देश के प्रति नेहरू का समर्पण
बलबीर पुंज
देश के प्रति नेहरू का समर्पण
गत 14 नवंबर को स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 135वीं जयंती थी। उनके किरदार और काम का आकलन दशकों से हो रहा है। निसंदेह, वे देशभक्त थे और उन्होंने अपने जीवन के लगभग साढ़े नौ वर्ष जेल में बिताए। स्वाभाविक रूप से यह संपन्न-समृद्ध, विलासी और सुख-सुविधाओं से युक्त परिवार में जन्मे व्यक्ति के लिए कठिन था। बीते दिनों इस परिवार के वंशज और वर्तमान नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने आरोप लगाया था कि कुछ भारतीयों के समर्थन से अंग्रेज देश पर राज करने में सफल हुए थे। यह बिल्कुल ठीक है और इसमें राहुल के पूर्वज भी शामिल थे।
कांग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, नेहरू जी के पिता मोतीलाल नेहरू (दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे) के दादा लक्ष्मी नारायण मुगल दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील और पिता गंगाधर मुगल शासन में दिल्ली के कोतवाल थे। जब 1857 के विद्रोह (प्रथम स्वाधीनता संग्राम) के दौरान अंग्रेजों ने बम बरसाए, तब गंगाधर अपने परिवार के साथ भागकर आगरा चले आए। वहीं उनके निधन के बाद मोतीलाल का जन्म (1861) हुआ। कालांतर में मोतीलाल ने ब्रितानी अदालत में वकालत शुरू की।
देश के प्रति नेहरू जी के समर्पण और प्रतिबद्धता पर प्रश्न उठाना गलत है। परंतु यह सच है कि अपनी शिक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण वे भारत और उसकी विविध समस्याओं को औपनिवेशिक चश्मे से देखते थे। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण हेतु तत्कालीन व्यापक शासकीय-सामाजिक समर्थन के बाद भी उन्होंने ढांचे से रामलला की मूर्ति को बाहर फेंकने का आदेश दिया। गांधीजी और सरदार पटेल के नैतिक दवाब में नेहरू जी की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल ने नवंबर 1947 में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को हरी झंडी दी। किंतु गांधीजी-पटेल के देहांत पश्चात नेहरू अपनी बात से पलट गए और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को इसके उद्घाटन समारोह में जाने से रोकने का प्रयास किया। इसका कारण उनका मार्क्स-मैकॉले दर्शन से ग्रस्त होना था, जिनका अंतिम लक्ष्य भारतीय सनातन संस्कृति का विनाश करना था और ऐसा आज भी है।
इसी चिंतन के कारण नेहरू जी हिंदुओं और उनकी परंपराओं को हीन-भावना से देखते थे। दिल्ली में 17 मार्च 1959 को वास्तुकला पर आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, “कुछ दक्षिण के मंदिरों से… मुझे उनकी सुंदरता के बावजूद घृणा होती है। मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता… वे दमनकारी हैं, मेरी आत्मा को दबाते हैं…।” 18 मई 1959 को उन्होंने देश के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखते हुए समस्त हिंदू समाज को ‘सांप्रदायिक’ बता दिया था। उनके अनुसार, “भारत में मुसलमान स्वभावतः आक्रामक रवैया नहीं अपना सकते… सांप्रदायिक शांति की जिम्मेदारी बहुसंख्यक हिंदुओं पर है…।” यह विचार तब थे, जब नेहरू के जीवित रहते इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन हुआ था। ‘सांप्रदायिकता’ पर नेहरू का विचार कितना गलत था, यह मुस्लिम बहुल कश्मीर में 1980-90 के दशक में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हुए भयावह मजहबी उत्पीड़न (हत्या-बलात्कार-पलायन सहित) से स्पष्ट है।
जब 2 अप्रैल को 1955 को लोकसभा में गौवध पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लगाने हेतु एक कांग्रेस सांसद ने विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे कांग्रेस के बड़े समूह का समर्थन प्राप्त था— तब नेहरू ने इसके पारित होने की सूरत में त्यागपत्र देने की धमकी दे दी। नेहरू का हिंदू हेय और उनका औपनिवेशिक चिंतन इस बात से भी स्पष्ट था कि उन्होंने अपने शासनकाल में भारत में जारी ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान को संवैधानिक मानकर प्रोत्साहन देने का प्रयास किया। 17 अक्टूबर 1952 को सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा उनका पत्र इसका प्रमाण है।
विदेशी प्रभाव के कारण नेहरू जी, रोमानी दुनिया में रहते थे। कश्मीर को संकटग्रस्त बनाने, उसका अंतरराष्ट्रीकरण करने और पाकिस्तान द्वारा एक तिहाई कश्मीर को कब्जाने के पीछे नेहरू की महाराजा हरिसिंह के प्रति बैरभाव की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने लोकसभा में 24 जुलाई 1952 को स्वीकार किया था कि महाराजा हरिसिंह ने (अन्य कई रियासतों की भांति) विभाजन और स्वतंत्रता से एक माह पहले भारत में विलय का अनुरोध किया था, जिसे उन्होंने ‘विशेष मामला’ बताकर टाल दिया।
नेहरू की सामरिक अदूरदर्शिता केवल कश्मीर तक सीमित नहीं थी। उन्होंने वामपंथ अधीन चीन की साम्राज्यवादी नीति पर अपने सहयोगी और देश के तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल सहित अन्य राष्ट्रवादियों की चेतावनियों की न केवल अनदेखी की, अपितु रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लिए 1955 में भारत के बजाय चीन का पक्ष लिया। इसका दुष्परिणाम, भारत ने 1962 में चीन द्वारा भारत पर सैन्य हमले, उसमें देश की अपमानजनक हार और चीन के हाथों लगभग 38,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय भूखंड गंवाने के रूप में भुगता। संभवत: इस सदमे से बुरी तरह टूट चुके नेहरू जी ने 27 मई 1964 को दम तोड़ दिया।
भारत को अगस्त 1947 में अंग्रेज कंगाल करके गए थे। परंतु नेहरू द्वारा सोवियत संघ की तर्ज पर अपनाए सामाजवाद आर्थिक मॉडल ने देश का ऐसा दिवाला निकाला कि 1970-80 के दौर में भारत बेतहाशा भुखमरी, गरीबी, कालाबाजारी आदि के चंगुल में फंस गया, तो 1991 में देनदारी पूरी करने के लिए अपना स्वर्ण भंडार विदेशों में गिरवी रखना पड़ गया। कालांतर में हुए आर्थिक सुधारों और बीते एक दशक की सकारात्मक नीतियों से देश उस उदासीन वातावरण से शत-प्रतिशत मुक्त हो चुका है।
कुल मिलाकर इतिहास नेहरू को इस बात का श्रेय देगा कि विभाजन की विभीषिका से पीड़ित खंडित भारत को उन्होंने कठिन समय में नेतृत्व दिया। यह बात अलग है कि उन्हें इसका अवसर भी गांधीजी की अनुकंपा से मिला। वर्ष 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव इसका प्रमाण है, जिसमें गांधीजी ने सरदार पटेल के पक्ष में आए बहुमत आधारित निर्णय को अपने ‘विशेषाधिकार’ से पलटकर नेहरू जी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ कर दिया था। समकालीन प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास के अनुसार, गांधीजी ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वे नेहरू को अंग्रेज मानते थे और उनके किसी दूसरे के अधीन काम नहीं करने के व्यक्तित्व से परिचित थे।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)