भारतीय इतिहास का गौरवशाली पृष्ठ महाराजा सूरजमल
हरिशंकर गोयल ‘श्री हरि’
भारतीय इतिहास का गौरवशाली पृष्ठ महाराजा सूरजमल
महाराजा सूरजमल न केवल धीर, गंभीर, परमवीर योद्धा थे अपितु श्रेष्ठ रणनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, दूरदर्शी, चतुर और उदार व्यक्तित्व के धनी थे। 13 फरवरी, 1707 को इनका जन्म हुआ और 25 दिसम्बर, 1763 को ये स्वर्गवासी हो गये। इतनी कम आयु में इन्होंने जितनी उपलब्धियां अर्जित कीं, वे अद्भुत हैं, अवर्णनीय हैं।
सूरजमल जब केवल 25-26 वर्ष के थे, तब इन्होंने ‘सोघर का युद्ध’ जीत लिया था और भरतपुर के किले का निर्माण करवाना प्रारंभ कर दिया। यह किला भरतपुर के ‘लोहागढ़’ के नाम से जाना जाता है, जिसे तत्कालीन तीन बड़ी शक्तियां मुगल, मराठे और अंग्रेज भी विजित नहीं कर सके थे। इसलिए ‘लोहागढ़’ को अजेय दुर्ग कहा जाता है।
सूरजमल ने भरतपुर की छोटी सी रियासत को आगरा, दिल्ली के आसपास का क्षेत्र, अलीगढ़, फिरोजाबाद, एटा, गुड़गांव, रोहतक, झज्जर, रेवाड़ी, मेवात, फरीदाबाद तक विस्तृत कर लिया था।
जयपुर के राजा जयसिंह की मृत्यु होने के बाद उनके दो पुत्र ईश्वरी सिंह और माधो सिंह में उत्तराधिकार का युद्ध प्रारम्भ हो गया। महाराजा सूरजमल ने ईश्वरी सिंह का पक्ष लिया। माधो सिंह ने मराठों, चौहानों, हाड़ा राजा, उदयपुर के महाराणा समेत 7 राज्यों की सेना एकत्रित की और जयपुर पर चढ़ाई कर दी। 1748 में जयपुर और भरतपुर की सम्मिलित सेना ने उक्त 7 राज्यों की सेना को बगरू के युद्ध में पराजित कर ईश्वरी सिंह को जयपुर की गद्दी पर स्थापित कर दिया। इस विजय से महाराजा सूरजमल का डंका पूरे भारत में बजने लगा।
सन् 1750 ईस्वी तक दिल्ली में मुगल साम्राज्य बहुत कमजोर हो चुका था। 1748 में मुहम्मद शाह रंगीला की मृत्यु हो चुकी थी और उसके उत्तराधिकारियों में निरंतर युद्ध हो रहा था। महाराजा सूरजमल ने अवध के नवाब से मिलकर मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया और मुगल सेना को परास्त कर दिया। इससे भी महाराज सूरजमल की ख्याति चारों ओर फैल गई।
मुगल सेना की पराजय को मुगल शासक पचा नहीं पाये और उन्होंने मराठों से संधि कर ली। तब मराठा सरदार मल्हार राव होलकर ने कुम्हेर के दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया। मराठों की एक विशाल सेना सूरजमल की रणनीतिक कुशलता के कारण कुम्हेर को विजित नहीं कर सकी। सिंधिया के हस्तक्षेप से मराठों और सूरजमल के मध्य संधि हुई। इससे मराठों की ख्याति को बहुत नुकसान हुआ और सूरजमल की ख्याति एक कुशल शासक के रूप में स्थापित हो गई।
मई 1754 में महाराजा सूरजमल ने मुगलों द्वारा शासित दिल्ली पर आक्रमण कर दिया और लगभग 1 महीने तक दिल्ली को लूटा। इस लूट में उन्हें अथाह धन हाथ लगा जिससे जन कल्याण के कार्य करवाए गए। इस घटना से मुगल शासकों की क्षीण शक्ति का पता सबको लग गया।
सन् 1761 में पानीपत का तृतीय युद्ध लड़ा गया जो अहमद शाह अब्दाली और मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ के मध्य लड़ा गया था। दिल्ली के मुगल शासक ने अब्दाली को भारत को लूटने के लिए आमंत्रित किया था, जिसे रोकने के लिए मराठे पानीपत तक आ धमके थे। कहते हैं कि मराठा सदाशिवराव भाऊ को अपनी सैन्य ताकत पर बहुत अभिमान था और उसने सूरजमल के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया इसलिए सूरजमल इस युद्ध से अलग रहे। युद्ध में मराठों की बुरी तरह हार हुई लेकिन सूरजमल ने अपने क्षेत्र में से लौटते हुए मराठा सैनिकों के साथ बहुत उदारता पूर्वक व्यवहार किया। सर्दी में कांपते मराठा सैनिकों को गर्म कपड़े दिलवाये और लगभग 6 महीने तक उन्हें भोजन उपलब्ध करवाया। पानीपत की पराजय ने मराठों की शक्ति को छिन्न भिन्न कर दिया ।
सन् 1763 में दिल्ली के साथ युद्ध करते समय धोखे से सूरजमल का वध कर दिया गया।
इसका बदला लेने के लिए सूरजमल के पुत्र जवाहर सिंह ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया और दिल्ली को पराजित किया। जवाहर सिंह दिल्ली से मुगलों का सिंहासन और लाल किले का द्वार उखाड़ लाए। यह द्वार पहले चित्तौड़गढ़ किले का था। सन 1303 में महारानी पद्मिनी के जौहर में आत्मोसर्ग करने के कारण अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ में भयानक नरसंहार किया और किले का द्वार उखाड़ कर दिल्ली ले आया तथा उसे लाल किला में लगवा दिया। जवाहर सिंह ने उस द्वार को लाल किले से उखाड़ कर भरतपुर में लगवा कर उस अपमान का प्रतिशोध ले लिया। महाराजा सूरजमल की उपलब्धियों की सूची बहुत लंबी है। भारत के ऐसे सच्चे वीर सपूत को उनकी पुण्यतिथि 25 दिसम्बर पर शत शत नमन।
(लेखक राजस्थान प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं)