सामाजिक समरसता और भारत के राष्ट्रीय एकत्व की प्रतीक है जगन्नाथ रथयात्रा
रमेश शर्मा
सामाजिक समरसता और भारत के राष्ट्रीय एकत्व की प्रतीक है जगन्नाथ रथयात्रा
उड़ीसा प्रांत के पुरी में विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा और रथोत्सव 7 जुलाई से आरंभ हो रहा है, जो 16 जुलाई तक चलेगा। भारत राष्ट्र के एकत्व और सामाजिक समरसता के प्रतीक इस मंदिर का इतिहास बहुत उतार चढ़ाव से भरा है। विध्वंस और पुनर्निर्माण का संघर्ष अयोध्या के बाद इसी मंदिर का है।
यह रथयात्रा और पुरी का जगन्नाथ मंदिर ऐतिहासिक सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। माना जाता है कि पुरी मंदिर का निर्माण दो सौ वर्ष ईसा पूर्व हुआ था। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धर्म पीठों में एक पीठ पुरी में भी स्थापित है। यह ऋग्वेदी पीठ है और गोवर्धन मठ के नाम से जानी जाती है। पुरी के विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ जी मंदिर से रथयात्रा आरंभ होती है। इस मंदिर में जगन्नाथ जी के रूप में भगवान कृष्ण, उनके बड़े भ्राता बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की प्रतिमा स्थापित हैं। भगवान जगन्नाथ जी अपने बड़े भाई बलभद्र जी और बहन सुभद्रा के साथ प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को तीन रथों में सवार होकर गुन्डिचा मंदिर जाते हैं। यह मंदिर यहाँ से तीन किलोमीटर दूर है। वहाँ कुछ दिन रुककर आषाढ़ शुक्ल पक्ष दसवीं को लौटते हैं। इस वर्ष यात्रा 7 जुलाई को आरंभ हो रही है और इसका समापन 16 जुलाई को होगा। सामान्यतः यह रथ यात्रा 15 दिन की होती है, लेकिन इस वर्ष तिथियों में कुछ परिवर्तन है, इस कारण दो दिन कम रहेंगे। यात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ नंदीघोष नामक रथ में विराजमान होंगे। उनकी ध्वजा का नाम त्रैलोक्य मोहिनी है। इस रथ का रंग हल्का लाल पीला होता है। इसमें 16 पहिए होते हैं। रथ की ऊंचाई 44.2 फीट होती है। बलभद्र जी के रथ की ध्वजा ताल ध्वज है। इस रथ की ऊंचाई 43.2 फीट होती है। इसमें 14 पहिये होते हैं। सुभद्रा जी का रथ 42 फीट ऊंचा होता है। इस रथ की ध्वजा का नाम दर्प दलन है। सबसे आगे बलभद्र जी का रथ, उनके पीछे सुभद्रा जी का रथ और फिर भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है। रथ के सारथी दारूक और द्वारपाल जय विजय होते हैं जबकि संरक्षक गरुड़ जी हैं। इन रथों को 50 मीटर लंबी रस्सियों द्वारा हाथ से खींचा जाता है। रथ खींचने के लिये मानो स्पर्धा हो जाती है। वहाँ उपस्थित लाखों श्रृद्धालुओं में सभी रथ खींचकर पुण्य लाभ लेना चाहते हैं। सबसे पहले बलराम जी का रथ खींचा जाता है, फिर देवी सुभद्रा का और फिर भगवान जगन्नाथ का रथ होता है।
रथयात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया से आरंभ हो जाती है। यात्रा के लिये प्रतिवर्ष नये रथ बनाये जाते हैं। इसके लिये नरियल और नीम की लकड़ी का उपयोग होता है। इन रथों के निर्माण के लिये आधुनिक मशीनों का उपयोग नहीं होता। स्थानीय कारीगर परंपरागत कला से तैयार करते हैं। रथ के लिये लकड़ियाँ पेड़ से नहीं काटी जातीं बल्कि संग्रहीत की जाती हैं। यात्रा आरंभ होने से पहले राजा रथ के आगे झाड़ू लगाते हैं। उनके साथ राजपुरोहित और सबर जनजाति समाज के मुखिया होते हैं।
पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार यह सबर भील जनजाति बाहुल्य क्षेत्र रहा है। प्राचीनकाल में उसके मुखिया विश्ववसु थे। वे भगवान नील माधव के उपासक थे। प्रतिदिन भक्तिभाव से उपासना करते थे। भगवान नील माधव ने एक रात राजा इन्द्रधुन्म को स्वप्न में मंदिर बनाने को कहा। राजा ने अपने पुरोहित विद्यापति को मूर्ति लाने को कहा। पुरोहित विद्यापति ने सबर जनजाति के मुखिया विश्ववसु की पुत्री से विवाह कर लिया। परिवार का विश्वास जीतकर मूर्ति ले जाकर राजा को दे दी। भगवान की मूर्ति चोरी हो जाने से विश्ववसु बहुत दुखी हुआ। उसने अन्न त्याग दिया। भगवान स्वयं चलकर वापस आ गये। तब भगवान ने राजा को दोबारा स्वप्न दिया और समुद्र में द्वारिका से बहकर आने वाली लकड़ी से मूर्ति बनवाने को कहा। उन्होंने पुरी के समन्दर से लकड़ी संग्रहीत की। विश्वकर्मा जी स्वयं मूर्ति बनाने आये। वे द्वार बंद करके मूर्ति बनाने लगे। उन्होंने 21 दिन तक कार्य किया और अंतर्ध्यान हो गये। तब वे मूर्तियाँ उसी रूप में स्थापित कर दी गईं। रथयात्रा से पूर्व भगवान जगन्नाथ जी 15 दिन अज्ञातवास में रहते हैं। यह माना जाता है कि वे अस्वस्थ हो गये थे और उपचार करा रहे थे। स्वस्थ होकर ही भगवान जगन्नाथ जी यात्रा पर निकलते हैं। यह यात्रा में सहभागी होने के लिये देश विदेश से लाखों लोग एकत्र होते हैं। यह यात्रा पूरे राजसी वैभव से निकाली जाती है।
राष्ट्रीय एकत्व की प्रतीक है रथयात्रा
भारत के समस्त तीज त्यौहार और उत्सव व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्रीय एकत्व व समरसता के प्रतीक होते हैं। पुरी में आयोजित भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भी यही संदेश है। पुरी के राजा, पुरोहित और सबर जनजातीय समाज के लोग इस यात्रा का शुभारंभ करते हैं। राजा स्वयं रथ के आगे झाड़ू लगाते हैं। राजा का झाड़ू लगाना और उनके साथ पुरोहित एवं सबर भील जनजातीय मुखिया का साथ होना भारतीय समाज की समरसता का प्रतीक है। भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में सबर भील जनजातीय समाज के पुजारी भी होते हैं। मंदिर की दूसरी विशेषता है कि इसके सेवादारों में सभी प्रांतों और भाषा भाषी लोग हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही यहाँ नीलमाधव और जगन्नाथजी के रूप में विराजे हैं। उनका जन्मस्थान मथुरा और उनकी नगरी द्वारिका है। मान्यता है कि पहली बार जब भगवान जगन्नाथ जी की काष्ठ प्रतिमा बनाई गई थी, वह द्वारिका से ही समुद्र में बहकर आई थी । यदि पुरी भारत के एक छोर पर है तो द्वारिका बिल्कुल दूसरे छोर पर। मंदिर में देवी सुभद्रा की प्रतिमा भी है। देवी सुभद्रा भगवान श्रीकृष्ण की बहन हैं, जो हस्तिनापुर ब्याही हैं। हस्तिनापुर आज का दिल्ली महानगर है। यहाँ विभीषण द्वारा भगवान जगन्नाथ की आराधना करने का स्थल भी है। विभीषण श्रीलंका के राजा थे। दिल्ली एक ओर एवं श्रीलंका भारत के दूसरे छोर पर है। यही स्थिति द्वारिका और पुरी में है। अर्थात जगन्नाथ पुरी मंदिर और रथोत्सव में जहाँ समाज के सभी समूहों की सहभागिता है, उसी प्रकार पूरे भारत का दर्शन है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी के बड़े भ्राता बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी हैं। यह परिवार समन्वय का संदेश है।
इस रथोत्सव के लिये रथों का निर्माण केवल लकड़ी से होता है। धातु का कोई प्रयोग नहीं होता। लेकिन यह लकड़ी पेड़ों को काटकर नहीं जुटाई जाती। पेड़ों से सूखकर जो स्वयं गिरती है अथवा समुद्र में बहकर आती है उस लकड़ी का प्रयोग होता है। यह पर्यावरण की सुरक्षा का अद्भुत संदेश है। रथ बनाने के लिये मशीनों का उपयोग बिल्कुल नहीं होता। स्थानीय कारीगर और कलाकार लोककला के आधार पर बनाते हैं। यह भारतीय लोक परंपरा को सजीव रखने का प्रयास है।
