राजा मचकुंड की विश्राम स्थली है मचकुंड, ऋषि पंचमी से देव छठ तक लगता है मेला
राजा मचकुंड की विश्राम स्थली है मचकुंड, ऋषि पंचमी से देव छठ तक लगता है मेला
मचकुंड राजस्थान के धौलपुर जिले में स्थित एक प्राचीन तीर्थ स्थल है, जिसकी प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है। चारों ओर से अरावली की पहाड़ियों से घिरे इस तीर्थ का नामकरण राजा मचकुंड के नाम पर हुआ था, जो सूर्यवंश के एक प्राचीन और धर्मपरायण राजा थे। मचकुंड का उल्लेख हिन्दू धर्मग्रंथों में भी मिलता है, जहां इसे एक पवित्र स्थल के रूप में वर्णित किया गया है।
पुराणों के अनुसार, राजा मचकुंड ने देवासुर संग्राम में देवताओं की ओर से भाग लिया था। जिसमें देवताओं ने दानवों को परास्त कर दिया था। इस युद्ध में मचकुंड महाराज के पराक्रम और वीरता ने इंद्र का हृदय जीत लिया। युद्ध की समाप्ति के बाद जब राजा मचकुंड ने देवताओं से विदा माँगी, तब देवताओं ने उन्हें बताया कि देवलोक में युद्ध होने के कारण पृथ्वी पर कई युगों का समय बीत चुका है। अब धरती पर नये युग में राजा का ना तो कोई पारिवारिक सदस्य है ना ही उनका राज्य। यह बात सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ। यह देख कर इंद्र ने राजा से इच्छित वार माँगने को कहा। राजा अपना सब कुछ खो चुके थे, इसलिए उन्होंने किसी भी भौतिक वस्तु की इच्छा प्रकट न करते हुए इंद्र से एक ऐसा स्थान माँगा, जहाँ कोई उन्हें परेशान न करे और वे अपनी थकान दूर करने के लिए कुछ देर सो सकें। इंद्र ने उन्हें बताया कि अरावली पर्वतमाला पर एक कुंड है, जहाँ ऋषि तप किया करते थे। राक्षसों के आतंक के कारण वह स्थान निर्जन हो गया था। अब जब आपने देवताओं के साथ मिलकर सभी राक्षसों का अंत कर दिया है, तो आप उसी स्थान पर विश्राम करें। इसके साथ ही इंद्र ने राजा को वरदान दिया कि जो भी उनकी नींद भंग करेगा, वो राजा के नेत्र खोलते ही भस्म हो जाएगा। मचकुंड ने देवताओं से विदा ली और अरावली की उसी स्थान पर विश्राम करने लगे। इसके बाद इस धार्मिक स्थान का वर्णन हमें महाभारत काल में मिलता है। एक बार भगवान और दैत्यों के राजा कालयावान के बीच युद्ध चल रहा था, जिसमें कृष्ण उसे इंद्र का वरदान होने के कारण परास्त नहीं कर पा रहे थे। तभी उन्हें महाराज मचकुंड और उनको प्राप्त वरदान के विषय में पता चला। भगवान ने कालयावान को मारने के लिए एक लीला रची। वे युद्ध क्षेत्र से कालयावान के सामने भागने लगे। यह देखकर अहंकार वश कालयावान भी उनका पीछा करने लगा। भागते-भागते कृष्ण उसी कुंड के पास विश्राम कर रहे राजा मचकुंड के पास पहुंच गये। भगवान ने अपना वस्त्र राजा के ऊपर डाल दिया और स्वयं छिप गये। जब कालयावान वहाँ पहुंचा तो राजा को कृष्ण समझते हुए ज़ोर- ज़ोर से हंसने लगा। लेकिन तब भी कोई असर ना देख कर उसने राजा मचकुंड के ऊपर से वस्त्र हटा दिया, जिसके कारण महाराज की नींद टूट गयी और जैसे ही उन्होंने अपने नेत्र खोले कालयावान भस्म हो गया। कृष्ण दूर से यह सब देख रहे थे। कालयावान का अंत होते ही वे राजा के सामने आए। यह देख कर राजा मचकुंड अत्यंत प्रसन्न हुए। तब कृष्ण ने उन्हें विष्णु के रूप मे दर्शन दिए और वरदान दिया कि आज से यह कुंड आपके नाम से जाना जाएगा।
मचकुंड में एक गुरुद्वारा भी है। इसलिए यह स्थान हिन्दुओं ही नहीं सिखों के लिए भी पवित्र है। हर वर्ष हजारों सिख यहॉं आते हैं। 4 मार्च 1612 में जब मुग़ल शासक जहांगीर ने सिख गुरु को धौलपुर में शिकार के लिए आमंत्रित किया तो वहाँ जाकर उन्हें सूचना मिली कि मचकुंड के पास एक आदमखोर शेर है, जो कई लोगों को अपना शिकार बना चुका है। दूसरे दिन जब वे सभी शिकार के लिए गए, तब शेर को अपनी तलवार के एक वार से ही गुरु ने समाप्त कर दिया। तभी से यह स्थान शेर शिखर के नाम से जाना जाने लगा तथा बाद में इसी नाम से यहाँ गुरुद्वारे की स्थापना की गयी।
मचकुंड का कुंड
मचकुंड का एक बड़ा आकर्षण यहां का कुंड है, जिसे ‘मचकुंड सरोवर’ या ‘मचकुंड का कुंड’ कहा जाता है। यह कुंड एक प्राकृतिक झील है, जिसका पानी अत्यंत पवित्र माना जाता है। ऐसा विश्वास है कि इस कुंड में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कुंड के चारों ओर शिव, विष्णु और अन्य देवताओं के अनेक मंदिर हैं, जहॉं शिवरात्रि व अन्य धार्मिक अवसरों पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। इसके अतिरिक्त, यहां पर हर वर्ष ऋषि पंचमी से देव छठ तक दो दिवसीय मेला भी आयोजित होता है, जिसमें देशभर से श्रद्धालु और पर्यटक शामिल होते हैं। मेले के दौरान मचकुंड सरोवर में नव विवाहित जोड़ों की कलंगियों का विसर्जन भी किया जाता है। इस वर्ष मचकुंड सरोवर पानी से लबालब है। 1980 के बाद पहली बार यहॉं इतना पानी आया है।
मेले के दौरान धार्मिक अनुष्ठानों के साथ ही विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों, लोकनृत्य व लोकनाट्यों का भी आयोजन होता है। अनेक प्रकार की दुकानें और स्टॉल्स लगाई जाती हैं, जिनमें हस्तशिल्प, आभूषण, वस्त्र, खिलौने और स्थानीय खाद्य पदार्थ मिलते हैं। यह मेला स्थानीय व्यापारियों के लिए अपने उत्पादों को बेचने का भी एक बड़ा अवसर होता है। मेले में जात पांत से परे हर वर्ग के लोग समान रूप से धार्मिक अनुष्ठानों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सामूहिक उत्सव का आनंद लेते हैं। सामाजिक समरसता के प्रतीक ये मेले भारत की समृद्ध हिन्दू संस्कृति को दर्शाते हैं।