खुदीराम बोस : 19 वर्ष की आयु में हुए बलिदान
रमेश शर्मा
खुदीराम बोस : 19 वर्ष की आयु में हुए बलिदान
3 दिसंबर 1889 खुदीराम बोस जयंती
दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं जो कभी न कभी परतंत्रता के अंधकार में न डूबा हो। उनमें से अधिकांश का स्वरूप ही बदल गया। आज उन देशों की पूर्व संस्कृति का कोई अता पता नहीं है। लेकिन भारत में दासत्व के लंबे अंधकार के बाद भी उसकी संस्कृति पुष्पित और पल्लवित हो रही है। इसका कारण यह है कि भारत में संस्कृति की रक्षा के लिये प्रतिक्षण बलिदान हुए। इन बलिदानों को सत्ता की कोई चाहत नहीं थी। उनका संघर्ष राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए था। ऐसा ही बलिदान क्राँतिकारी खुदीराम बोस का था, जो 16 वर्ष की आयु में अपनी पढ़ाई छोड़कर क्राँतिकारी बने और 19 वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही फाँसी पर चढ़ गये। ऐसे अमर बलिदानियों के आत्मोत्सर्ग से ही हमें यह स्वतंत्रता मिली है। लेकिन उनमें से अधिकांश को तो हम स्मरण तक नहीं करते। ऐसे ही अमर बलिदानी हैं क्राँतिकारी खुदीराम बोस।
खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर जिले के ग्राम बहुबैनी में 3 दिसंबर 1889 को हुआ था। शिक्षा, संस्कार और स्वाभिमान उनकी विरासत रही। माता लक्ष्मीप्रिया देवी की दिनचर्या धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन से ओतप्रोत थी, तो पिता त्रैलोक्यनाथ बोस संस्कृत के विद्वान थे। अपनी परंपरा के अनुरूप उन्होंने बालक को पढ़ने भेजा। विद्यालय का वातावरण यद्यपि अंग्रेजों की दासता से भरा था, जहाँ प्रतिदिन प्रार्थना में अंग्रेज शासक के प्रति नमन की प्रार्थना होती थी। यह बात खुदीराम बोस के पिता को पसंद न थी। पर विवशता के चलते खुदीराम विद्यालय जाते रहे, लेकिन उन्होंने न केवल अपने बच्चे अपितु विद्यालय जाने वाले अपने आसपास के सभी बच्चों को घर में संस्कृत और संस्कारों की शिक्षा देना आरंभ कर दिया।
बंगाल में अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति अपमानजनक व्यवहार किसी भी स्वाभिमानी भारतीय को पसंद न था। इसकी अभिव्यक्ति समय समय पर होती रही। इसी बीच 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन का निर्णय किया। इस निर्णय का आधार नगरीय क्षेत्रों में साम्प्रदायिक तुस्टीकरण और वनवासी क्षेत्रों में मिशनरीज की जड़ें जमाना था। बंगाल विभाजन के समय खुदीराम 16 वर्ष के थे और नौवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। बंगाल विभाजन का विरोध आरंभ हुआ और पुलिस ने इस विरोध को शक्ति से दबाना शुरू किया। संघर्ष और दमन के चलते पूरे बंगाल में तनाव हो गया। किशोर वय खुदीराम बोस पढ़ाई छोड़ कर आँदोलन में जुट गये। उन्होंने रिवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ली। वे भले पन्द्रह-सोलह वर्ष के थे, लेकिन उनकी कद-काठी बहुत दुबली थी। इस कारण वे अपनी आयु से चार पाँच वर्ष छोटे लगते थे। इस कारण पार्टी ने उन्हें पर्चे बांटने, पिस्तौलें और संदेश यहाँ वहाँ भेजने के काम में लगाया। इसका आरंभ वंदेमातरम के पोस्टर बांटने और उन्हें चिपकाने के काम से हुआ। वे एक बार पोस्टर चिपकाते पकड़े गए। आयु से कम दिखने के कारण थानेदार ने छोटा बच्चा समझा। उन्हें चांटे लगाकर और चेतावनी देकर छोड़ दिया। खुदीराम बोस ने पहला बम 28 फरवरी 1906 को उस ट्रेन पर फेंका, जिसमें वायसराय निकलने वाले थे। लेकिन निशाना चूक गया। खुदीराम बंदी बना लिये गये। लेकिन वे कैद से निकल भागे। इसी बीच वे क्राँतिकारी युवकों के दल युगान्तर से भी जुड़ गये। उन दिनों बंगाल में एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड आया वह क्राँतिकारी आँदोलन ही नहीं अंग्रेजों के विरुद्ध प्रदर्शित की गयी किसी भी असहमति पर कठोर यातनाएं देता था। अदालत में अपमानित करता, जेल में यातनाओं के खुलेआम आदेश करता। युगान्तर पार्टी ने इस मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड को रास्ते से हटाने का सोचा। इसकी खबर सरकार को लग गयी थी, इसलिये उसका स्थानांतरण मिदनापुर से मुजफ्फरपुर कर दिया गया। मुजफ्फरपुर इन दिनों बिहार में है। युगान्तर पार्टी ने उसे वहीं जाकर सबक सिखाने का निर्णय लिया और इस काम के लिये खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी को चुना गया। दोनों क्राँतिकारी मुजफ्फरपुर पहुँचे। उन्होंने उसकी दिनचर्या का पता लगाया और 20 अप्रैल 1908 को उसे क्लब के बाहर बम से उड़ाने की योजना बनी। बम फेंकने का काम खुदीराम बोस को दिया गया, जबकि प्रफुल्ल चाकी पिस्तौल लेकर चला कि यदि बम से बचे तो गोली मारी जाये। निर्धारित तिथि पर रात साढ़े आठ बजे मजिस्ट्रेट की बग्गी निकली। लेकिन उसमें मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड नहीं बैठा था। दो ब्रिटिश महिलायें मिसेज केनेडी और उसकी बेटी बैठीं थीं। मजिस्ट्रेट ने क्यों अपनी बग्गी बदली और क्यों अपनी बग्गी में दो यूरोपियन महिलाओं को बिठाकर बाहर भेजा। इस रहस्य से कभी पर्दा न उठा।
बग्गी की प्रतीक्षा बाहर दोनों क्राँतिकारी कर रहे थे। जैसे ही बग्गी उनकी पहुँच के भीतर आयी, खुदीराम ने बम फेंक दिया। बम निशाने पर लगा। बग्गी के चिथड़े उड़ गये। बम कितना जबरदस्त था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी आवाज तीन मील तक सुनी गयी। पूरा क्षेत्र दहल गया। दोनों क्राँतिकारी भागे। भागकर वैनी स्टेशन आये, पर यहाँ पुलिस से घिर गये। अपने बचने का कोई मार्ग न देख प्रफुल्ल चाकी ने पिस्टल से स्वयं को गोली मार ली और खुदीराम बंदी बना लिये गये। उन्हें जेल में भारी प्रताड़ना दी गयी ताकि वे अपने अन्य क्राँतिकारियों के नाम बता दें। पर खुदीराम ने मुँह न खोला और अंततः 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दी गयी। तब उनकी आयु पूरे 19 वर्ष भी न थी। वे श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित पाठ करते थे और फाँसी के समय भी वे गीता अपने साथ ले गये थे।