विध्वंस और पुनर्निर्माण का इतिहास
मंदिर यदि ऐतिहासिक है तो इस पर हमलों और इसके विध्वंस का इतिहास भी बहुत लंबा है। संभवतः अयोध्या में विध्वंस और पुनर्निर्माण के संघर्ष के बाद दूसरा बड़ा संघर्ष पुरी में ही हुआ। भगवान जगन्नाथ मंदिर पर पहला हमला 1340 में हुआ। तब उड़ीसा का नाम उत्कल प्रदेश था। तब बंगाल के सुल्तान इलियास शाह ने भारी सेना के साथ जोरदार हमला बोला। राजा नरसिंह देव तृतीय ने हमले का मुकाबला तो किया पर मंदिर की रक्षा न हो सकी। आक्रमणकारियों ने मंदिर परिसर में सामूहिक नरसंहार किया और विध्वंस भी। राजा नरसिंह देव, और पुरोहितों ने जगन्नाथ की मूर्तियों को छुपा दिया था। इसलिये मूर्तियाँ सुरक्षित रहीं। लूटपाट करके हमलावरों के लौट जाने के बाद मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और मूर्तियाँ पुनर्प्रतिठित कर दी गई।
मंदिर पर दूसरा हमला 1360 में दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक ने किया। तीसरा हमला वर्ष 1509 में बंगाल के सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन शाह के कमांडर इस्माइल गाजी ने किया। तब ओडिशा में राजा रुद्रदेव प्रताप का शासन था। इस बार पुजारियों ने मंदार की मूर्तियों को बंगाल की खाड़ी में चिल्का झील क्षेत्र में छुपा दिया था। जगन्नाथ मंदिर पर चौथा हमला अफगानी लुटेरे काला पहाड़ ने किया था। यह भीषण हमला वर्ष 1568 में हुआ था और जगन्नाथ मंदिर के विध्वस्त के साथ मूर्तियों को भी जलाकर नष्ट कर दिया था। इस युद्ध के बाद ओडिशा सीधे इस्लामिक शासन के अंतर्गत आ गया था। पांचवां हमला 1592 में हुआ। यह हमला सुल्तान की ओर से कुथू खान और सुलेमान खान ने किया था। भक्तों और पुजारियों ने मंदिर की रक्षा करने का संघर्ष किया पर मंदिर ध्वस्त हुआ। सामूहिक नरसंहार हुआ और मूर्तियों को खंडित कर लूटपाट हुई। छठा हमला 1601 में बंगाल के नवाब इस्लाम खान के कमांडर मिर्जा खुर्रम द्वारा, सातवां हमला सूबेदार हाशिम खान द्वारा हुआ। इसके बाद चार बार स्थानीय शासक सेनापतियों ने मंदिर के पुनर्निर्माण कार्य को ध्वस्त किया। मंदिर पर एक बड़ा हमला 1611 में मुगल बादशाह अकबर की सेना ने किया। इसमें अकबर के दरबारी राजा टोडरमल का बेटा कल्याणमल भी शामिल था।1617 में दिल्ली के बादशाह जहांगीर के सेनापति मुकर्रम खान ने, वर्ष 1621 में मुगल गवर्नर मिर्जा अहमद बेग ने किया। मुगल बादशाह शाहजहां ने एक बार ओडिशा का दौरा किया था, तब भी पुजारियों ने मूर्तियों को छुपा दिया था। वर्ष 1641 में ओडिशा के मुगल गवर्नर मिर्जा मक्की ने मंदिर परिसर पर धावा बोला और और पुनर्निर्माण के कार्यों को ध्वस्त किया। मिर्जा मक्की ने दो बार मंदिर पुनर्निर्माण कार्य को ध्वस्त किया था। अगला हमला भी फतेह खान ने किया था। मंदिर पर काला पहाड़ की भाँति सबसे भीषण हमला बादशाह औरंगजेब के आदेश पर वर्ष 1692 में हुआ। औरंगजेब ने मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त करके इसे सैन्य छावनी बनाने का आदेश दिया। तब मुगलों की ओर से ओडिशा इकराम खान किलेदार था। मुगलों के तुकी खान ने 1699 में मंदिर परिसर के सभी सनातन चिन्हों को नष्ट किया या उन्हें रूपांतरित करके पूर्ण रूप से सैन्य छावनी में बदल दिया था। मुगलों के पतन और मराठा शक्ति के उदय के बाद मंदिर का पुनर्निर्माण आरंभ हुआ। समय के साथ परिसर खाली हुआ और मंदिर पुनः अपने अस्तित्व में आया। वर्तमान मंदिर को उसका स्वरूप देने का कार्य इंदौर की रानी अहिल्याबाई ने आरंभ किया।