लेस्टर-बर्मिंघम प्रकरण : घृणा का जनक कौन?
बलबीर पुंज
लेस्टर-बर्मिंघम प्रकरण : घृणा का जनक कौन?
विगत एक माह से ब्रिटेन स्थित लेस्टर (Leicester) और बर्मिंघम में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक तनाव के लिए कौन जिम्मेदार है? इस संबंध में जो ‘नैरेटिव’ भारतीय वाम-उदारवादियों द्वारा बनाया जा रहा है, उसके उसके अनुसार— देश से ‘हिंदुत्व के निर्यात’ ने मीलों दूर ब्रितानी क्षेत्रों की ‘विविधता’, ‘समरसता’ को तथाकथित रूप से प्रभावित किया है। क्या ऐसा है? वास्तव में, यह उसी अर्धसत्य, मनगढ़ंत तथ्य, विशुद्ध झूठ और पूर्वाग्रह युक्त ‘हिंदूफोबिया’ से प्रेरित विमर्श है, जिसका प्रतिबिंब हम कई दशकों से वीर सावरकर के सतत दानवीकरण, कश्मीरी हिंदुओं के संहार (1989-91), वर्ष 2002 के गोधरा कांड-गुजरात दंगे, 2008-13 में ‘हिंदू आतंकवाद’ के फर्जी-मिथ्या सिद्धांत, अखलाक-जुनैद-रोहित प्रकरण से लेकर हालिया हिजाब और नूपुर शर्मा मामले में देख चुके है। इसमें ‘भाजपा-आरएसएस’ से वैचारिक-राजनीतिक घृणा के कारण न केवल हिंदू समाज को ही ‘सांप्रदायिक’, ‘हिंसक’ और ‘असहिष्णु’ रूप में प्रस्तुत किया जाता है, साथ ही शेष विश्व में भारत की छवि को भी कई बार धूमिल कर दिया जाता है।
अभी ब्रिटेन में क्या हुआ? इस संबंध में जितनी मीडिया रिपोर्ट सार्वजनिक हैं, उनमें एक बात स्पष्ट है कि लेस्टर में विवाद तब शुरू हुआ, जब 28 अगस्त को दुबई में हुए क्रिकेट मैच में भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया और इस पर आक्रोशित पाकिस्तानी समर्थकों ने तिरंगे का अपमान कर दिया। इसके बाद— विशेषकर 4 सितंबर को भारत पर पाकिस्तान की जीत के लगभग तीन सप्ताह पश्चात तक लीसेस्टर-बर्मिंघम में जो कुछ हुआ, वह ब्रिटेन में हिंदुओं के विरुद्ध ‘बहुप्रतीक्षित’ जिहाद है। ‘इस्लाम खतरे में है’ और ‘कश्मीर जैसा सबक सिखाने’ का आह्वान करके केवल हिंदुओं और उनके मंदिरों पर हमला किया गया। 20 सितंबर को बर्मिंघम स्थित स्मेथविक क्षेत्र में दुर्गा भवन मंदिर और समुदायिक केंद्र के बाहर उपद्रव हुआ। यहां भारतीय साध्वी ऋतंभरा का कार्यक्रम पूर्व-निर्धारित था, जो रद्द हो गया। ब्रितानी मीडिया के अनुसार, उन्मादी भीड़ ‘भाजपा-आरएसएस का विरोध’ कर रही थी। क्या वाकई लेस्टर (Leicester)-बर्मिंघम का ‘सेकुलर’ ढांचा, बकौल आरोप— ‘हिंदुत्व’ या ‘भाजपा-आरएसएस’ के कारण प्रभावित हुआ है? इसका उत्तर— विशुद्ध ना है।
यूनाइडेट किंगडम (united Kingdom) सहित शेष ईसाई बहुल यूरोप में जिहाद का मामला ना ही पहली बार सामने आया है और न ही इसका भारतीय घटनाक्रम से कोई सीधा लेना-देना है। क्या यह सच नहीं कि ब्रिटेन में बीते दो दशकों में कई जिहादी हमले हो चुके हैं? इनमें सबसे बड़ा फिदायीन हमला 7 जुलाई 2005 को लंदन में हुआ था, जिसमें मोहम्मद सिद्दीकी खान, शहजाद तनवीर, हसीब हुसैन और जमाल ने मानव बम बनकर तीन भूमिगत ट्रेनों और एक बस में धमाका कर दिया। इसमें 52 निरपराधों की मौत हो गई, तो दर्जनों घायल। इसके बाद यहां वर्ष 2015 में एक, 2017 में तीन, 2018 में दो और 2019 में मजहबी नारों के बीच भी एक आतंकवादी हमला हो चुका है। इन जिहादी हमलों के शिकार अधिकांश ईसाई थे।
