एक पुराने कानून को लागू करने पर इतनी हाय तौबा क्यों?
अनंत विजय
एक पुराने कानून को लागू करने पर इतनी हाय तौबा क्यों?
उत्तरप्रदेश सरकार के एक आदेश की इन दिनों बहुत चर्चा है। कई विपक्षी दल और बयान बहादुर किस्म के नेता इस आदेश को समाज को बांटने वाला बता रहे हैं। आदेश यह है कि कांवड़ यात्रियों के मार्ग में पड़ने वाली सभी दुकानों, ढाबों और ठेलों पर दुकान मालिक का नाम, रेट लिस्ट और दुकान मालिक का मोबाइल नंबर लिखना अनिवार्य कर दिया गया है। यह आदेश समान रूप से सभी दुकानों के लिए है। किसी जाति और मजहब के दुकानदारों के लिए नहीं। इस आदेश के बाद तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड को लगने लगा कि यह मुसलमानों को चिह्नित करने के लिए किया जा रहा है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने भी एक बयान जारी कर सरकार से इस निर्णय को वापस लेने की मांग की। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने इस निर्णय को अनुचित, पूर्वाग्रह पर आधारित और भेदभावपूर्ण बताया है। उन्होंने अपने बयान में आगे यह भी कहा कि यह निर्णय मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का घिनौना षड्यंत्र है। अपने बयान में मदनी ने सभी धर्म के लोगों से अपील की है कि वे एकजुट होकर इसके विरुद्ध आवाज उठाएँ। अब जरा निर्णय की बात कर ली जाए। खानपान व्यवसाय के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 2006 में एक नियम बनाया था। उसे खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम कहा गया। इस अधिनियम के अनुसार प्रत्येक रेस्तरां या ढाबा संचालक को अपनी फर्म का नाम, अपना नाम और लाइसेंस संख्या लिखना अनिवार्य है। जागो ग्राहक अभियान के अंतर्गत भी इस बात की अनिवार्यता की गई थी कि हर प्रतिष्ठान पर उसके मालिक का नाम, पंजीयन संख्या और वहां की सेवाओं या वस्तुओं का रेट कार्ड लगाया जाएगा। तब किसी भी कोने से इसके विरोध की आवाज नहीं आई थी। कारण कि तब तथाकथित सेक्युलरों की सरकार थी। अब योगी आदित्यनाथ की सरकार है, तो उनको घेरने के लिए इसका एक राजनीतिक औजार की तरह उपयोग हो रहा है। पुराने कानून को लागू करने से कैसे समाज में हिन्दू-मुसलमान विभेद उत्पन्न हो जाएगा, यह समझ से परे है। स्वाधीनता के 75 वर्षों बाद भी अगर समाज में हिन्दू और मुसलमान के बीच केवल नाम जानने के बाद विभेद पैदा हो रहा है, तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमने कैसा समाज बनाया। गंगा-जमुनी संस्कृति को नारे की तरह उपयोग करने वालों को यह सोचना चाहिए कि इस कथित गंगा-जमुनी संस्कृति की नींव कितनी कमजोर थी, जो केवल नाम जान लेने से दरक जा रही है। नाम उजागर करने से मुसलमान चिह्नित कैसे हो जाएंगे। जमीयत के नेता इसे घिनौना षड्यंत्र बता रहे हैं, लेकिन कैसे, यह नहीं बता पा रहे हैं। जहां तक नाम के सार्वजनिक करने का प्रश्न है तो नाम तो हर जगह सार्वजनिक होता है। किसी जिलाधिकारी के कमरे में जाइए तो उसकी मेज पर उसकी नाम पट्टिका रखी होती है। हर पुलिस अधिकारी और सैनिक की वर्दी पर उसका नाम लगा होता है। नाम जान लेने से समाज के बंटने का तर्क बेहद सतही है। समाज को इस बात पर चिंता करनी चाहिए कि कुछ लोग हर बात की हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से देखने लगते हैं।
