विश्व को मलखंब और नौकायन भारत ने दिए
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प्रशांत पोळ
विश्व को मलखंब और नौकायन भारत ने दिए
मलखंब शरीर, मन, बुद्धि का सर्वांगीण विकास करने वाला जबरदस्त खेल है। कुछ समय पहले तक यह भारत के बाहर अधिक प्रसिद्ध नहीं हुआ था। किंतु आजकल यह यूरोप तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों मे लोकप्रिय हो रहा है। प्राचीन भारत में, आज हम जिसको ‘जिमनास्टिक’ कहते हैं, उस स्वरूप में लोकप्रिय था। कुश्ती और आज के जिमनास्टिक का जबरदस्त संगम है मलखंब। प्राचीन काल में मल्ल विद्या सीखने वाले मल्ल, अर्थात पहलवान, मल्लविद्या का अभ्यास करने के लिए इस खेल का उपयोग करते थे। इसलिए इसका नाम ‘मलखंब’ विख्यात हुआ।
प्राचीन भारत में यह खेल बड़े पैमाने पर खेला जाता था। इसका स्पष्ट प्रमाण मिला है, वह लगभग ढाई हजार वर्ष पहले का है। पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में, विद्याधारी नदी के पास, चंद्रकेतुगढ़ नाम का छोटा सा गांव है। प्राचीन समय में यह अंतरराष्ट्रीय समुद्री व्यापार का महत्वपूर्ण केंद्र था। यहां वर्ष 1957 से 1968 के बीच उत्खनन किया गया। उसमें अनेक प्राचीन वस्तुएं मिलीं। उनमें से, मिट्टी के बर्तनों पर ‘खंभे पर जिमनास्टिक का प्रदर्शन करते हुए व्यक्ति’ अर्थात, ‘मलखंब खेलने वाले लोग’ दिखते हैं। यह मलखंब अर्थात प्राचीन जिमनास्टिक का, सबसे पुराना और जबरदस्त प्रमाण है
आगे चलकर सातवीं सदी में, चीनी बौद्ध यात्री झुआन झांग (उच्चारण – ह्वेन सांग Hsuen Tsang) भारत में आया था। उसने अपना यात्रा वृत्तांत लिखकर रखा है। उसमें प्रयागराज का वर्णन करते हुए ह्वेन सांग लिखता है, ‘नदी के बीच में एक खंभा लगाया गया है। सूर्यास्त के समय अनेक साधक इस पर चढ़ते हैं और एक पैर व एक हाथ से खंबे को पकड़कर, विलक्षण रूप से, दूसरा पैर और दूसरा हाथ बाहर की ओर फैलाते हैं। यह बड़ा ही मनोहारी दृश्य हैं।’ वर्ष 629 से 639 इस कालखंड में ह्वेन सांग ने भारत में प्रवास किया था, तब का यह वर्णन है।
आगे, चालुक्य राजवंश के कालखंड में, वर्ष 1135 में, राजा मुम्मडी सोमेश्वर ने ‘मानस उल्हास’ नाम का ग्रंथ किसी से लिखवाया। यह उस समय का ‘एनसाइक्लोपीडिया’ है। इस ग्रंथ में उस समय के अनेक खेलों का विस्तार से वर्णन आता है। हाथियों की लड़ाई के खेल का भी वर्णन है। इस ग्रंथ में मलखंब की विस्तार से जानकारी दी गई है।
नौका दौड़
नौका दौड़ (बोट रेस) के बारे मे भी भारत को श्रेय नहीं मिलता। व्यवस्थित नियमावली बनाकर खेले गए पहले नौका दौड़ (बोट रेस) खेल का श्रेय दिया गया है, कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में हुई नौकायन प्रतियोगिता (नौका दौड) को। 10 जून 1829 को यह रेस हुई थी, जो इस प्रकार की पहली ही रेस थी, ऐसा कहा गया। विकिपीडिया समेत सभी स्रोतों पर ऐसी ही जानकारी मिलती है।
सत्य स्थिति क्या है..?
