धर्म सम्राट स्वामी करपात्री महाराज

धर्म सम्राट स्वामी करपात्री महाराज

रमेश शर्मा 

धर्म सम्राट स्वामी करपात्री महाराजधर्म सम्राट स्वामी करपात्री महाराज

करपात्री जी महाराज एक महान सन्त और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका पूरा जीवन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना और स्वत्व जागरण के लिये समर्पित रहा। इतिहास प्रसिद्ध गोरक्षा आँदोलन इन्हीं के आह्वान पर हुआ था। वे उतना ही भोजन ग्रहण करते थे, जितना हाथों में आ जाये। इसलिये करपात्री महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन्यास के पहले उनका नाम हरि नारायण ओझा था। दीक्षा लेकर दसनामी परम्परा के सन्यासी बने, तब उनका उनका नाम हरिहरानन्द सरस्वती हुआ। उनमें अद्वितीय विद्वत क्षमता और स्मरण शक्ति थी। वेद, पुराण, अरण्यक ग्रंथ, संहिताएँ, गीता रामायण आदि ऐसा कोई धर्मशास्त्र नहीं, जिनका अध्ययन उन्होंने न किया हो। सबके उदाहरण उनके प्रवचनों में होते थे। उनकी इस अद्वितीय विद्वता के कारण उन्हें ‘धर्म सम्राट’ की उपाधि से संबोधित किया गया। ऐसी विलक्षण विभूति संत स्वामी करपात्री जी महाराज का जन्म श्रावण मास शुक्ल पक्ष द्वितीया संवत् 1964 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिला अंतर्गत ग्राम भटनी में हुआ था। उस वर्ष यह 11 अगस्त 1907 को थी। पिता रामनिधि ओझा परम् धार्मिक और वैदिक विद्वान थे। उनकी शिक्षा काशी में हुई थी। माता शिवरानी देवी भी धार्मिक एवं संस्कारों के प्रति समर्पित गृहणी थीं। जन्म के समय उनका नाम हरि नारायण रखा गया। पिता उन्हें भी काशी भेजकर वैदिक विद्वान बनाना चाहते थे। सात वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार और 9 वर्ष की आयु में विवाह हो गया। पत्नी महादेवी भी संस्कारित परिवार की थीं। गौना पन्द्रह वर्ष की आयु में हुआ पर उनका मन घर गृहस्थी में न लगा। वे 16 वर्ष की आयु में गृहत्याग कर सत्य की खोज में चल दिये और ज्योतिर्मठ पहुँचे। वहाँ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी से दीक्षा ली और हरि नारायण से हरिहर चैतन्य बने। उनकी स्मरण शक्ति इतनी विलक्षण थी कि एक बार पढ़ लेने के वर्षों बाद भी पुस्तक और पृष्ठ का विवरण दे सकते थे। काशी में रहकर नैष्ठिक ब्रम्हचर्य श्री जीवन दत्त महाराज से संस्कृत, षड्दर्शनाचार्य स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र और वेदांत अध्ययन, श्री अचुत्मुनी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया। अध्ययन के साथ तपस्वी जीवन शैली अपनाई और साधना से आत्मशक्ति जागरण का अभ्यास किया। 24 वर्ष की आयु में दंड धारणकर स्वयं अपना आश्रम स्थापित कर “परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज” कहलाए। 

1942 के भारत छोड़ो आँदोलन में संतों की टोली बनाकर शोभा यात्रा निकाली और गिरफ्तार हुए। उस समय की राजनीति में स्वामी जी ने दो बातें अनुभव कीं। एक तो भारत विभाजन के वातावरण की तीव्रता और दूसरे राजनीति में नैतिकता, साँस्कृतिक बोध और राष्ट्रभाव का अभाव। स्वामी ने समाज में इन दोनों बातों पर जाग्रति लाने के लिये देशव्यापी यात्रा की। संत और समाज सम्मेलन किये लेखन भी किया। उनके संबोधनों और साहित्य में एक ओर राष्ट्र चेतना और गौरव का भान होता और दूसरी ओर धार्मिक कुरीतियों का निवारण भी। स्वामी ने सनातन धर्म को विकृत करने वाले किस्से कहानियों का तर्क और प्रमाण सहित खंडन किया। इन दोनों उद्देश्य पूर्ति के लिये दो संस्थाओं का गठन किया। पहली अखिल भारतीय धर्म संघ और दूसरी रामराज्य परिषद। अखिल भारतीय धर्मसंघ का गठन 1940 में किया जिसका दायरा व्यापक बनाया। इसका उद्देश्य केवल मनुष्य या हिन्दू समाज ही नहीं, प्राणी मात्र में सुख शांति स्थापित करना था। उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर, भगवान के अंश और रूप हैं। मनुष्य यदि स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न करना होगा। आज धार्मिक आयोजनों के समापन पर “धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो” यह उद्घोष करने की परंपरा स्वामी करपात्री महाराज ने ही आरंभ की थी। 

राजनैतिक शुचिता के साथ भारत राष्ट्र का निर्माण करने के लिये 1948 में राजनैतिक दल अखिल भारतीय रामराज्य परिषद की स्थापना की और 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में 3 सीटें जीतीं। 1952 के अतिरिक्त 1957 एवम् 1962 के विधानसभा चुनावों में भी इस दल की प्रभावी उपस्थिति रही।

गोरक्षा आन्दोलन

स्वामी जी ने देश भर में पदयात्रा की। वे जहाँ कहीं जाते गौरक्षा, गोपालन और गोसेवा पर जोर देते थे और चाहते थे कि भारत में गोहत्या प्रतिबंधित हो। उन्हें तत्कालीन सरकारों से आश्वासन तो मिले पर निर्णय न हो सका। यह भी कहा जाता है कि इंदिरा गांधी जब सूचना प्रसारण मंत्री थीं, तब स्वामी जी से मिलने आई थीं। उन्होंने स्वामी जी को गोहत्या रोकने का आश्वासन भी दे दिया था। पर जब वे प्रधानमंत्री बनीं, तब यह निर्णय न हो सका। अंत में स्वामी जी ने आँदोलन की घोषणा कर दी। स्वामी जी संतों के प्रतिनिधि मंडल के साथ इंदिरा गांधी से मिलने भी गये। स्वामी जी चाहते थे कि संविधान में संशोधन करके गोवंश की हत्या पर पूर्ण पाबन्दी लगे। जब बात न बनी तब स्वामी करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। पंचांग के अनुसार, वह दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्लपक्ष की अष्टमी थी। जिसे “गोपाष्टमी” भी कहा जाता है। इस धरने में चारों पीठाधीश्वर शंकराचार्य एवं भारत की समस्त संत परंपरा के संत सम्मलित हुए। इनमें जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि सभी थे। इस आन्दोलन में आर्य समाज के लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो॰ रामसिंह भी बहुत सक्रिय थे। संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे। उन दिनों इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। स्वामी करपात्री जी को आशा थी कि गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लग जायेगा। पर उनकी आशा के विपरीत निहत्थे संतों पर पुलिस का गोली चालन हो गया। जिसमें अनेक संतों का बलिदान हुआ। पुलिस ने पूज्य शंकराचार्य तक पर लाठियाँ चलाईं। इस हत्याकांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने खेद व्यक्त किया और स्वयं को जिम्मेदार माना। उनके खेद व्यक्त करने के बाद भी संत रामचन्द्र वीर अनशन पर अडिग रहे। स्वामी रामचन्द्र वीर का अनशन 166 दिन चला। इतना लंबा अनशन दुनिया की पहली घटना थी।

गोरक्षा आँदोलन में संतों के बलिदान ने स्वामी करपात्री जी महाराज को बहुत दुखी किया। इसके बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय बनारस स्थित अपने आश्रम में ही बिताया और माघ शुक्ल चतुर्दशी संवत 2038 को केदारघाट वाराणसी में शरीर त्यागा। यह 7 फरवरी 1982 की तारीख थी। स्वामी जी की इच्छानुसार उनकी नश्वर देह को गंगाजी के केदारघाट में ही जल समाधि दी गई। उनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथों में वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष, मार्क्सवाद और रामराज्य आदि हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों में भारतीय परंपरा, संस्कृति की व्यापकता और प्राचीनता को बहुत प्रभावी और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया है। वर्तमान पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी उनके ही शिष्य हैं।

(7 फरवरी 1982 : स्वामी करपात्री महाराज के समाधि दिवस पर)

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