संगीत की बात करें, तो क्या कभी उस्ताद बिस्मिल्ला खान की शहनाई को इस कारण से सुनना बंद किया कि वह मुसलमान हैं। किसी ने उस्ताद अल्लारखा खान से लेकर उस्ताद अलाउद्दीन खान, बड़े गुलाम अली खां, विलायत खां, बेगम अख्तर, रसूलन बाई जैसे दिग्गज कलाकारों के सम्मान में कोई कमी की। सबके नाम सार्वजनिक हैं और सभी कलाकार समान रूप से हिन्दुओं को भी पसंद हैं। नाम को लेकर जो फिजूल की बातें हो रही हैं, वे विरोध करने वालों की मानसिकता को ही दर्शाती हैं। प्रश्न मुसलमान नाम का नहीं है, मानसिकता का है, राजनीति का है। जिन मुस्लिम कलाकारों ने अपने नाम बदलकर हिन्दू नाम रख लिए, उन्हें भी हमारे देश की जनता ने इतना सम्मान और प्यार दिया जिसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता है। आज भी जब सिनेमा के दमदार कलाकारों की बात होती है तो दिलीप कुमार का नाम लिया जाता है। यूसुफ खान जब फिल्मों में आए तो दिलीप कुमार बन गए। लोगों को इस बात का पता भी चला, लेकिन उनकी लोकप्रियता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। इसी तरह जब हमारे देश के दर्शकों को पता चला कि अभिनेत्री मीना कुमारी का नाम महजबीन बानो है, तब भी कोई अंतर नहीं आया। मधुबाला भी मुमताज जहां बेगम देहलवी थीं, लेकिन आज भी हिन्दी फिल्मों की सबसे सुंदर अभिनेत्री के तौर पर समाहृत हैं। हिन्दू हों या मुसलमान, सब इनके प्रशंसक हैं। दर्जनभर से अधिक मुसलमान अभिनेता और अभिनेत्रियों ने अपना नाम बदलकर हिन्दू नाम रख लिया था। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। इसी तरह से शाहरुख खान या सलमान खान अपने मुस्लिम नाम और पहचान के साथ ही फिल्मों में आए, भारतीय जनता ने उन्हें सिर पर बिठाया। यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद आमिर खान एक पार्टी विशेष के एजेंडा को बढ़ाने के लिए एक्टिविस्ट बन गए थे, लेकिन जनता ने न तो उनकी राजनीति देखी और न ही उनका नाम। देखा तो केवल उनका काम। आज भी फैज से लेकर मीर तक की शायरी भारत में लोगों की जुबान पर है। तो फिर कैसे बात करते हैं कि दुकान पर मुस्लिम नाम लिखे होने के कारण हिन्दू वहां नहीं जाएंगे या दुकानों पर नाम लिखने का नियम लागू होने से मुसलमान इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक हो जाएंगे। जब भी हमारे देश में इस तरह की बातें होती हैं तो लगता है कि जो लोग पंथनिरपेक्षता के झंडाबरदार होने का दावा करते हैं, उनकी सोच कितनी संकुचित है। जो लोग इस तरह के नियमों से सामाजिक समरसता समाप्त होने की बात करते हैं, उन्हें न तो हिन्दुओं पर भरोसा है, और न ही मुसलमानों पर विश्वास। दरअसल जबसे संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द को अवैध तरीके से जोड़ा गया, तब से ही इस तरह का वातावरण बनाया गया, ताकि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता बढ़े। पिछले दस वर्षों से यह प्रवृत्ति और बढ़ी है। कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम को यह लगता है कि मुसलमानों को इस तरह से डराकर ही अपने पाले में ला सकती है। तभी उनका एकमुश्त वोट उनकी पार्टी को मिल सकता है। वर्ष 2024 के चुनाव में हालांकि कांग्रेस पार्टी को सफलता नहीं मिली, लेकिन मुसलमानों को एक वोट बैंक के तौर पर अपने गठबंधन में लाने में सफल रहे। अब उनके सामने इस वोटबैंक को अपने साथ बनाए रखने की चुनौती है। इस चुनौती से निबटने के लिए वे दुकानों पर नाम लिखने के सरकारी आदेश को राजनीति के टूल की तरह प्रयोग कर रहे हैं। हिन्दू और मुसलमान में देश को उलझाने वाले इन प्रयासों से तात्कालिक रूप से वोट मिल सकता है, कहीं कहीं सत्ता भी, लेकिन देश कहीं पीछे छूट जाएगा। इसके बारे में समाज को सोचना होगा।