रैक्व की ज्ञाननिष्ठा

रैक्व की ज्ञाननिष्ठा

नीलू शेखावत

रैक्व की ज्ञाननिष्ठा रैक्व की ज्ञाननिष्ठा

जनश्रुत के पौत्रायण (पुत्र का पौत्र) राजा जानश्रुति बड़े धर्मात्मा थे। वह श्रद्धादेय (जिनके पास जो कुछ था, ब्राह्मणों को श्रद्धा पूर्वक देने के लिए था), बहुदायी (जिनका स्वभाव बहुत दान करने का हो) तथा बहुपाक्य ( जिसके घर में नित्य प्रति बहुत सा पकाया हुआ अन्न रहता हो) थे। वह ऋषि- मुनियों, ब्राह्मणों तथा सत्पात्रों को दान-दक्षिणा दिया करते थे। उन्होंने समस्त दिशाओं में ग्राम और नगरों में आवसथ (धर्मशालाओं) का निर्माण करवाया जहां यत्रियों के ठहरने और भोजनादि का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध था। निर्धनों के लिये उन्होंने अनेक स्थानों पर अन्न-सत्र भी खुलवा रखे थे, जहां से उन्हें अन्न-वस्त्र मिलते थे। इस प्रकार के धार्मिक कार्यों के कारण राजा का यश चहुँ ओर फैला हुआ था।

एक बार कुछ हंस उड़ते हुए राजप्रासाद के ऊपर से निकले, जब राजा जानश्रुति राजप्रासाद की छत पर विश्राम कर रहे थे। वहाँ पहुँचकर एक हंस ने अपने से आगे उड़नेवाले मित्र भल्लाक्ष से कहा-” अरे कहीं तुम उड़ते हुए राजा जानश्रुति के महल के निकट न पहुँच जाना अन्यथा उनके दान और यश रूपी सूर्य के तेज से दग्ध हो जाओगे।”
आगे उड़ता भल्लाक्ष हँसकर बोला-“क्यों भाई! राजा का तेज क्या बैलगाड़ी वाले रैक्व के तेज से अधिक तीव्र है, जो तुम उसके तेज की इतनी प्रशंसा कर रहे हो। ब्रह्मर्षि रैक्व की तुलना में तो इसका तेज़ कुछ भी नहीं है।” पहले वाले हंस ने कहा-“वह बैलगाड़ी वाला ब्रह्मर्षि रैक्व कौन और कैसा है, यह तो बताओ।”
आगे वाला हंस बोला-“भाई! ब्रह्मर्षि रैक्व की महिमा का क्या बखान किया जाय?
यथा कृताय विजितायाधरेया: सन्येन्त्यवमेन सर्वं तद्भिसमेति यत्किञ्च प्रजा: साधु कुर्वंति यस्तद्वेद यत्स वेद स मयैतदुक्त इति।
“जिस प्रकार कृत नामक पासे के जीतने वाले पुरुष के अधीन उससे निम्न श्रेणि के सारे पासे आ जाते हैं उसी प्रकार प्रजा द्वारा किये सारे सत्कर्म रेक्व को प्राप्त हो जाते हैं। जो ज्ञान निष्ठा रेक्व की है वैसी किसीकी नहीं। “

वह उस जानने योग्य वस्तु को जानता है, जिसके जानने के उपरान्त और कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता। उस तत्त्व को जो भी जान लेता है, उसके समान तेज भी भला किसी का हो सकता है? ब्रह्मर्षि रैक्व ब्रह्मवेत्ता हैं, इसीलिए मैं उनके विषय में ऐसा कह रहा हूँ। जानश्रुति को चूँकि अभी आत्म-ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई, इसलिये धार्मिक कृत्यों के कारण चाहे उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाएगी, जहाँ वह स्वर्गीय सुख भोगेगा, परन्तु जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिलेगी और वह मोक्ष-सुख की प्राप्ति न कर सकेगा।”

हंसों की ये बातें राजा जानश्रुति ने भी सुनीं और अपने सेवकों को बुलाकर कहा-“तुम लोग बैलगाड़ी वाले रैक्व के पास जाओ और उनसे कहो कि राजा जानश्रुति आपसे मिलना चाहता है।” सेवकों ने पूछा-“हे राजन्! वे गाड़ी वाले रैक्व कौन हैं और कहाँ रहते हैं, सो बताओ।” तब राजा जानश्रुति ने हंसों के मध्य हुआ सम्पूर्ण वार्तालाप उन्हें कह सुनाया । सुनकर सेवक रैक्व को ढूँढने के लिए निकल पड़े। उन्होंने अनेकों नगरों एवं ग्रामों में रैक्व की खोज की, परन्तु उन्हें सफलता न मिली। रैक्व के विषय में कुछ भी पता न चला। वे वापस लौट आए।