स्पष्ट है कि यूरोप में यह मजहबी हिंसा न तो हिंदू-मुसलमान तक सीमित है और न ही इसका दंश केवल ब्रिटेन झेल रहा है। अन्य यूरोपी देश स्वीडन, जिसने गृहयुद्ध-संकटग्रस्त मुस्लिम देशों के हजारों-लाख अप्रवासियों को शरण दी— वहां के सरकारी स्वीडिश पुलिस प्राधिकरण (पोलिसन) के अनुसार, वर्ष 2018 से उनके देश में छोटे-बड़े 475 से अधिक धमाके हो चुके हैं। फ्रांस भी 1990-2020 के बीच कई इस्लामी हमलों का साक्षी है। 16 अक्टूबर 2020 को एक मुस्लिम शरणार्थी ने शिक्षक सैम्युएल पैटी का गला इसलिए काट दिया, क्योंकि उसने अपनी कक्षा में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ संबंधित विषय को पढ़ाते हुए पैगंबर मोहम्मद साहब की तस्वीर दिखाने का ‘अपराध’ किया था। इसी नृशंस घटना के 13वें दिन फ्रांसीसी नगर नीस में एक अन्य मुस्लिम शरणार्थी ने ‘अल्लाह-हू-अकबर’ का नारा लगाकर चर्च परिसर में चाकू से तीन लोगों की हत्या कर दी। तब फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने कहा था, “इस्लाम एक ऐसा मजहब है, जो पूरे विश्व में आज संकट में है।”
अभी भारत में 25 सितंबर को क्या हुआ? इस दिन अफगानिस्तान के तालिबानी राज से 55 हिंदू-सिखों का अंतिम जत्था अपनी जान बचाकर भारत लौट आया। वहां अब मात्र 43 हिंदू-सिख बचे हैं। यह स्थिति उस क्षेत्र की है, जो एक हजार वर्ष पहले हिंदू-बौद्ध परंपरा का केंद्र था और कालांतर में इस्लामी आक्रांताओं के सतत हमले, बलात् मतांतरण और शरीयत प्रेरित ‘इको-सिस्टम’ के बीच शत-प्रतिशत तिरोहित हो चुका है। इसी तरह कश्मीर में भी मूल निवासी— हिंदू-बौद्ध अनुयायियों ने 14वीं शताब्दी से इस्लाम के नाम पर शताब्दियों तक भयावह उन्माद को झेला, जिसका अंतिम सामूहिक जिहाद 1989-91 में हिंदुओं की हत्या, उनकी महिलाओं से बलात्कार, मंदिरों पर हमलों और उनके सामूहिक पलायन के साथ संपन्न हुआ।
वर्ष 1947 में विभाजन के बाद इस्लामी पाकिस्तान और बांग्लादेश भी अपने वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप इसी होड़ में हैं। तब पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) में हिंदुओं-सिखों की जनसंख्या 15-16 प्रतिशत, तो पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में हिंदू-बौद्ध की संख्या 28-30 प्रतिशत थी। 75 वर्ष बाद इनकी संख्या क्रमश: डेढ़ प्रतिशत और आठ प्रतिशत भी नहीं रह गई है। ऐसा नहीं है कि इस्लामी देशों में केवल गैर-मुस्लिम ही मजहबी यातनाओं का शिकार हैं। सीरिया, लीबिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि देशों में दीन के नाम पर शिया-सुन्नी संघर्ष और ‘सच्चा मुसलमान’ सिद्ध करने की हनक चरम पर है। एक शोध के अनुसार, अमेरिका में सितंबर 2001 के भीषण 9/11 हमले से लेकर 21 अप्रैल 2019 के बीच 31,221 इस्लामी हिंसा के मामले सामने आए है, जिनमें मारे गए 1,46,811 लोगों में अधिकांश मुस्लिम थे।
इस त्रासदी के लिए वाम-उदारवादी किसे जिम्मेदार ठहराएंगे? हिंदुत्व, आरएसएस, भाजपा या मोदी? सच तो यह है कि बीते 1200 से अधिक वर्षों से समस्त विश्व ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित संकीर्ण मानसिकता का शिकार रहा है, जिसमें गैर-इस्लामी संस्कृति, परंपरा, पूजास्थलों और उनके मानबिंदुओं का कोई स्थान नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीप और मध्यपूर्व एशिया के बाद यह विषैला वैचारिक-चिंतन अमेरिका और पश्चिमी देशों अपना विस्तार कर रहा है। लीसेस्टर-बर्मिंघल में जिहादियों का हिंदुओं पर हमला— इस शृंखला की एक सूक्ष्म कड़ी है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)