत अपेक्षाकृत कम है, लेकिन वे भी इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

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