राजा जानश्रुति ने विचार किया कि इन लोगों ने रैक्व को नगरों और ग्रामों में ही खोजा है। भला वह महापुरुष भीड़भाड़ वाले नगरों और ग्रामों में मिलेगा? वे तो किसी एकान्त स्थान पर रहते होंगे। यह सोचकर उन्होंने सेवकों से कहा-“”पुनः जाओ और किसी एकान्त स्थान में उनकी खोज करो।” राजा का आदेश पाकर सेवक फिर रैक्व को ढूँढने निकले। एक दिन उन्होंने एक एकान्त स्थान पर उन्हें शरीर खुजलाते हुए बैलगाड़ी के नीचे बैठे देखा। सेवकों ने उनके पास जाकर विनयपूर्वक पूछा-“‘हे महात्मन्! क्या आपका नाम ही रैक्व है?”
उत्तर मिला -“हाँ, मैं ही रैक्व हूँ।”
रैक्व का पता लग जाने से राजकर्मचारियों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वे तुरन्त राजा के पास लौट आए और यह शुभ समाचार सुनाते हुए बोले-“”राजन्! हमने रैक्व का पता लगा लिया है। अमुक स्थान पर बैलगाड़ी के नीचे बैठे हुए हमने उन्हें देखा है।” यह सुनकर राजा जानश्रुति बहुत प्रसन्न हुए। दूसरे दिन वह छः सौ गउएँ, एक मूल्यवान हार तथा दो अश्वतरियों वाला रथ लेकर रैक्व के पास पहुंचे और हाथ जोड़कर बोले -“ऋषिश्रेष्ठ! छः सौ गउएँ, सोने का यह हार और रथ-ये सब मैं आपके लिये लाया हूँ। कृपा करके आप इन्हें स्वीकार कीजिये और मुझे ब्रह्म का स्वरूप बताइये।”

राजा जानश्रुति की बात सुनकर रैक्व ने कहा-“अरे अज्ञानी! मुझे यह सब नहीं चाहिये। ये गउएँ, स्वर्ण माला और रथ अपने पास रख और यहां से चला जा।” राजा निराश होकर वापस लौट आए और विचार करने लगे कि मैं ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा से ऋषि की सेवा में उपस्थित हुआ था, फिर भी उन्होंने मुझे अज्ञानी कहकर क्यों सम्बोधित किया और मुझे चले जाने को क्यों कहा? कदाचित् इसलिये कि मैं बहुत थोड़े धन के बदले ज्ञान जैसी उत्तम वस्तु प्राप्त करने गया था! किन्तु बिना ज्ञान प्राप्त किये मेरा शोक दूर नहीं होगा, इसलिये मुझे रैक्व को प्रसन्न करने के लिये पुनः उनके पास जाना चाहिए। मन में यह विचार करके राजा जानश्रुति इस बार और भी अधिक धन-पदार्थ लेकर रैक्व के निकट गए और हाथ जोड़कर बोले -“हे ऋषिवर! ये सब मैं आपके लिये ही लाया हूँ; आप इन्हें स्वीकार कीजिए। इसके अतिरिक्त आप जहां रहते हैं, उस रेक्वपर्ण गांव की सारी भूमि भी मैं आपकी भेंट करता हूँ,आप इसे भी स्वीकार कीजिए और मुझे उपदेश कीजिए।”

रैक्व बोले-“अरे अज्ञानी! तू फिर यह सब ले आया। तुझे इन धन-पदार्थों का बड़ा अहंकार है। किन्तु बता! क्या इन सबसे ज्ञान खरीदा जा सकता है?” ब्रह्मर्षि के वचन सुनकर राजा जानश्रुति की आँखें खुलीं और उन्हें अपनी भूल अनुभव हुई। वह अत्यन्त नम्रतापूर्वक बोले- “प्रभो! मैं जानश्रुति आपके चरणों में ब्रह्मविद्या का उपदेश ग्रहण करने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। मुझ पर अनुग्रह कीजिए।” तब रैक्व ने अधिकारी जानकर ज्ञान-उपदेश किया, जिसे प्राप्त करके राजा जानश्रुति का जीवन धन्य हो गया।

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