केरल के पथनामथिट्टा जिले में, अरणमुळा गांव में, श्रीकृष्ण – अर्जुन का, ‘पार्थसारथी मंदिर’ है। _(इस मंदिर की विस्तृत जानकारी, ‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग 1’ में, ‘अरणमुळा कन्नड़ी’ अध्याय में दी गई है।)_ पंपा नदी के तट पर स्थित यह मंदिर, 1700 वर्षों से भी अधिक पुराना है। ऐसा बताया जाता है कि, इस मंदिर के निर्माण के पहले भी, सागर में मिलने वाली पंपा नदी में नौकायन प्रतियोगिताएं (नौका दौड़) होती थीं। आज भी यहां प्रतियोगिताएं होती हैं। उन्हें ‘वल्लम काली’ कहा जाता है। ओणम के त्यौहार के बाद, भारत के दक्षिण समुद्र तट पर नौकायन प्रतियोगिताओं की परंपरा बहुत पुरानी है। 64 से 128 लोगों वाले नावों कि यहां प्रतियोगिताएं होती हैं।
यह प्रतियोगिताएं अत्यंत प्राचीन हैं। किंतु इसके प्रमाण मिले हैं, तेरहवीं सदी से। कयामकुलम और चंबा कसेरी इन राजघरानों में यह प्रतियोगिताएं होती थीं, ऐसे तथ्य सामने आए हैं। चंबाकसेरी के राजा देवनारायण ने इन प्रतियोगिताओं का पुनरुत्थान किया। उसने ‘चुंदन वल्लम’ अर्थात, सांप के आकार की नौका बनवाई और प्रतियोगिताएं प्रारंभ कीं। आज केरल में अरणमुळा नौका दौड़ के साथ-साथ, अलापुझ्झा नौका दौड़ (नेहरू ट्रॉफी प्रतियोगिता), त्रिशूर जिले में होने वाली ‘कंदासंकदाऊ प्रतियोगिता’, कोल्लम की अष्टामुदी प्रतियोगिता जैसी अनेक प्रतियोगिताएं होती हैं। इनके पीछे बहुत बड़ा इतिहास है। अनेक प्रतियोगिताओं में गांव-गांव की नौकाएं आती हैं। आज का आईपीएल फीका होगा, ऐसी प्रतियोगिताएं प्राचीन समय से भारत के समुद्र तट पर होती आ रही हैं। निकोबार के वनवासी समूह भी नौका दौड़ प्रतियोगिता करते हैं। ‘असोल आप’ नाम से खेली जाने वाली ये प्रतियोगिताएं, पानी के ऊपर चलने वाली नौकाओं की होती हैं, वैसे ही रेती पर चलने वाली नौकाओं की भी होती हैं। पश्चिम बंगाल के सुंदरवन के आसपास, नौका दौड़ की चार प्रमुख प्रतियोगिताएं होती हैं।
दुर्भाग्य से अपनी यह समृद्ध विरासत, हम कभी दुनिया के सामने नहीं लाए।
ऐसे अनेक खेल, बैठकर खेलने वाले और मैदान में खेलने वाले भी। खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्टू… अनेक। हमारे पूर्वजों ने इन खेलों की सुंदर रचना बनाई थी। यह सभी खेल वैज्ञानिक दृष्टि से परिपूर्ण तो हैं ही, साथ ही शरीर शास्त्र की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। शरीर, मन और बुद्धि का विकास करने वाले, उनमें संतुलन बनाने वाले और एकाग्रता निर्माण करने वाले ये खेल, सभी दृष्टि से व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं।
सोलहवीं सदी में, विजयनगर साम्राज्य में, राजा कृष्णदेव राय के राज्य शासन में, पुर्तगाल का राजदूत आया था। उसने विजयनगर साम्राज्य के खेल और विविध क्रीड़ा प्रकार के संबंध में बहुत कुछ लिख रखा है। लेकिन हम हैं, जो अपनी समृद्ध क्रीड़ा विरासत को भूलते जा रहे हैं।
(‘भारतीय ज्ञान का खजाना – भाग २’ इस प्रकाशित होने जा रही पुस्तक के अंश)